- राजेंद्र शर्मा

बेशक, नीतीश कुमार के पल्टी मारकर भाजपा की गोद में जा बैठने से मोदी सरकार का विकल्प सामने आने और खासतौर पर 2019 के आम चुनाव के लिए ऐसा विकल्प सामने आने की उम्मीदों और संभावनाओं को भारी धक्का लगा है। इसकी वजहें भी स्वत:स्पष्ट हैं। नीतीश कुमार सिर्फ बिहार की उस 'महागठबंधन’ सरकार के मुखिया ही नहीं थे, जिसने 2014 के आम चुनाव की जबर्दस्त जीत के बाद, खुद को अजेय मानने और मनवाने लगे मोदी राज के रथ को बलपूर्वक रोका था।

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नीतीश कुमार इस 'बिहार मॉडल’ का देश के पैमाने पर विस्तार किए जाने और किसी रूप में इसी तरह के विपक्षी गठबंधन के जरिए मौजूदा आरएसएस-भाजपा राज का मुकाबला किए जाने और 2019 के चुनाव में उसका विकल्प पेश किए जाने के, सबसे बड़े तथा साखदार पैरोकार भी थे। नीतीश कुमार की कलाबाजी का धक्का इतना जबरदस्त है कि अब मौजूदा शासन के विकल्प की कामना करने वालों के बीच भी, ऐसे विपक्षी गठबंधन के जरिए कोई वास्तविक विकल्प पेश किए जाने का भरोसा जमना मुश्किल होगा। इसलिए, यह कहना शायद अत्युक्ति नहीं होगी कि नीतीश कुमार ने अपने अवसरवाद की गदा से विपक्षी एकता के जरिए विकल्प के अजन्मे विचार की भ्रूण हत्या कर दी है।

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इसलिए, यह तो निर्विवाद है कि नीतीश कुमार ने 2019 के आम चुनाव के लिए न सिर्फ बिहार के स्तर पर बल्कि देश के पैमाने पर भी उन्हीं नरेंद्र मोदी का रास्ता निरापद बनाने का उद्यम किया है, जिनके भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के पहले आधिकारिक संकेत पर ही, उन्होंने 2013 में भाजपा के साथ गठबंधन की सरकार से नाता तोड़ लिया था। लेकिन, क्या इसीलिए नीतीश कुमार का यह कहना भी सच मान लिया जाए कि 2019 के चुनाव में नरेंद्र मोदी के लिए कोई चुनौती ही नहीं होगी?

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नामुमकिन ही नहीं है कि 2019 के आम चुनाव के अपने इसी आकलन के आधार पर और 2020 के बिहार के विधानसभाई चुनाव के लिए डर की वजह से भी, सर्वाइवल की राजनीति के चतुर खिलाड़ी नीतीश कुमार ने मौका देखकर, पर्याप्त एडवांस में ही पलटी मारी हो। लेकिन, नीतीश कुमार का यह कहना पूरी तरह से असत्य न हो फिर भी है अद्र्घ-सत्य ही कि मोदी का 'मुकाबला करने की किसी में क्षमता है नहीं’!

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जाहिर है कि नीतीश कुमार के इस आकलन में दो पहलुओं से सचाई जरूर है। पहला तो यही कि नेता बनाम नेता के मुकाबले में, नरेंद्र मोदी के लिए आज किसी भी विपक्षी नेता से वास्तविक चुनौती नहीं है। इसके कारण अनेक हैं, जिनमें कार्पोरेट नियंत्रित मीडिया से लेकर विपुल सरकारी-गैरसरकारी संसाधनों तथा आरएसएस के विशद नैटवर्क तक की मदद से, खासतौर पर 2013 से लगातार नरेंद्र मोदी का 'छवि निर्माण’ सबसे प्रमुख है। बहरहाल, फिलहाल यह एक सच है कि मोदी को किसी एक नेता से सीधी चुनौती नहीं मिल रही है।

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सचाई का दूसरा पहलू यह है कि जिस तरह की 'विपक्षी एकता’ के जरिए, 'विकल्प’ पेश करने की, अपनी ताजातरीन पल्टी से पहले तक नीतीश कुमार वकालत करते रहे थे, उससे बहुत उम्मीदें तो पहले भी नहीं थीं, लेकिन अब एक तरह से सारी उम्मीदें ही खत्म हो गयी हैं। इसके बावजूद, नीतीश कुमार का उक्त आकलन गलत भी साबित हो सकता है। इसकी वजह यह है कि उनके आकलन में आज का चतुर पार्टीगत गणित जरूर है, लेकिन उसमें न तो जनता है और मौजूदा आरएसएस-भाजपा राज का वास्तविक आचरण है। इस जड़ गणित से, देश और समाज का वास्तविक जीवन बाहर ही छूट गया है।

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हाल के कुछ महीनों में देखने में आयी किसानों के आंदोलन की बहुत हद तक स्वत:स्फूर्त तथा अप्रत्याशित बगावत का संदेश क्या है? निजीकरण से लेकर ठेकाकरण तक के खिलाफ जगह-जगह पर हो रहीं मजदूरों तथा कर्मचारियों की भांति-भांति की विरोध कार्रवाइयों का संदेश क्या है? जीएसटी के खिलाफ छोटे व्यापारियों से लेकर, अनौपचारिक क्षेत्र में विभिन्न पेशों लोगों तक के जबर्दस्त रोष का संदेश क्या है? कालेजों-विश्वविद्यालयों के छात्रों से लेकर, बेरोजगार युवाओं की बढ़ती फौज तक के बढ़ते विक्षोभ का संदेश क्या है? और 'नॉट इन माई नेम’ के बढ़ते आवेग का संदेश क्या है?

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जनतांत्रिक संस्थाओं, जनतांत्रिक परिसरों तथा असहमति की आवाजों के दबाए जाने और बढ़ते पैमाने पर आरएसएस के विचार, आचार तथा कारकूनों के थोपे जाने के खिलाफ ज्यादा से ज्यादा मुखर होते विरोध का, जो अब कई बार अनिच्छुक मुख्यधारा के मीडिया में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा लेता है, संदेश क्या है? यही तो कि अपनी सारी लफ्फाजी के बावजूद, नरेंद्र मोदी का राज नवउदारवाद और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की जो आरएसएस निर्देशित जुगलबंदी पेश कर रहा है, उससे आम जनता के विशाल हिस्से का पूरी तरह से मोहभंग हो चुका है।

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और मोदी राज की मीडिया के सहारे खड़ी सारी लफ्फाजी, सारे ढपोशंखी दावों तथा झूठे प्रचार और यहां तक कि विभाजनकारी मुद्दे उछालकर लोगों का ध्यान बंटाने की तमाम कोशिशों के सात पर्दों को चीरकर, जनता का गुस्सा बढ़ते पैमाने पर सामने आ रहा है। वामपंथी, जनतांत्रिक तथा धर्मनिरपेक्ष ताकतों के हस्तक्षेप इसी प्रक्रिया को तेज करने में, वाणी देने में लगे हैं। संक्षेप में यह कि अपने वास्तविक अनुभव से सीखकर आम जनता तेजी से मौजूदा शासन के खिलाफ उठ रही है। जन-मन तेजी से बदल रहा है।

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और जब जन-मन बदलता है, ऐसी संभावनाओं के द्वारा खोलता है जिनका पहले से अनुमान नहीं किया जा सकता था। स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास से ही दो उदाहरण फौरन याद आते हैं। इमर्जेंसी का अंत करने वाला 1977 का चुनाव और वाजपेयी राज का अंत करने वाला 2004 का चुनाव। दोनों उदाहरणों में पहले से विकल्प नजर नहीं आता था। लेकिन, जनता ने खुद विकल्प गढ़ लिया और उस पर अपने अनुमोदन की मोहर भी लगा दी। हां! तत्कालीन प्रस्तुत 'विपक्ष’ तथा उसके द्वारा प्रस्तुत 'विकल्प’ की भी इसमें सहायक की या निमित्त की भूमिका थी। जनता के मुद्दों पर संघर्षों में एकता के प्रयासों के जरिए, वामपंथ ठीक इसी का प्रयास कर रहा है। फिर भी, 2019 के चुनाव में जनता ऐसा करती है या नहीं या उसे ऐसा करने के लिए आवश्यक निमित्त भी मिलता है या नहीं, यह तो अगले पौने दो साल में ही पता चलेगा। पर इतना तय है कि 2019 अब भी कोई बंद अध्याय नहीं है। विकल्प अब भी संभावना है।