प्रकृति भी राष्ट्रद्रोही है और उसका सैन्य दमन सलवा जुड़ुम अनिवार्य है।

मृत्यु उपत्यका मेरे देश में सारे नगर, उपनगर और महानगर अब गैस चैंबर

सबिता बिश्वास

इस मृत्यु उपत्यका में मनुष्यता और सभ्यता का अवसान बेहद तेजी से हो रहा है और जैविकी मनुष्य जो लाखों साल की विकास यात्रा के मार्फत समाजिक बना, वह अब विशुद्ध राजनीतिक उपभोक्ता है और उसमें प्राण के लक्षण कितने बाकी हैं, उसकी कोई मेडिकल जांच असंभव है।

कौन से अंग प्रत्यंग असली या नकली है, यह जांच से साबित नहीं की जा सकती।

कौन विकलांग है, कौन दिव्यांग है या कौन मशीन है या कौन रोबोट है या नहीं, कहना भी बेहद मुश्किल है।

विकास के नाम अंधाधुंध शहरीकरण और गांवों के विध्वंस पर महानगरों के दसों दिशाओं में सुरसामुखी होते जाने का यह अंजाम है।

बहरहाल मनुष्यता का अनिवार्य लक्षण अब उसकी खंडित अस्मिता है और जिसका चरित्र विशुध राजनीतिक है।

राजनीति से मतलब सत्ता के अंधियारे का अबाध उपभोक्ता कारोबार मुक्तबाजार है जो एकमुश्त मनुष्यता और सभ्यता के विरुद्ध है।

कवि नवारुण भट्टाचार्य ने सत्तर के दशक में कभी एक चीख दर्ज की थी कविता में कि यह मृत्यु उपत्यका मेरा देश नहीं है।

देश अभी है लेकिन नवारुण भट्टाचार्य दिवंगत है और उनके प्रतिरोध का भी अवसान हो गया है।

अब कहना ही होगा कि मेरा देश अब सचमुच मृत्यु उपत्यका है और इस मृत्यु उपत्यका के हर नगर, उपनगर और महानगर गैस चैंबर हैं, जहां हरियाली की मातृभूमि देहात और जनपदों से जड़ों से उखाड़कर विस्थापितों को सीमेंट के जंगल में कैद करके बहुमंजिली गैस चैंबर में मार देना राष्ट्र का राजकाज है। प्रकृति भी राष्ट्रद्रोही है और उसका सैन्य दमन सलवा जुड़ुम अनिवार्य है।

दिलवालों की दिल्ली में हवाओं के जहरीले पर्यावरण का हवाला देते हुए विशुध आयुर्वेदिक हवा के कारोबार के बारे में हमने पहले ही लिख दिया है। दिल्ली दिल वालों की है, दावा यही है। कितना दिल बचा हो दिल्ली वालों का, गहराती धुंध में बता पाना मुश्किल है और उस दिल में रक्त प्रवाह कितना विशुद्ध है, कितना गंगाजल जैसा बाधित है, यह बता पाना भी बहुत मुश्किल है।

हिंदी के युवा कवि पंकज चतुर्वेदी ने अपने स्तंभ में लिखा है कि बहुत दिनों से दिल्ली में बारिश नहीं हुई है और अबकी दफा बारिश हुई तो तेजाबी बारिश होगी।

तेजाबी बारिश भी जाहिर है कि अजूबा नहीं है। जादुगोड़ा के यूरेनियम खान इलाके में पानी रेडियोएक्टिव है और देश के कोने-कोने में परमाणु संयंत्रों के बिछाये जाते जाल से सीआईए और मोसाद की देख-रेख में बहुत जल्द यह मदारियों और संपेरों का विश्वविख्यात आध्यात्मिक देश जादूगोड़ा यूरेनियम खदान में तब्दील होने वाला है और नगरों, उपनगरों और महानगरों में मशरूम की तरह पनपते महकते बहुमंजिली गैस चैंबर इसी के संकेत है।

हम कतरे के ये लाल निशान देखकर भी देख नही रहे हैं।

खबरों के मुताबिक इस मृत्यु उपत्यका की राजधानी नई दिल्ली अब विशुद्ध गैस चैंबर में तब्दील है। राष्ट्रीय राजधानी में कई जगहों पर प्रदूषण का स्तर सुरक्षित सीमा से 17 गुना अधिक होने से शहर पर धुंध की एक काली चादर छा गई है।

खास बात तो यह है कि राजधानी क्षेत्र के रामराज्य की लीलाभूमि पर प्रदूषण का स्तर दिवाली के बाद के स्तरों को भी लांघ गया, जबकि दृश्यता का स्तर पूरे शहर में घटकर करीब 200 मीटर रह गया। निगरानी एजेंसियों ने ‘गंभीर’ गुणवत्ता की वायु दर्ज की और लोगों को बाहर जाने से परहेज करने की सलाह दी। जहां श्वसन प्रदूषण पीएम 2.5 और पीएम 10 का चौबीस घंटे का औसत क्रमश: 355 और 482 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर रहा, मौके पर लिए गए आंकड़े भयावह रहे।

रायसीना हिल्ज की लुटियंस लुटेरों की राजधानी को न अरावली की परवाह है, न नीलगिरी या विंध्य और न पश्चिम घाट या हिमालय की।

रायसीना हिल्ज को सिर्फ बहुमत की परवाह है जो अपने बेशकीमती वोटों से सत्ता की जमींदारी बहाल रख सकें।

जाहिर है कि जंगलों के वोट नहीं होते, नदियों और समुंदरों के वोट नहीं होते। हिमालय और तमाम पहाड़ों के वोट नहीं होते। ग्लेशियरों के वोट नहीं होते। कल कारखानों, उत्पादन इकाइयों और सराकरी उपक्रमों और खुदरा बाजार के वोट भी बहुमत बनाते नहीं है।
बहुमत अज्ञानता का अंध राष्ट्रवाद का है।
यह अंध राष्ट्रवाद जिस मिथ्या धर्म कर्म का है, वहां प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों का कोई मोल नहीं है और न प्रकृति से जुड़ी मनुष्यता और सभ्यता की कोई राजनीति या अर्थव्यवस्था है।

लोक और संस्कृति के विरुद्ध जो मजहबी सियासत है, वह विकास के नाम, शहरीकरण और औद्योगीकरण, स्मार्ट सिटी के नाम आम नागरिकों की जड़ें खत्म करकर उन्हें सीमेंट के जंगल में कैद करके महानगरीय गैस चैंबर में कत्ल कर देने पर आमादा है। जो बचा खुचा देहात है या बचा खुचा जनपद है, बचा खुचा समुंदर, जंगल और पहाड़ है, उन्हें भी माहनगर के गैस चैंबरों में तब्दील करने के लिए हर चंद कोशिशें जारी है।
राजनीति इसी का नाम है।
नई दिल्ली में तेजाबी वर्षा जब होगी तब होगी। अभी कल रणजी ट्राफी के दो दो मैच रद्द कर दिये गये क्योंकि हवाओं में जहर इतना ज्यादा है कि खिलाड़ी खेलेंगे तो बाद में, मैदान में खड़े होकर सांस भी नहीं ले सकते।

संसद भवन और राष्ट्रपति भवन में हवा पानी या मौसम जलवायु को कोई असर होता भी है या नहीं, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्रियों और सांसदों की बेफिक्र तबीयत से कुछ पता नहीं चल सकता।

बहरहाल दिल्ली का मुख्यमंत्री कोई आम आदमी बेवजह परेशान बताया जा रहा है, जिन्होंने इस प्रावरण संकट को आपातकाल मानकर कैबिनेट की आपातकालीन बैठक बुलायी है।

दिल्ली के सारे स्कूल बंद हैं। बाकी देश में भी पर्यावरण करा हाल यही रहा तो स्कूल देर सवेर बंद हो जायेंगे। वह दिन बी बहुत दूर नहीं है।
दिल्ली में सुबह टहलने पर पाबंदी डाक्टरों ने लगा दी है। तो दिन में भी रास्ते पर चलने के लिए रोशनी की दरकार है।
जहां-तहां लोग राह चलते अस्वस्थ हैं। जहां-तहां दृश्यता के अभाव में सड़क दुर्घटनाएं आम हैं।

हालात कोलकाता, चेन्नई, बंगलूर, अमदाबाद, हैदराबाद चेन्नई कानपुर चंडीगढ़ लखनऊ मुंबई या किसी जिला शहर में दिल्ली से बेहतर है, ऐसा भी नहीं है। दिवाली के पटाखे छोड़ने में पीछे कोई रहा नहीं है तो नदिया कहीं रसायन से मुक्त नहीं है। नदिया सिर्फ बंधी नहीं हैं, नदिया बिकी भी बहुत हैं, जिन पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का शिकंजा उसी तरह है जैसे इस देश के प्राकृतिक संसाधनों की अकूत संपदा पर वे काबिज हैं।

दिल्ली से घनी आबादी कोलकाता, चेन्नई, कानपुर, नागपुर, हैदराबाद कोलकाता से लेकर झुमका गिराने वाले बरेली के बाजारों में भी है। वहां किसी को सांस की तकलीफ नहीं है, यह कहना मुश्किल है। जबकि कोलकाता और आसपास पेयजल में आर्सेनिक है तो गंगाजल तेजाबी है।
शब्द दूषण में कोलकाता का गोलपार्क देश भर में अव्वल नंबर पर है जबकि शब्ददैत्य पर अंकुश का दावा है।
दिल्ली की हवा पानी मौसम फिरभी राजधानी होने के विशेषाधिकार की वजह से सुर्खियों में हैं लेकिन बाकी देश का क्या। अब तो जनपदों में भी लोग मास्क पहनकर खुशफहमी में है कि इस रासायनिक पर्यावरण और तेजाबी बरसात की कयामती फिंजा में वे सही सलामत है।

हाथों में फोरजी मोबाइल है और दो पहिया वाहनों के लिहाज से हैलमेट भी दुर्घटनाओं से बचने के जुगाड़ में हैं। मिनरल वाटर का बोतल चौबीसों घंटे साथ में है। मिनरल बोतल से ऊब जायें तो कोक है, कोला है और भी पेय बहुत है क्योंकि देहात में भी शापिंग माल हो या न हो बार रेस्त्रां तमाम हैं।

मोबाइल, लैपटाप, डेबिट-क्रेडिट कार्ड से लैस मनुष्य इन दिनों फिर भी विशुद्ध बजरंगी है और मिथक ही उनका सच है और पर्यावरण की चिंता से बेहद आसान हैं तमाम तरह के रंगबिरंगे तंत्र मंत्र यंत्र। चेहरे पर फेसियल है। वजूद सुगंधित है। पोशाक ब्रांडेड हैं। खान पान जीवन ब्रांडेड है। बाल रंगीन हैं। पूरा शरीर यांत्रिक है।

यंत्र के लिए न पर्यावरण चाहिए और न इस पृथ्वी की कोई जरुरत है। यह पृथ्वी नई पीढ़ी के लिए मारक वीडियो गेम है और युद्धोन्माद में सरोबार ऐसी जनता के लिए गैस चैंबर का यह माहौल आउटडोर शूटिंग का लोकेशन है।
यह देश अब डिजिटल है।
गांव देहात के आम आदमी की सूरत अब विलुप्त प्राय प्रजाति है।

अत्याधुनिक मनुष्य का कोई चेहरा इस मुक्तबाजार कार्निवाल में नहीं है। सत्ता समीकरण और क्रयशक्ति के अलावा किसी को किसी भी समलस्या से लेना देना नहीं है तो अखाबारी सुर्खियों की सनसनी में आमाजेन, स्नैप डील या फ्लिपकर्ट से बचाव के उपकरण खरीदने के अनंत अवसर हैं।

खबरों में जो ब्यौरे निकल रहे हैं, वे चेतावनी शब्द दर शब्द है। मसलन अरसा बीत चुका है कि जहरीले स्मॉग ने पूरी दिल्ली और आसपास के इलाके को अपनी चपेट में ले रखा है। इस स्मॉग से बच्चे-बूढे सब बेहाल हैं।