अब भाजपा का भी मुकद्दर बन गयी है व्यक्ति पूजा
यह देश की बदकिस्मती है कि दोनों ही प्रत्याशी कॉरपोरेट-परस्त आर्थिक नीतियों के अलम्बरदार हैं। इन नीतियों ने देश को दरिद्र बना दिया है। दोनों के हित इस बात में हैं कि नीतियों पर नहीं बल्कि व्यक्तियों पर चर्चा हो। ये पहली बार नहीं हो रहा है। पुराने शिकारी पुराना जाल लाये हैं। पर ये तो जनता ही तय करेगी कि यह पैंतरा चलेगा क्या ? हिन्दी दैनिक राष्ट्रीय सहारा के परिशिष्ट “हस्तक्षेप” ने आज वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक शम्सुल इस्लाम का विचारोत्तेजक आलेख प्रकाशित किया है, उसे हम शम्सुल इस्लाम साहब के जरिये अपने पाठकों भी उपलब्ध करा रहे हैं-
शम्सुल इस्लाम
एक ऐसा देश जिसकी 120 करोड़ से ज्यादा की आबादी हो और जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता हो, यह उसकी बदकिस्मती नहीं तो और क्या है कि यहाँ 2014 के आम चुनाव के बाद प्रधानमंत्री के पद पर विराजमान होने की काबिलियत रखने वालों का टोटा लग रहा है। कम से कम देश के दो सबसे बड़े राजनीतिक दलों के आचरण और आकलन से तो ऐसा ही लगता है। देश में सत्तासीन काँग्रेस ने हालाँकि अभी तक अपने उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है लेकिन सभी जानते हैं कि ऊँट किस करवट बैठेगा। इसके एक ही उम्मीदवार हैं और वे हैं राहुल गाँधी। मौजूदा विद्वान प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह, जो जीवन की 81 बहारें देखने के बाद ‘संन्यास आश्रम’ के काल में हैं; उन तक ने यह घोषणा कर दी है कि वे अगले चुनाव के बाद युवा प्रधानमंत्री राहुल गाँधी के नेतृत्त्व में सेवा (या कार सेवा?) की बाट जोह रहे हैं। इस दौड़ में काँग्रेस के अन्य चेले-चपाटे किस तरह नतमस्तक हैं; उसको देखते ही बनता है। भाजपा की स्थिति इससे तनिक भी भिन्न नहीं है। इस दल का और इस दल के चलाने वालों का दावा रहा है कि वहाँ सामूहिक नेतृत्व है, परिवारवाद नहीं है, सब फैसले मिल-जुल कर किये जाते हैं इत्यादि-इत्यादि। लेकिन जिस अंदाज में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आम चुनाव में एक साल से भी ज्यादा समय होने के बावजूद गुजरात के मुख्यमंत्री, नरेन्द्र दामोदर भाई मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कराया है, इससे इस पार्टी में ही जो भूचाल आया वह किसी से छुपा नहीं है। भाजपा में मोदी के तरफदार, लालकृष्ण आडवाणी की आज चाहे जो भी फजीहत कर रहे हों लेकिन यह ऐतिहासिक तथ्य है कि वे हिन्दुत्व ब्रांड की राजनीति के सबसे बड़े हस्ताक्षर थे। उन्हें जिस तरह जलील कर के दरकिनार किया गया उससे सिर्फ यही साबित होता है कि हिन्दुत्व राजनीति में भी व्यक्ति संगठन से बहुत बड़ा है। प्रसिद्ध राजनीतिक शास्त्री रजनी कोठारी के अनुसार यह विशिष्टता काँग्रेस की थी। व्यक्ति पूजा अब भाजपा का भी मुकद्दर बन गयी है। बिल्कुल काँग्रेस की तरह बुजुर्ग और वरिष्ठ नेता मोदी के पैर छूते सार्वजनिक तौर पर देखे जा सकते हैं।

बुरी व्यक्ति केन्द्रित राजनीति :

व्यक्तियों पर केन्द्रित राजनीति चाहे वह काँग्रेस की हो या भाजपा की, हमारे देश के प्रजातांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष ढाँचे के लिये बहुत बुरी खबर है। व्यक्ति केन्द्रित राजनीति की वजह से देश और देश की जनता के सामने मौजूद महँगाई, बेरोजगारी, महिलाओं और दलितों का उत्पीड़न, असुरक्षा, भ्रष्टाचार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव इत्यादि भयावह समस्याओं पर चर्चा न हो पायेगी। इसकी जगह क्या होगा उसे हम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर अच्छी तरह झेल रहे हैं। काँग्रेस और भाजपा के प्रत्याशियों पर जो चर्चायें हो रही हैं, उनके मुद्दे हैं- वे कब उठते हैं और सोते हैं, किस किस्म के कपड़े पहनते हैं, कब सैर के लिये जाते हैं और उनके बालों का अंदाज क्या है। ऐसा लगता है, प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशियों पर नहीं बल्कि मरदो की हुस्न प्रतियोगिता में भाग ले रहे प्रत्याशियों की चर्चा हो रही है। इस व्यक्तिवाद के चलते देश के सामने मौजूद निहायत नाजुक मसले अछूते ही रह जा रहे हैं। दोनों दलों के प्रत्याशी जो कुछ बोल रहे हैं, उस पर आलोचनात्मक चर्चायें नहीं हो पा रही है।

तिजोरी- झोली का रिश्ता :

राहुल गाँधी ने पिछले दिनों राजस्थान के कोटा में घोषणा की कि उनकी पार्टी चाहती है कि इस देश के गरीब बड़े सपने देखें। राहुल की पार्टी के पिछले नौ साल के राज में सिर्फ बहुबली अमीर और हैसियत वाले लोग ही लूट के अपने बड़े सपनों को साकार करके बड़े दानव बन गये हैं। चुनाव से कुछ पहले राहुल सिर्फ बड़े सपने देखने का अधिकार आम जनता को भी देना चाहते हैं। उनसे यह पूछना लाजमी है कि सपने तो इस इस देश के आम लोग हमेशा देखते रहे हैं, वे हमेशा आशावान रहे हैं लेकिन उनके साथ हमेशा धोखा हुआ है। रोटी- रोजी के सपने ये लोग देखते थे और तिजोरी भरने के सपने किसी और के साकार हो जाते थे। राहुल की पार्टी महात्मा गांधी ग्रामीण योजना और खाद्य सुरक्षा कानून को क्रांतिकारी कदम बता रही है। हो सकता है इनके लागू होने पर वोट मिलें। लेकिन क्या उनसे पूछा जा सकता है कि इस देश के मेहनतकश; चाहे वे किसान हों या मजदूर, इस देश को खुशहाल बनाने के लिये जाने जाते थे। किसानों को तो इस देश का अन्नदाता कहा जाता था। आज उनकी हैसियत भिखारियों की-सी हो गयी है। उनका जिन्दा रहना सरकारी दान पर टिका है। राहुल यह नहीं बताते कि ऐसा क्यों हो रहा है कि इस देश में खरबपतियों की तादाद विश्व में सबसे तेजी से बढ़ रही है और दूसरी ओर गरीबी की रेखा से नीचे लोगों की संख्या भी विश्व में सबसे तेजी से बढ़ रही है। ऐसा क्यों है कि काँग्रेसी नेतृत्त्व वाली पिछले नौ साल से सत्तासीन सरकार का भ्रष्टाचार से चोली-दामन का साथ रहा है। किसानों की आत्महत्याओं ने इतिहास के तमाम रिकार्ड तोड़ दिये हैं। महिलाओं और दलितों पर काँग्रेस शासित राज्यों और दिल्ली में अत्याचारों ने भी पिछली सीमायें तोड़ दी हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था को अमेरिकी पूँजीवादी व्यवस्था से पूर्ण रूप से जोड़ने का परिणाम यह हुआ है कि अगर अमेरिकी पूँजीवाद को खांसी आती है तो भारतीय अर्थव्यवस्था को निमोनिया हो जाता है।

एक ध्वज, एक नेता और एक विचार वाला तंत्र :

मोदी भारतीय प्रजातंत्र को बचाने के एक मसीहा के तौर पर सामने हैं। वे कुशासन और भ्रष्टाचार से दुखी हैं और काँग्रेस राज को उखाड़ फेंकना चाहते हैं। वे भीड़ भी जुटा पा रहे हैं। उम्मीदवार घोषित होने के बाद अपनी पहली सार्वजनिक सभा (रेवाड़ी, हरियाणा) में वे भ्रष्टाचार पर चर्चा करना भूल गये क्योंकि हरियाणा में भाजपा के सबसे पुराने और टिकाऊ हमजोली दल एनएलडी के दो सर्वश्रेष्ठ बाप-बेटे नेता भ्रष्टाचार के लिये दस साल की सजा भोग रहे हैं। मोदी ने सीमा पर तैनात भारतीय सेना के जवानों से जुड़ाव जाहिर करते हुये कई भावनात्मक बातें कहीं। लेकिन वह यह बताना भूल गये कि जब तालिबानी आतंकवादियों ने काठमांडो से एक

भारतीय नागरिक विमान को अपहृत किया था और उसे कंधार ले गये थे तो उस समय के भाजपा के विदेश मंत्री स्वयं कंधार पहुँचे थे। जाहिर है आतंकियों से वार्तालाप के लिये। एक जमाना था जब मोदी सभाओं में यह घोषणा करते थे कि अगर सभा में मियां हैं तो चले जायें। अब उनकी पार्टी पाँच-पाँच हजार बुर्के और टोपी खरीद कर मुसलमानों और गैर-मुसलमानों को उपलब्ध कराती है ताकि मोदी की सभा में मुसलमानों की हाजिरी दिखे और मोदी का मुसलमानों से प्यार झलके। लेकिन मोदी जिस विचारधारा के स्वयंसेवक हैं वह मुसलमानों से ही नहीं बल्कि इस देश के लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष ढाँचे से गहरी नफरत करती है।

स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर संघ के अंग्रेजी मुखपत्र ऑरगनाइजर में राष्ट्र की शान तिरंगे झण्डे की निन्दा करते हुये लिखा गया था, तिरंगे को हिन्दुओं द्वारा न कभी सम्मानित किया जा सकेगा, न अपनाया जा सकेगा। तीन का आँकड़ा अशुभ है और एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हो बेहद खराब असर डालेगा। लोकतंत्र के बारे में संघ के विचार जगजाहिर हैं। वह एक ध्वज, एक नेता, एक विचार वाला तंत्र चाहते हैं। सवाल है कि क्या मोदी संघ के स्वयंसेवक के तौर पर भारत को एक धार्मिक हिन्दू राष्ट्र बनाने के काम से चूकेंगे?

इस देश की बदकिस्मती है कि दोनों ही प्रत्याशी कॉरपोरेट-परस्त आर्थिक नीतियों के आलम्बरदार हैं। इन नीतियों ने देश को दरिद्र बना दिया है। दोनों के हित इस बात में हैं कि नीतियों पर नहीं बल्कि व्यक्तियों पर चर्चा हो। ये पहली बार नहीं हो रहा है। पुराने शिकारी पुराना जाल लाये हैं। पर ये तो जनता ही तय करेगी कि यह पैंतरा चलेगा क्या?