बड़ी समस्‍या है। प्रधानजी रोज़ नई बंडी और डिज़ाइनर कुर्ते पहनें तो ठीक। अडानी के खटोले से चलें तो ठीक। छह महीने में तीन महीने विदेश घूमें तो ठीक। हज़ारों करोड़ डॉलर अपने मित्र अडानी की अंटी में डाल दें तो मस्‍त। इधर नेताजी बग्‍धी में टहल लिए तो बेमतलब का हल्‍ला।
देखिए, जब आप व्‍यवस्‍था में विकास का पैमाना स्‍मार्ट सिटी, जीडीपी, एफडीआइ को बनाएंगे, लोगों की रईसी को उनके बचाए धन से नहीं बल्कि उनकी क्रय शक्ति से मापेंगे, तो नेता ने कोई टेंडर नहीं भरा है गांधीवाद का, कि बकरी का दूध पीता रहे। उसे भी मिल्‍कमेड पीने का अधिकार है। और वैसे भी, नेहरूजी खानदानी थे तो कपड़ा इंगलैंड से धुलवा लेते थे। जो खानदानी नहीं हैं वो जब पैसा आएगा तब फूंकेंगे। इसीलिए आज़म खान ने चिढ़कर ठीक ही जवाब दिया कि बग्‍धी में पैसा तालिबान-दाउद ने लगाया है। ये जो सवाल पूछने वाले रिपोर्टर हैं, उनसे पूछ कर देखिए कि तीस-चालीस हज़ार की तनख्‍वाह में तुम एलेन सॉली की साढ़े तीन हज़ार की शर्ट क्‍यों पहनते हो, तो अपने मामले में उनका पैमाना बदल जाएगा। आजकल तो बेरोजगार समाजवादी और वामपंथी भी तीन-चार हज़ार का जूता पहनते हैं, क्‍या करेंगे।
प्रधानजी आजकल रेडियो पर विज्ञापन कर रहे हैं कि अगर भारतवासी कम से कम पैसे में मंगल तक पहुँच सकते हैं तो सफाई क्‍यों नहीं कर सकते। दोगलापन देखिए, कि जहाँ पैसा लगाना है वहाँ कमखर्ची का पाठ पढ़ाया जा रहा है। ऐसा नहीं हो सकता कि देश के विकास का पैमाना अलग हो और व्‍यक्ति के विकास का पैमाना कुछ और।
छोड़ दीजिए लोहियावाद को, वह अपनी उम्र जी चुका। काटने दीजिए इन्‍हें हज़ार फुट का केक, घूमने दीजिए विक्‍टोरियन बग्‍धा और अडानी के प्‍लेन में। बस इंतज़ार करिए उस दिन का जब यह धन-ऐश्‍वर्य लोगों की आंखों में निर्णायक रूप से गड़ने लगे। फिर न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। क्‍या नेता और क्‍या प्रधान, सब सर्वत्र और समान रूप से पेलाएं।
करोड़ों लोगों ने 5 साल तक अपने बैठने के लिए खूँटा चुन लिया, तो ज़ाहिर है नेता अपने लिए बग्‍घी ही चुनेगा। लोगों को अपना खूँटा नहीं गड़ रहा, अपने प्रतिनिधि की बग्‍घी गड़ रही है। क्‍या मज़ाक है?

लोकतंत्र का सूरज पश्चिम में नहीं तो और कहाँ डूबेगा?
O- अभिषेक श्रीवास्तव
अभिषेक श्रीवास्तव, जनसरोकार से वास्ता रखने वाले खाँटी पत्रकार हैं। हस्तक्षेप के सहयोगी हैं।