पितृसत्ता के गाल पर बेटियों के सोने चांदी और कांसे के जूते जरूरी
पितृसत्ता के गाल पर बेटियों के सोने चांदी और कांसे के जूते जरूरी
पितृसत्ता के गाल पर बेटियों के सोने चांदी और कांसे के जूते जरूरी।
सबिता बिश्वास
आज शाम को जब हमारी बेटी पीवी सिंधु रियो ओलंपिक में स्वर्ण पदक के लिए निर्णायक लड़ाई में जान दांव पर लगाकर जीत हासिल करेगी, तब हम उनका यह खेल और उसका नतीजा देख नहीं सकेंगे लाइव, क्योंकि तब तक हम सफर पर निकल चुके होंगे और ट्रेन में ही नतीजे की खबर मिल जायेगी।
दीपा कर्मकार से लेकर बोम्मेला देवी, साइना सानिया से लेकर विनेश फोगत तक हमारी तमाम हारी हुई बेटियों की तरफ से हमारी सिंधु पितृसत्ता के गाल पर स्वर्ण पदक जड़ देंगी, हमें इसकी उम्मीद है। चांदी का जूता तो तय है।
सोने का जूता मिले तो बेहतर।
हां, ये पदक नहीं है। ये ओलंपिक तमगे कांसे, चांदी और सोने के जूते हैं, जो हमारी बेटियां पितृसत्ता के गाल पर जितनी तेजी से चस्पां कर दे, उतना ही देश और देश के भविष्य के लिए बेहतर।
दिल्ली सेबहुत दूर त्रिपुरा या मणिपुर, या दंडकारण्य, या अंडमान निकोबार या कश्मीर में आम जनता के लिए राष्ट्र क्या है, इरोम शर्मिला के सोलह साल के अनशन से हम समझ नहीं सकें तो दीपा के मौत को दावत देने वाले ओलंपिक वाल्ट से हम यह पहेली बूझ लेंगे, इसकी खास उम्मीद नहीं है।
सत्ता वर्ग के लिए स्त्रियों को कुछ रियायतें देना औपनिवेशिक काल से रिवाज रहा है।
हालांकि पितृसत्ता की पकड़ से सत्ता वर्ग की औरतें भी कभी आजाद नहीं रही है और निर्णायक मौके पर उसकी देह, मन, अस्तित्व और अस्मिता पर पितृसत्ता की मुहर लगना अनिवार्य है।
सिंधु ने सेमी फाइनल तक जो खेल दिखाया है, जो नारीशक्ति की अपराजेय मारकक्षमता का इजहार किया है, खेलों में इसका इंजेक्शन हर खिलाड़ी को लग जाये तो ऐन आखिरी क्षणों पर हम हार का जश्न इसतरह मनाने को अभ्यस्त न होते।
जाहिर है कि अब पूरे देश को सिंधु से सोने से कुछ कम चांदी की भी कोई तमन्ना नहीं है।
उम्मीद है कि दीपा की तरह, साक्षी की तरह जीत की जिद सिंधु की बनी रहेगी और 130 करोड़ लोगों की उम्मीदों के बोझ का उस पर वैसा असर न होगा जैसा सानिया, साइना और दीपिका कुमारी पर और हमारी हाकी टीम पर, अभिनव बिंद्रका, अतनु दास और श्रीकांत पर निर्णायक मौकों पर होता रहा है और उनकी क्षमता और दक्षता के मुताबिक उनका प्रदर्शन नहीं रहा है।
सिंधु पर ऐसा असर होता तो वे दनादन फाइनल तक नहीं पहुंचतीं और साक्षी मलिक की तरह उसकी जीतने की जिद में पीछे से पलटकर अचूक मारक क्षमता शामिल है।
सिंधु पर लिखने की जरूरत हुई तो बाद में लिखा जायेगा।
हरियाणा के देहात से रियो ओलंपिक तक जाकर कांस्य पदक जीतकर लौटी साक्षी की जीत सिंधु ने सोना भी जीता, तो भी उससे कहीं बड़ी जीत है।
क्योंकि साक्षी की यह जीत सीधे तौर पर खाप पंचायत, भ्रूण हत्या की पितृसत्ता पर जीत है।
भारत में हाकी का स्वर्णिम इतिहास है और फुटबाल में भी पीके बनर्जी और चुनी गोस्वामी की टीम ने भारत का झंडा बुलंद किया है। क्रिकेट में हम बादशाह हैं।
महिलाओं का इन सारे खेलों में प्रवेश अबाध रहा है।
बैडमिंटन या टेनिस में हमारी बेटियां अरसे से बेहतर प्रदर्शन कर रही है और सिंधु की जीत का सिलसिला या सानिया साइना का प्रदर्शन उसी सिलसिले में एक बड़ी उपलब्धि है।
दूसरी तरफ, बाबासाहेब अंबेडकर के महिलाओं के हित में हिंदू समाज में स्त्री हकहकूक का कानून बनाने से रोकने वाली भारत की आजाद सत्ता ने हर तरह का आरक्षण देने के बावजूद स्त्री सांसदों की अभूतपूर्व एकता पर पुरुष वर्चस्व की निर्ममता के तहत स्त्रियों को पंचायतों में राजनीतिक आरक्षण देने के बावजूद संसद और विधानसभाओं में आरक्षण देने के लिए अब भी तैयार नहीं है।
महिलाओं के लिए भारत में कुश्ती निषिद्ध रही है और भारत सरकार ने इस खत्म करने की कभी पहल की हो, ऐसा मालूम नहीं है।
बहरहाल 1998 में भारतीय कुश्ती फेडरेशन ने महिलाओं को कुश्ती में शामिल होने की इजाजत दी, तो भी सामाजिक पारिवारिक बाधाओं को पार करके अखाड़े में दाखिल होने की हालत में नहीं थी लड़कियां।
पहल की बैंकाक एशियन गेम्स में कुश्ती का सोना जीतने वाले चंदगीराम ने अपनी दोनों बेटियों को अखाड़े में उतारकर।
दीपिका और सोनिका को अखाड़े में उतारकर जंग की शुरुआत कर दी चंदगीराम ने और फिर उसी विनेश फौगत के परिवार ने, जो जख्मी हो जाने की वजह से पदक जीत नहीं सकी, उसका सिलसिला जारी रखा।
गीता फौगत ने पिछले ओलंपिक में इसी परिवार का प्रतिनिधित्व किया था तो इसबार विनेश और बबीता ने।
साक्षी की जीत के बाद अगर हरियाणा और गायपट्टी की बेटियों को कुश्ती और दूसरे खेलों में भाग लेने की आजादी मिले तो अगले ओलंपिक में पदकों का संख्या बढ़ सकती है।
साक्षी की ऐसी कोई पारिवारिक विरासत नहीं है।
लेकिन 1998 में अखाड़े में बेटियों के प्रवेश का जो दरवाजा खिला , उसको बंद करते जाने के पितृसत्ता और खाप पंचायतों के फतवे के खिलाफ उसने पहलीबार ओलंपिक कांस्य जीता जो अब तक भारत के जीते तमाम स्वर्ण पदकों से बढ़कर है।
आज रोहतक में उसका परिवार मीडिया की चकाचौंध से घिरा है और हरियाणा में सबसे ज्यादा जश्न मनाया जा रहा है जहां पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की औसत जनसंख्या भारत में सबसे कम है, जहां आनर कीलिंग सबसे ज्यादा है और जाति गोत्र वैवाहिक संबंधोंको लेकर हत्या की पारदातें सबसे ज्यादा है।
असल जश्न तो तब होगा जब हम अपनी बेटियों को मुकम्मल आजादी देंगे, उतनी ही जितनी सिमोन बाइल्स या सेरेना विलियम्स को है, बाकी दुनिया की आधी आबादी को है।
हमारा यहां तो अब बी हमारी बेटियां बुरका या परदा में कैद हैं और उन्हें अब भी अखाड़े में उतरने की आजादी उसी तरह नहीं है जैसे कि पहले ही दिन अखाड़े में साक्षी के उतरने के खिलाफ समाज का फतवा जारी हो गया था।
वीरेंद्र सहबाग ने भी हरियाणा में भ्रूण हत्या बंद करने की अपील की है साक्षी की इस जीत के बाद।
तो जाहिर है कि गांववालों के विरोध की वजह से लंबे अरसे तक गुपचुप रात के जिस अंधेरे में अखाड़े में उतरती रही है साक्षी, वह अभी जस का तस है।
साक्षी के कोच ईश्वर सिंह दहिया को तेरह साल पहले का वह दिन याद है, जब साक्षी को पहली बार अखाड़े में उतारने के खिलाफ सारे लड़के अखाड़ा छोड़कर जाने लगे।
तब दहिया ने कहा था कि सारे लोग जायें तो जायें, यह लड़की अखाड़े में इकलौती रहेगी।
अब वे लड़के कहां हैं, हम नहीं जानते लेकिन पूरी दुनिया को मालूम हो चुका है कि साक्षी कहां है।
बालीवुड गुलाम भारत में भी औरत की आजादी की आवाज बुलंद करता रहा है और हाल में सुपरहिट फिल्म सुल्तान, कुश्ती पर बनी है जिसकी नायिका आरिफा को मर्द सुलतान की खातिर कुश्ती छोड़नी पड़ती है।
उन्हीं सुल्तान सलमान खान से मुलाकात होने पर जबाव तलब कर दिया साक्षी ने कि उसके खातिर आरिफा को कुश्ती क्यों छोड़नी पड़ी।
यह सवाल साक्षी और इस देश की तमाम बेटियों का सवाल है।
इस सवाल के जबाव में सलमान ने साक्षी से वादा किया था कि वह ओलंपिक पदक जीत लेगी तो उस पर वे फिल्म बनायेंगे। उस फिल्म का इंतजार रहेगा।
सिंधु, साक्षी की जीत, दीपा, साइना, सानिया, दीपिका और बोम्मेला देवी, विनेश और बबीता, महिला हाकी टीम की लड़ाई उनक हार से खत्म हुई नहीं है।
इन सबकी लड़ाई अब भी जारी है। अखाड़े में और अखाड़े से बाहर क्योंकि भारत की संसद में भी एक अखाड़ा है, जहां स्त्री अस्मिता निषिद्ध है।


