15 अगस्त के दिन जब हम सब आजादी की 69 वी वर्षगांठ के जश्न व जयकारों में मशगूल थे, उस वक्त देश के दो अहम हिस्सों में दो घटनाएं (एक ही बिरादरी के नागरिकों द्वारा) अंगड़ाई ले रही थीं, जो हो सकता है आजादी के जश्न में आपकी नजर से छुपी रह गई हों या जयकारों के बीच उनकी गूंज दब गई हों। उस पर मैं प्रकाश डालने के प्रयास में हूं।
एक तरफ तो दिल्ली में आन्दोलनों के लिए जमीन मुहैया कराने वाले जन्तर-मन्तर पर देश के लिए अपना जीवन खपा चुके पूर्व सैन्य अधिकारी व कर्मचारी 3 भूतपूर्व अधिकारियों के नेतृत्व में वन रैंक वन पेंशन के लिए धरना प्रदर्शन कर रहे थे, तो दूसरी तरफ देश के लिए जान न्यौछावर करने की कसम खाने वाले सैनिक रण क्षेत्र में पाकिस्तान के युद्ध विराम के उल्लंघन में की गई भारी गोलाबारी का साहस के साथ मुकाबला कर रहे थे।
इन दोनों घटनाओं के तुलनात्मक अध्ययन में ना तो मेरी कोई रूचि है और ना ही करूंगा, लेकिन दोनों घटनाओं के केंद्र में एक तरफ हमारी सेना का साहस व भरोसा है और दूसरी तरफ हमारी राजनीति की खोखली प्रतिबद्धता, जो जीतने के बाद वायदों को जुमला बता देने का भी साहस रखती है। सीमा पर सेना के साहस की तुलना वन रैंक वन पेंशन से करने का मतलब सीधा सीधा देश की सुरक्षा का आधार उनको मिलने वाली सुविधाओं से करना होगा, जो मूर्खतापूर्ण है, लेकिन इसमें सेना के साहस का प्रसंग लाना चुनावों में सेना के राजनीतिकरण करने वालों के लिए जरूरी हो जाता है।
"वन रैंक वन पेंशन (OROP) " 2014 लोकसभा चुनावों में वायदों की झड़ी में शामिल एक महत्वपूर्ण सैन्य राजनीतिक मुद्दा था, जिसको मोदी से लेकर सोनिया, राहुल तक ने अपनी सरकार बनते ही पूरा करने का वादा किया था, जो अभी तक जुमला तो नहीं बना, लेकिन OROP की पेचीदगियों व भारी वित्तीय बोझ वाले बयानों व भ्रमित करने वाले आश्वासनों ने सरकार का रूख स्पष्ट किया है। सरकार 15 महीने बाद भी इसकी बारीकियां व पेचीदगियां समझ रही हैं, जो उसने भाषण देते वक्त नहीं समझा होगा शायद।
क्या इस प्रकार के राजनीतिक फैसला सेना के मनोबल व स्वाभिमान पर असर नहीं डालते होंगे, लेकिन राजनीति ये सब क्यों सोचे, कुर्सी मिल गई तो भी नहीं और ना मिली तो भी नहीं लेकिन ये ना वाले इस तरह के आन्दोलन को समर्थन देकर अगली बार के लिए अपनी कुर्सी के लिए कशमकश करेंगे।
वन रैंक वन पेंशन की पृष्ठभूमि में जाएं तो मालूम पडेगा कि 1973 तक यह सशस्त्र सेनाओं में लागू था, जो 1973 में तीसरे वेतन आयोग के बाद इन्दिरा गांधी सरकार न खत्म कर दिया। तब से सैनिकों में OROP को लेकर काफी तिलमिलाहट है और इसकी मांग समय-समय पर सेना के पूर्व कर्मचारी संगठनों द्वारा उठायी जाती रही है, लेकिन कोई विशिष्ट नेतृत्व नहीं होने से इसका व्यापक स्तर पर कोई आन्दोलन नहीं हुआ। 2008 में 6ठे वेतन आयोग में संप्रग- 1 द्वारा OROP पर मुकरने पर अस्पष्ट रूख के बाद पूर्व सैन्य संगठनों के विरोध के स्वर गूंजे और वे अपने युद्ध मैडल सरकार को लौटाने लग गए और धरने, हड़तालों की तरफ अग्रसर हुए। फिर संप्रग- 2 के कार्यकाल में चुनावों को मध्य नजर रखते हुए 27 फरवरी 2014 को तत्कालीन रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ने 01 अप्रैल 2014 तक OROP लागू करने का वादा किया, जो कब लागू होगा अभी कोई अल्टीमेटम नहीं है।
रेवाड़ी में अपनी चुनावी रैली में 10 हजार पूर्व सैनिकों की उपस्थिति में सत्ता में आने पर OROP का वादा किया, और उस पर अभी भी कायम होने की खबरें तो है। 10 सदस्यीय संसदीय पैनल वाली कोश्यारी कमेटी भी OROP को जल्द से जल्द लागू करने का कह चुकी हैं।
इस मामले को अगर पूर्ण रूप से देखा जाए तो अब तक इस पर सिर्फ राजनीतिक फायदे की कोशिश के साथ साथ पूर्व रक्षा कर्मचरियों को धैर्य रखने जैसे बयानों के साथ बहकाने की कोशिश हुई है लेकिन अब जन्तर मन्तर पर 3 भूतपूर्व सैन्य अधिकारियों के भूख हड़ताल पर बैठने के बाद शायद सरकार कुछ हरकत में आए, ये तो समय बताएगा। फिर भी इस आंदोलन को अब जाकर भूतपूर्व सेनाध्यक्षों के समर्थन के साथ कोई नेतृत्व भी मिले जो इसे व्यापक स्तर पर ले जाएं। सरकार को भी इस मुद्दे पर सैन्य राजनीतिकरण को छोड़कर सैनिकों की बुनियादी समस्याओं पर विचार करने की भी जरूरत है, क्योंकि सेना के 90 फीसदी जवान 35 वर्ष की उम्र तक सेवानिवृत हो जाते हैं, तो उनको अपना बचा हुआ जीवन उसी पेंशन से गुजारना पड़ता है। पर सरकार इस मामले पर इन समस्याओं पर सोचने के बजाय OROP को लेकर असमंझस की स्थिति पैदा कर रही है और घोषणा पत्र के OROP में कुछ फेरबदल कर सकती है जो सैन्य संगठनों को मंजूर नहीं होगा।
असमंजस की स्थिति पैदा करने के बाद भी सरकार इन भूतपूर्व सैन्य संगठनों को अपने भरोसे में रखने की पूरी कोशिश कर रही है ताकि जन्तर मन्तर पर 3 सैन्य अधिकारियों के आमरण अनशन को लेकर अन्य पार्टियां जो अपने कार्यकाल में OROP नहीं लागू करवा पाई, राजनीति की बलि चढ़ा कर इसका हश्र भी जनलोकपाल वाला ना कर दें।
फिर भी उम्मीद की जा सकती है कि सरकार सैन्य संगठनों के साथ वार्ता करके कोई रास्ता निकालने की स्थिति में आएँ, जिससे सेना के मनोबल, स्वाभिमान व आत्म सम्मान पर भी असर ना पड़े।
रवि शर्मा
रवि शर्मा, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।