उन्नाव (उ०प्र०) के ऊँचगाँव सानी में अक्टूबर 1912 में जन्मे जाने-माने आलोचक-विचारक डॉ० रामविलास शर्मा का ‘जन्म शताब्दी सम्पूर्ति समारोह’ उनके अपने ज़िले के मुख्यालय उन्नाव में 20 अक्टूबर 2013, इतवार को आयोजित किया गया। शताब्दी समारोह आयोजन समिति और विश्वम्भर दयालु त्रिपाठी राजकीय ज़िला पुस्तकालय, उन्नाव द्वारा संयुक्त रूप से पुस्तकालय सभागार में आयोजित यह समारोह अतिथि वक्ताओं के विद्वत्तापूर्ण व्याख्यानों और रामविलास जी के जीवन और लेखन से जुड़े आत्मीय संस्मरणों के जीवन्त उल्लेखों के साथ यादगार आयोजन के रूप में सोत्साह सम्पन्न हुआ। इस शताब्दी सम्पूर्ति समारोह को अतिथि वक्ताओं के रूप में डॉ० विमल < लेखक-आलोचक; पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष – वर्धमान विश्वविद्यालय, प० बंगाल >; डॉ० विजय मोहन शर्मा < साहित्यकार-लेखक-सम्पादक (रामविलास जी के पुत्र) >; डॉ० दया दीक्षित < समीक्षक-प्राध्यापक, छत्रपति शाहू जी महाराज कानपुर विश्वविद्यालय >; तथा डॉ० चन्द्रेश्वर < आलोचक-प्राध्यापक, बलरामपुर डिग्री कॉलेज, डॉ० राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, फ़ैज़ाबाद > ने सम्बोधित किया।

कार्यक्रम का संचालन करते हुये कुमार दिनेश प्रियमन ने अतिथि वक्ताओं का परिचय रखा। उन्होंने देश भर में आयोजित हुये डॉ० रामविलास शर्मा के जन्म शताब्दी समारोहों के क्रम में उनके गृह जनपद उन्नाव में गत वर्ष आयोजित ‘उद्घाटक कार्यक्रम’ व ‘साहित्य लोक यात्रा’ की जानकारी दी। आयोजन समिति के अश्विनी शर्मा द्वारा उक्त ‘साहित्य लोक यात्रा’ के यात्रा वृत्तान्त – ‘अविस्मरणीय साहित्य लोक यात्रा’ का पुस्तक लोकार्पण अतिथि वक्ताओं द्वारा किया गया।

डॉ० चन्द्रेश्वर ने अपने व्याख्यान की शुरुआत उन्नाव की साहित्यिक रचनाधर्मिता की विरासत को याद करते हुये इन शब्दों में की कि 20वीं सदी का हिन्दी साहित्य < किसी भी विधा का > उन्नाव के बिना आधा-अधूरा है। उन्होंने कहा कि डॉ० रामविलास ऐसे अनूठे आलोचक, भाषाविद, विचारवेत्ता और संस्कृतिकर्मी थे, जिनकी बराबरी करने वाला कोई नहीं। डॉ० शर्मा के रचनाकर्म के मूल में प्रतिरोध की चेतना बेहद जीवन्त है – साम्राज्यवाद, पूँजीवाद और सावन्तवाद के विरोध में वह बहुत मुखर हैं। उन्होंने आचार्य रामचन्द्र शुक्लोत्तर काल के तीन अन्य प्रमुख आलोचकों – नन्ददुलारे बाजपेई, हज़ारीप्रसाद द्विवेदी और नागेन्द्र का उल्लेख करते हुये उनकी सीमाओं की और संकेत किया – वे हिन्दी आलोचना को उतना विस्तार नहीं दे सके, जो रामविलास जी ने दिया। आलोचना में वह केवल साहित्य तक सीमित नहीं रहते, बल्कि इतिहास और परम्परा को लेकर चिन्तन करते हैं। उन्होंने अपनी परम्परा की खोज करने और उसमें मौजूद सार्थक तत्वों को ग्रहण करने की दिशा दिखायी।

डॉ० दया दीक्षित ने रामविलास जी के विपुल लेखन में ‘भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश’ के महत्व को चिन्हित करते हुये कहा कि वह देश के सांस्कृतिक इतिहास का प्रामाणिक दस्तावेज़ है। उन्होंने साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के साथ इतिहास को देखने की साम्राज्यवादी दृष्टि की आलोचना की और चेताया। रामविलास जी लोकसंस्कृति के अनिवार्य अंग के रूप में उसे श्रम की संस्कृति से जोड़ते हैं। डॉ० दया ने रामविलास जी के अभिन्न मित्र प्रख्यात साहित्यकार अमृतलाल नागर के संस्मरणों के ज़रिये कई हृदयस्पर्शी प्रसंगों का उल्लेख किया।

रामविलास जी के पुत्र डॉ० विजय मोहन शर्मा ने रामविलास जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के कई अनूठे, आत्मीय और प्रेरक प्रसंगों का मर्मस्पर्शी ज़िक्र किया। उन्होंने बताया कि रामविलास जी ने कई हस्तलिखित पत्रिकाएँ भी निकालीं। उनकी चिन्ता और चिन्तन में परिवार से लेकर देश और विश्व तक शामिल था। उन्होंने परिवारों में स्त्रियों की आज़ादी पर भी न केवल सोचा-विचारा, वरन खुद अपने परिवार में उसे बरतने के ठोस प्रस्ताव भी रखे, मसलन उनका नियमित पढ़ना, घूमना, परिवार के सभी सदस्यों की साप्ताहिक बैठक, सवाल-जवाब के लिये बोर्ड, घर का स्टडी-सर्कल आदि। उनके अनुसार रामविलास जी के इस सोच कि लोग ईमानदार रहें और उनके बीच सम्वाद कायम रहे – इससे परिवार, देश और समाज की तमाम समस्याओं का समाधान सम्भव है।

डॉ० विमल ने अपने समापन वक्तव्य में डॉ० रामविलास शर्मा को आलोचना की दूसरी परम्परा के प्रथम व अन्तिम पुरुष के रूप में चिन्हित करते हुये कहा कि उन्होंने आलोचना को अनुसन्धान की परम्परा से जोड़ने का काम किया। उन्होंने हिन्दी को समझने की एक अनूठी दृष्टि दी। उन्होंने कर्म और संघर्ष की परम्परा को स्थापित किया, जिसे अपनाने की ज़रुरत है। हिन्दी को जाति की अवधारणा में स्थापित करने, उसे विरासत से जोड़ने, और समकालीनता के द्वार खोलने वाले आलोचक-विचारक हैं डॉ० रामविलास शर्मा ! भारत की आज़ादी के बाद सत्ता ने जनता की जिस प्रतिरोधक शक्ति को लगातार कुण्ठित करने और नष्ट करने का काम किया है, उन्होंने उसी प्रतिरोधक शक्ति को सँजोने और सहेजने का काम किया, प्रेरणा दी। उनकी शताब्दी सम्पूर्ति के अवसर पर उसी प्रतिरोधक शक्ति को जगाने-बढ़ाने का संकल्प लेने की ज़रूरत है !

कार्यक्रम के अन्त में कौशल किशोर <लखनऊ> द्वारा रखे गये तीन प्रस्तावों को पारित किया गया – (1) डॉ० रामविलास जी का ऊँचगाँव सानी स्थित पैतृक आवास राष्ट्रीय स्मारक घोषित हो; (2) उनपर डाक टिकट निकले; (3) उन्नाव और लखनऊ में उनकी स्मृति में सांस्कृतिक आलोचना केन्द्रों की स्थापना हो। अन्त में आयोजन समिति की ओर से आलोक द्वारा आभार व कृतज्ञता ज्ञापन किया गया। इस आयोजन में उन्नाव के अलावा पड़ोसी ज़िलों कानपुर, लखनऊ, सीतापुर, रायबरेली, फ़ैज़ाबाद आदि से भी साहित्यकर्मी, संस्कृतिकर्मी भी शामिल हुये।