डाक्टर आशीष वशिष्ट

आखिरकर वही हुआ जिसकी आशंका पहले ही दिन से जताई जा रही थी। लोकपाल विधेयक का आम सहमति वाला साझा मसौदा तैयार करने की सरकार ओर सिविल सोसायटी की कोशिशे अन्ततः विफल साबित हुई। 21 जून को संयुक्त मसौदा समिति की अंतिम अंतिम बैठक के बाद प्रसिद्व गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे ने एलान किया कि वह सरकार को सबक सिखाने के लिए एक बार फिर अनशन का एलान कर दिया। दो महीने में मसौदा समिति की नौ बैठकें होने के बाद भी दोनों पक्षों के मध्य मूल मुद्दों पर सहमति नहीं बन पाई। सरकार और सिविल सोसायटी के अपने-अपने पक्ष है, लेकिन प्रथम दृष्टया सरकार ही दोषी नजर आती है। सिविल सोसायटी ने सरकार के रूख पर गहरी निराशा जाहिर की और अगर अन्ना और सिविल सोसायटी की पक्ष सुने तो उसके पास एक बार फिर जनता के बीच जाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प या मार्ग शेष नहीं है। संयुक्त मसौदा समिति की बैठकों में ऐसा कुछ नहीं हो पाया जिससे बिल के निर्माण में सहायता मिल पाती। अन्ना के अनशन और भारी जनसमर्थन के कारण सरकार ने मसौदा समिति में अनमने ही सिविल सोसायटी के नुमांइदों को शामिल तो कर लिया था लेकिन अगर देखा जाए तो पहली बैठक के बाद से दोनों पक्षों में शीत युद्व और बयानबाजी जारी थी। भारी जन समर्थन के चलते सरकार ने बैकफुट पर थी लेकिन सरकार के वरिष्ठ मंत्री और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह गाहे-बगाहे उलटी-सीधी बयानबाजी से करने से बाज नहीं आए। संयुक्त मसौदा समिति की प्रथम बैठक से लेकर अंतिम बैठक तक दोनों पक्षों में तनातनी का वातवरण बना रहा पहली बैठक के बाद से ही आम जनता को ये लगने लगा था नतीजा ढाक के दो पात ही होगा। संयुक्त मसौदा समिति की अंतिम बैठक की नाकामी के बाद सिविल सोसायटी और सरकारी नुमांइदों ने मीडिया और पत्रकारों के सामने जमकर अपने मन की भड़ास निकाली, अन्ना ने 16 अगस्त से दुबारा जंतर-मंतर पर अनशन का ऐलान किया है तो वहीं कांग्रेस के बड़बोले महासचिव दिग्विजय सिंह ने बयान देकर खलबली मचा दी है कि अगर हजारे 16 अगस्त से अनशन करते हैं तो उनका हश्र बाबा रामदेव जैसा होगा। उन्होंने कहा कि इस देश में संवैधानिक व्यवस्था सर्वोपरि है और वह इस देश के लोगों के लिए जिम्मेदार है।

असल में सरकार ने प्रस्तावित बिल का जो ड्राफ्ट तैयार किया है उसके अनुसार प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा गया है। इसके अलावा लोकपाल की चयन समिति में पांच सत्ताधारी पक्ष के होंगे और सात राजनीतिक नुमाइंदे होंगे। लोकपाल को हटाने का भी अधिकार सरकार के पास रहेगा। जबकि सीबीआई सरकार के नियंत्रण में रहेगी। प्रधानमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों की जांच सीबीआई के पास रहेगी। सांसद भी लोकपाल के दायरे से बाहर रहेंगे। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जज लोकपाल के दायरे से बाहर रहेंगे। निचली अदालत भी लोकपाल के दायरे से बाहर रहेगी। सिविल सोसाइटी की तरफ से पेश जन लोकपाल विधेयक के मसौदे में फोन टेप, रोगेटरी लेटर जारी करने और भ्रष्टाचार की गुंजाइश कम करने के लिए कामकाज के तौर तरीकों में बदलाव को लेकर सिफारिशें की गई हैं। लेकिन सरकार की तरफ से पेश लोकपाल बिल के मसौदे में इन मुद्दों का जिक्र तक नहीं है। हजारे की टीम की तरफ से पेश मसौदे में सभी सांसदों द्वारा घोषित संपत्ति के ब्योरे की जांच करने के लिए प्रस्तावित लोकपाल को आधुनिक साज-ओ-सामान उपलब्ध कराने की पेशकश की गई है। जन लोकपाल बिल में इस बात का भी जिक्र है कि लोकपाल की एक बेंच भारतीय टेलीग्राफ एक्ट के सेक्शन पांच के तहत एक मान्यता प्राप्त संस्था होगी जिसे टेलीफोन और इंटरनेट जैसे माध्यमों के जरिए भेजे जा रहे संदेशों और डेटा की निगरानी करने और उसे इंटरसेप्ट करने का अधिकार हासिल होगा। प्रस्तावित लोकपाल और उसके अफसरों की शक्तियों और उसके कामकाज को लेकर सिविल सोसाइटी के ड्राफ्ट में कहा गया है कि जिन मामलों में जांच रुकी हुई है, उनमें लोकपाल किसी बेंच को रोगेटरी लेटर जारी करने के लिए अधिकृत कर सकता है। गौरतलब है कि लेटर रोगेटरी भारतीय अदालत द्वारा किसी विदेशी अदालत को लिखी जाने वाली चिट्ठी है, जिसमें न्यायिक सहायता मांगी जाती है। कुल मिलाकर छह महत्वपूर्ण बिंदुओं जिनमें लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री, सीबीआई, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जज, निचली न्यायपालिका को लाए जाने को लेकर तीखे मतभेद सिविल सोसायटी और सरकार के बीच गहरे मतभेद हैं सरकार का पक्ष है कि वो ऐसा नहीं चाहती है कि संविधान की मूल भावना को ठेस पहुंचे । सिविल सोसायटी पर गंभीर आरोप लगाते हुए सरकार ने कहा कि वह ऐसी किसी समानांतर सरकार बनने नहीं दे सकती जो किसी के प्रति भी जवाबदेह नहीं हो।

केन्द्र सरकार और उसके नुमाइंदों ने सिविल सोसायटी के नुमांइदों को बडे़ भारी मन से मसौदा समिति में शामिल किया था, स्वयं प्रधानमंत्री, यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी और मसौदा समिति के सदस्यों ने जहां पर्दे के पीछे से सिविल सोसायटी के विरूद्व खुला मोर्चो खोल रखा था, वहीं मंच पर अहम् भूमिका कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने संभाल रखा था। दिग्वििजय सिंह का ताजातरीन बयान भी सरकार की मंशा को जाहिर करता है। स्थिति बिगड़ते देख कांग्रेस पार्टी दिग्वििजय सिंह के बयानों को व्यक्तिगत राय कहकर पिंड छुड़ाने की कवायद तो करती है, लेकिन देश की जनता इतनी अन्जान नहीं है कि एक राष्ट्रीय दल जिसकी केन्द्र में सरकार हो और वो पार्टी की मंशा , राय और मूड जाने बिना अनाप-शनाप बयान देता फिर रहा है। देश की जनता कांग्रेस और उसके राजनीतिक खेलों और कलाकारियों से बखूबी वाकिफ है। लोकपाल बिल को लेकर सरकार कितनी गंभीर है इसको बताने की कोई जरूरत नहीं है। सरकार एक ऐसा लूला-लंगड़ा और अपाहिज कानून बनाना चाहती है जिसको चलने के लिए कदम-कदम पर सरकार रूपी बैसाखी की जरूरत हो। सरकार ये नहीं चाहती है कि देश में कोई ऐसा सख्त कानून बन जाए जिसकी जद में प्रधानमंत्री, नेता और मंत्री आते हो। उन्हें देश की जनता को लूले लंगड़े कानून का झुनझुना थमाना है। सूचना के अधिकार कानून का जो हश्र देश में हो रहा है वो किसी से छिपा नहीं है। सूचना का अधिकार में सरकार ने देश की जनता को अधिकार तो दिया है लेकिन सूचना नदारद है।

कालेधन के विरूद्व रामदेव के अनशन को छीछालेदार करने के बाद सरकार खुद को फ्रंट फुट पर मान रही है। लेकिन रामलीला मैदान पर अहिंसक प्रदर्षनकारियों पर डंडे चलवाकर कांग्रेस ने जो गुनाह किया है वो आजाद भारत में किसी और सरकार ने नहीं किया। कहते है इतिहास खुद को दोहराता है जिस कांग्रेस ने 25 जून 1975 को देश में इमरजेंसी लगवाई थी उसके वंशज और चम्मचे वही तो करेंगे जो उन्हें संस्कारों में मिला और जैसी उनको घुट्टी पिलाई गई थी। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह का बयान की रामलीला मैदान में चार जून की रात बाबा रामदेव और उनके समर्थकों पर हुए लाठीचार्ज की तरफ इशारा करते हुए मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा, ‘अन्ना साहब कहते हैं कि वह फिर अनशन करेंगे। अगर वह ऐसा करते हैं तो उन्हें भी वही झेलना पड़ेगा जो हाल ही में किसी अन्य ने झेला था।’ मतलब साफ है कि कांग्रेस आलाकमान अपनी सरकार को भ्रष्टाचार, कालेधन, अरबों रूप्यों के घोटालों और घपलों में गिरता देख अपना मानसिक संतुलन खो चुका है तभी तो दिग्विजय सिंह पगलाए हुए संविधान, कानून और लोकतंत्र विरोधी बयानबाजी खुले घूम-घूम कर रहे हैं। अगर ऐसी बयानबाजी करने की हिमाकत या हिम्मत किसी पत्रकार, राजनेता या आम आदमी ने की होती तो अब तक उस पर देशद्रोह या फिर किसी अन्य संगीन मामले में लाकअप में डालदिया गया होता लेकिन जिसके सिर के ऊपर सोनिया मैडम और राहुल भैया का हाथ हो वो शख्स देश में किसी की भी इज्जत उतारने से लेकर अपशब्द बोलने के आजाद है, जब सैयां भए कोतवाल तो डर काहे का। अगर दिग्विजय सिंह अन्ना को धमकाते हैं तो इशारा साफ है कि सरकार भी यही चाहती है जिस सख्त अंदाज में सोनिया ने अन्ना की चिट्ठी का जवाब दिया था उसी दिन ये साफ हो गया था कि सरकार की नीति और नीयत क्या है।

हम और आप लोकतांत्रिक देश के नागरिक होने पर गर्व महसूस करते हैं लेकिन अगर असल में देखा जाए तो हमारी हालत गुलामों से अधिक नहीं है। जिस लोकतंत्र में लोक की कीमत केवल वोट बची हो उस देश का भविष्य क्या होगा ये बताने की आवष्यकता नहीं है। जिस तरह से देश के कोने-कोने से भ्रष्टचार और कालेधन के खिलाफ आवाज उठ रही है, ऐसे में जन भावनाओं की कद्र करते हुए सरकार को स्वयं ही आगे बढ़कर निष्पक्ष तरीके से लोकपाल बिल की ड्राफ्टिंग कमेटी में सिविल सोसायटी के सदस्यों को आमत्रिंत करना चाहिए था लेकिन एक सरल प्रक्रिया के लिए भी अन्ना को देश भर से समर्थन जुटाना पड़ा और भारी जन दबाव के चलते सरकार को सिविल सोसायटी के समक्ष नतमस्तक होना पड़ा। आखिरकर सरकार की नीयत अगर पाक-साफ है तो वो सख्त कानून से डर क्यों रही है? क्यों सरकार प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने पर अड़ी हुई है? अगर सरकार की नीयत साफ है तो उसे संजीदगी से देश और देश की जनता से जुड़े इस गंभीर मसले पर तत्परता और गंभीरता दिखानी चाहिए न कि घटिया, ओछी, सड़कछाप और सस्ती लोकप्रियता बटोरने वाली बयानबाजी और कार्यवाही से परहेज करना चाहिए।

असल बात एक केवल एक सख्त कानून बनाने की नहीं है असल मुद्दा है व्यवस्था को स्वच्छ, पारदर्षी और निष्पक्ष बनाना। लेकिन तथाकथित भ्रष्ट, बईमान, चोर, लम्पट और झूठे नेता और नौकरशाह ये कभी नहीं चाहते कि देश में एक ऐसी फूलप्रूफ व्यवस्था बने जिसमें छेद करने की कोई गुंजाइश न हो। सरकार ये जरूर चाहती है कि लोकपाल बिल कानून का रूप ले लेकिन उस बिल के स्वरूप, रंग-रूप, आकार-प्रकार, नैन-नक्ष और कद-काठी वो अपने हिसाब से हांकना चाहती है क्योंकि स्वयं को संविधान का रक्षक, सेवक और लोकतंत्र का हितैषी बताने वाली कंेद्र सरकार असल में कानून की कितनी इज्जत करती है और उसका लोकतंत्र की मूलभावना में कितना विष्वास है वो तो 4-5 जून की रात को रामलीला मैदान में ही स्पष्ट हो गया था। बात-बात पर आरएसएस का हाथ बताने वाली कांग्रेस कल अन्ना और उनके सर्मथकों को भी आरएसएस से जोड़ देगी क्योंकि इस मुद्दे पर राजनीति भी शुरू हो चुकी है, केन्द्र में सरकार की सहायक डीएमके ने अन्ना के समर्थन की घोषणा की है तो वहीं शिव सेना ने रामदेव और अन्ना के आय स्त्रोतों की जानकारी मांगी है। अंत चाहे जैसा भी हो लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि लोकपाल बिल को लेकर चल रही उठापटक और राजनीति अभी थमने का नाम नहीं लेगी और सरकार की हर संभव कोशिश यही रहेगी कि वो मनमाने तरीके से अपनी जरूरत और हिसाब के अनुसार लोकपाल कानून का निर्माण करेगी क्योंकि कांग्रेस ही वो पार्टी ने जिसने सन् 1975 में इमरजेंसी लगाकर लोकतंत्र को शर्मसार किया था ऐसे में पार्टी अपने बुर्जुगों के पद चिन्हों पर ही चल रही है देश को इससे अधिक उम्मीद कांग्रेस से नहीं करनी चाहिए कि वो देश और जनहित के लिए कोई पारदर्षी काम करेगी।