कैसे पहचानें शासक वर्ग की भूमिका को?

केन्द्रीयकरण क्यों चाहता है शासक वर्ग?

समाज में जो कुछ भी घटित होता है उसमें शासनतंत्र की अहम भूमिका होती है। शासनतंत्र में बागडोर शासक वर्ग के पास होती है, जो राजनैतिक व्यवस्था का इस्तेमाल करके समाज में नीतियों, नियमों, परम्पराओं, प्रथाओं आदि की स्थापना करता है। हालांकि शासन तंत्र की कार्यप्रणाली (system of governance) समाज में प्रत्यक्ष रूप से नजर नहीं आती है परन्तु समाज अथवा व्यवस्था को चलाने में इसी की मुख्य भूमिका रहती है।

आम तौर पर शासक वर्ग की यह कोशिश रहती है कि समाज में यथास्थिति कायम रखी जाए तथा समाज में शक्तियों का अधिक ध्रुवीकरण (Multi-Polarization) न होकर केन्द्रीयकरण (Centralization) हो। परन्तु दुनिया का इतिहास हमें बताता है कि जब भी समाज में बदलाव आया है, शक्तियों का ध्रुवीकरण शासक वर्ग के हाथ से निकल कर आम जनता के पक्ष में होता है।

हम देखते हैं कि नब्बे के दशक में शुरू की गई उदारीकरण की नीतियों के दुष्प्रभाव तथा 21वीं सदी के शुरूआती दौर से ही तथाकथित विकसित अथवा साम्राज्यवादी देशों पर मंदी की स्थिति मंडराने से बहुध्रुवीय (Multi-Polar) दुनिया की ओर रूख हुआ है। परिणामस्वरूप, लैटिन अमेरिका तथा यूरोप के विभिन्न देशों में सरकार विरोधी स्वरों ने संघर्षों को जन्म दिया तथा मौजूदा जन विरोधी सरकारों का तख्ता पलट भी हुआ।

इस पूरी प्रक्रिया में जहां जनवादी संगठनों की अहम भूमिका रही, वहीं पर नागरिक समाज का भी योगदान दर्ज किया गया।

यहां पर उल्लेखनीय है कि कभी-कभी शासक वर्ग भी इस प्रकार की परिस्थिति पैदा करता है, जिससे आम जनता का आक्रोश व गुस्सा बाहर भी निकले, परन्तु शक्तियों का संतुलन भी इसी शासक वर्ग के पास रहे। जैसा कि प्रैशर कुकर में सेफ्टी वॉल्ब के जरिये भाप निकलता है।

सन 2004 के बाद जब ‘विश्व सामाजिक मंच’ (World Social Forum) का स्वरूप हमारे समक्ष आया तो हमने पाया कि जहां जनता के संघर्ष ज्यादा असरदार साबित हुए, वहां ब्राजील की तरह शासक वर्ग को उखाड़ने में कामयाबी मिली, लेकिन अधिकतर देशों में मजबूत आन्दोलन विकसित न कर पाने से इस तरह के प्रयासों को ‘प्रेशर कुकर के सेफ्टी वॉल्ब’ की संज्ञा ही मिली। अर्थात् जनता के आक्रोश को बाहर निकालने का अवसर देकर शासक वर्ग शक्तियों का ध्रुवीकरण अपने पक्ष में ही रखने में कामयाब रहा।

हालांकि हाल ही में भारत के संदर्भ में दिल्ली में आम आदमी पार्टी द्वारा पैदा की गई परिस्थिति के ठोस अवलोकन के लिए इसके स्वरूप बनने तथा वैकल्पिक पक्ष उभरने तक इंतजार करना ही बेहतर रहेगा।

निःसन्देह जनता के व्यापक आक्रोश को समेटने तथा उनके दैनिक जीवन को प्रभावित करने वाली समस्याओं के समाधान के लिए पहल से सीखने की जरूरत है।

वास्तव में वामपंथी विचारधारा की तर्ज पर आम आदमी पार्टी द्वारा किये जा रहे हस्तक्षेपों को जिस प्रकार से मीडिया तथा मध्यम वर्ग इसे अलग तरह से प्रचारित करने में जुटा है, यहां पर पुनः ‘शासक वर्ग की भूमिका और प्रेशर कुकर के सेफ्टी वॉल्ब’ का सवाल उठना स्वाभाविक सा लगता है। लेकिन इस पूरे प्रकरण से आम जन मानस के बीच एक आशावाद की किरण अवश्य जगी है जिसे और अधिक मजबूत करने की आवश्यकता है।

सत्यवान पुण्डीर (Satyawan Pundir),

लेखक शिमला स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

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