पत्रकारिता की आधुनिक कथाएं : मेरी जंग
पत्रकारिता की आधुनिक कथाएं : मेरी जंग
संपादक ने मीटिंग ली। सबसे कहा आइडिया दो। आजकल आइडिया पर काम होता है, घटना पर नहीं। सबने आइडिया दिया। कोई बोला, सर महंगाई... मने टमाटर ईटीसी। धत्। पागल हो? नेक्स्ट। सर, इस बार छंटनी पर कर लेते हैं। आइटी कंपनियों में भयंकर संकट है। संपादक अस मुस्कराया जस बुद्ध क्या मुस्कराते। बोले- बच्चा, पूरा करियर विशेषांक बंगलोर पर टिका है, आइटी को तो छूना भी मत। राजनीतिक संपादक अब तक चुप थे। जब सारे लौंडों ने आइडिया दे दिया तो उन्होंने सिर उठाया- मेरी समझ से हमें आज़ादी के सत्तर साल पर एक विशेषांक की तैयारी करनी चाहिए। ओके... संपादक ने कहा... आगे बढि़ए। राजनीतिक संपादक बोलते गए, "...कि हम क्या थे और क्या हो गए... जैसा माननीय ने कहा था अभी... कि चीन याद रखे भारत 1962 वाला भारत नहीं है। तो आइडिया ऑफ इंडिया... इस पर कुछ कर लेते हैं।"
इतने लंबे वाक्य में संपादक को केवल 'च' राशि सुनाई दी। उछलते हुए बोले, "यार, ये चीन युद्ध को कितना बरस हुआ?" पचपन साल सर- एक रंगरूट उछला।
अच्छा? पचास होता तो मज़ा आ जाता। तब तक सेना के जवान की तरह बहुजेबी जाकेट पहनने वाला ठिगना संवाददाता उछला- सर, पचास हो सकता है। 1967 में एक झड़प हुई रही सिक्किम बॉर्डर पर... उसे तान देते हैं, पचास का पचास और माहौल भी टाइट है ही!
"उम्मम... दैट्स वाइ आइ लव यू डूड...!"
फिर संपादक ने राजनीतिक संपादक को देखा और सुझाव की मुद्रा में आदेश दिया,
"आपका आइडिया सही था मिश्राजी, बस सत्तर को पचास कर दो। डोकलाम में मामला मस्त चल रहा है। लगे हाथ एक जंग हो जाए। क्यों?"
कमरा यस सर के समवेत् स्वर से गूंज उठा।
तैयारी पूरी थी जंग करवाने की तभी बिहार में तख्ता पलट कर सलट गया। "आइडिया शेल्व्ड... बिहार निकलो", संपादक का फ़रमान आया।
"लेकिन सर जंग?"
संपादक ने उसे डांटा, '
'जंग गई भाड़ में, पटना जाइए।"
रातोरात हड़बड़-तड़बड़ में युद्ध टल गया और बिहार ने उसकी जगह ले ली। किसी तरह दो दिन बाद बिहार का मामला संभला तो संपादक ने कहा, "इस बार चाइना ले लो।"
स्टोरी अपडेट होने लगीं। तैयारियां पूरी थीं। डोकलाम अब भी टाइट था। कोई पीछे नहीं हट रहा था। स्टोरी का रेलेवेंस बना हुआ था कि अचानक पाकिस्तान में नवाज़ की कुर्सी चली गई।
"शिट्ट यार... ये क्या हो रहा है। कोई नहीं... इस्लामाबाद से कॉलम मंगाओ... क्विक।"
न्यूज़रूम की सारी मिसाइलों का मुंह शेंजांग से रावलपिंडी की ओर मुड़ गया। दफ्तर में डेस्क वाले कराची यात्रा के संस्मरण सुनने-सुनाने लगे। मामला बिहार से कम घरेलू नहीं था। कुछ शौकीनों ने तो झोंक में प्रेस क्लब में बिरयानी महोत्सव ही रखवा दिया। बस संपादक थोड़ा तनाव में था।
दरअसल, डोवाल साहब चाइना जा चुके थे और इधर स्टोरी अटकी पड़ी थी। वह किसी तरह नवाज़ की कुर्सी को 'वन बेल्ट वन रोड' प्रोजेक्ट से जोड़ने की जुगत भिड़ा रहा था ताकि चीन की कहानी भी इसी में अटैच हो कर निपट जाए। तभी मोबाइल घनघनाया। "जी सर प्रणाम!" नॉर्थ ब्लॉक से ठाकुर साब का फोन था। "क्या पंडिज्जी! हमारे जवान माइनस दस डिग्री में खर्च हो रहे हैं और आप दो हफ्ते से गोला दिए पड़े हैं। कब छपेगी?"
संपादक घिघियाया,
"सर, वो बीच में बिहार हो गया फिर पाकिस्तान हो गया... कोशिश कर रहा हूं।"
उधर से कड़ी आवाज़ आई, "मैं आपकी कड़ी निंदा करता हूं। बिहार को लोग प्री-स्क्रिप्टेड बताके गरिया रहे हैं। पाकिस्तान के बहाने फिर पनामा का धुआं उठ रहा है। कुछ समझ में आता है आपको कि मैंने चीन से जंग की स्टोरी चलाने को क्यों कहा था? कल डोवाल साब लौट आएंगे और सारा खेल खत्म!" कह कर उन्होंने फोन रख दिया। संपादक कुछ समझ पाता, उसके पहले ही मालिक के केबिन से बुलावा आ गया।
इसके बाद की कहानी इतिहास है। अगले दिन पांच सौ लोगों की भीड़ प्रेस क्लब में संपादक के समर्थन में जुटी। अभिव्यक्ति की आज़ादी के नारे लगाए गए। संपादक की बरखास्तगी के खिलाफ़ जुलूस निकला। नया संपादक भी आ गया। अब तक किसी ने नहीं पूछा है कि आखिर संपादक ऐसा क्या अभिव्यक्त करना चाह रहा था कि उसे नौकरी से निकाला गया।
(फेसबुकिया टिप्पणी)


