प्रश्न अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता का
प्रश्न अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता का
स्याह दौर में कागज कारे-4
सुभाष गाताडे
अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता के बारे में हम क्या सोचते हैं ?
हम जानते हैं कि जब मुसलमानों का प्रश्न उपस्थित होता है – जो हमारे यहां के धार्मिक अल्पसंख्यकों में संख्या के हिसाब से सर्वाधिक हैं – हम अपने आप को दुविधा में पाते हैं। हम जानते हैं कि इस समुदाय का विशाल हिस्सा अभाव, वंचना और दरिद्रीकरण का शिकार है, जो सामाजिक आर्थिक विकास के मॉडल का नतीजा है, मगर राज्य की संस्थाओं तथा ‘नागरिक समाज’ के अन्दर उनके खिलाफ पहले से व्याप्त जबरदस्त पूर्वाग्रहों के चलते मामला अधिक गंभीर हो जाता है। सच्चर कमीशन की रिपोर्ट के बाद पहली बार उनको लेकर चले आ रहे कई मिथक ध्वस्त हुए। उदाहरण के तौर पर बहुसंख्यकवादी ताकतों ने यही प्रचार कर रखा है कि किस तरह पार्टियां ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ का सहारा लेती है या किस तरह मुसलमान विद्यार्थियों का बड़ा हिस्सा मदरसों में तालीम हासिल करने जाता है। मगर सच्चर आयोग ने अपने विस्तृत अध्ययन में यह साबित कर दिया कि वह सब दरअसल गल्प से अधिक कुछ नहीं है।
आज़ादी के बाद के इस साठ साल से बड़े कालखण्ड में हजारों दंगें हुए हैं, जहां आम तौर पर अल्पसंख्यक समुदाय प्रशासकीय उपेक्षा और बहुसंख्यकवादी ताकतों के अपवित्र गठजोड़ का शिकार होता रहा है। यह भी देखने में आया है कि दंगों की जांच के लिए बने आयोगों की रिपोर्टों में स्पष्ट उल्लेखों के बावजूद न ही दंगाई जमातों या उनके सरगनाओं को कभी पकड़ा जा सका है और न ही दोषी पुलिस अधिकारियों को कभी सज़ा मिली है। और जैसा कि राजनीति विज्ञानी पाल आर ब्रास बताते हैं कि आज़ाद भारत में ‘संस्थागत दंगा प्रणालियां’ विकसित हुई हैं, जिनके चलते ‘हम’ और ‘वे’ की राजनीति करनेवाले कहीं भी और कभीभी दंगा भड़का सकते हैं। 2002 के गुजरात दंगों के बाद ही हम इस बात से अधिक सचेत हो चले हैं कि किस तरह अब राज्य ने दंगापीड़ितों को सहायता एवं पुनर्वास के काम से अपना हाथ खींच लिया है और समुदायों के संगठन इस मामले में पहल ले रहे हैं। ओर यह बात महज गुजरात को लेकर सही नहीं है, विगत तीन बार से असम में राज्य कर रही गोगोई सरकार के अन्तर्गत हम इसी नज़ारे से रूबरू थे। स्पष्ट है कि जब समुदाय के संगठन ऐसे राहत एवं पुनर्वास शिविरों का संचालन करेंगे तो पीड़ितों को अपनी विशिष्ट राजनीति से भी प्रभावित करेंगे।
वैसे समुदाय विशेष पर निशाने पर रखने के मामले में बाहर आवाज़ बुलन्द करने के अलावा समुदाय का नेतृत्व और अधिक कुछ करता नहीं दिखता, ताकि अशिक्षा, अंधश्रद्धा में डूबी विशाल आबादी आज़ाद भारत में एक नयी इबारत लिख सके।
दरअसल उनकी राजनीति की सीमाएं स्पष्ट हैं। वहां वर्चस्वशाली राजनीति बुनियादी तौर पर गैरजनतांत्रिक है। दरअसल कई उदाहरणों को पेश किया जा सकता है जिसमें हम पाते हैं कि जहां समुदाय के हितों के नाम पर वह हमेशा तत्पर दिखते हैं, वहीं आन्तरिक दरारों के सवालों को उठाने को वह बिल्कुल तैयार नहीं दिखते, न उसे मुस्लिम महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति की चिन्ता है, न ही वह समुदाय के अन्दर जाति के आधार पर बने विभाजनों – जिसने वहां पसमान्दा मुसलमानों के आन्दोलन को भी जन्म दिया है – के बारे में ठोस पोजिशन लेने के लिए तैयार है। उल्टे हम उसे कई समस्याग्रस्त मसलों की खुल्लमखुल्ला हिमायत करते दिखते हैं या उस पर मौन बरतते देखते हैं। उदाहरण के लिए, अहमदिया समुदाय को लें, जिसे पाकिस्तानी हुकूमत ने कट्टरपंथी तत्वों के दबाव में गैरइस्लामिक घोषित कर दिया है, ऐसा करनेवाला वह दुनिया का एकमात्र मुल्क है। हम यहां पर देखते हैं कि यहां पर भी मुस्लिम समुदाय के अन्दर ऐसी आवाज लगातार मुखर हो रही है कि उन्हें ‘गैरइस्लामिक’ घोषित कर दिया जाए।
इस्लामिक समूहों/संगठनों द्वारा देश के बाहर लिए जाने वाले मानवद्रोही रूख को लेकर भी वह अक्सर चुप ही रहता है। चाहे बोको हराम का मसला लें या पड़ोसी मुल्क बांगलादेश के स्वाधीनता संग्राम में जमाते इस्लामी द्वारा पाकिस्तानी सरकार के साथ मिल कर किए गए युद्ध अपराधों का मसला लें, यहां का मुस्लिम नेतृत्व या तो खामोश रहा है या उसने ऐसे कदमों का समर्थन किया है। पिछले साल जब बांगलादेश में युद्ध अपराधियों को दंडित करने की मांग को लेकर शाहबाग आन्दोलन खड़ा हुआ तब यहां के तमाम संगठनों ने जमाते इस्लामी की ही हिमायत की। कुछ दिन पहले लखनउ के एक सुन्नी विद्वान – जो नदवा के अलीमियां के पोते हैं – उन्होंने देश के सुन्नियों से अपील की कि वह इराक एवं सीरिया में इस्लामिक स्टेट बनाने को लेकर चल रहे जिहाद की हिमायत में यहां से सुन्नी मुजाहिदों की फौज खड़ी करके भेज दे। ऐसे विवादास्पद वक्तव्य के बावजूद किसी ने उनकी भर्त्सना नहीं की।
अब दरअसल वक्त़ आ गया है कि हम ‘संवेदनशील’ कहलाने वाले मसलों को लेकर अपनी दुविधा दूर करें। मुस्लिम अवाम की वंचना के खिलाफ निस्सन्देह हमें अपनी आवाज़ बुलन्द करनी चाहिए मगर हमें उसके नेतृत्व की मनमानी की, गैरजनतांत्रिक रवैये की मुखालिफत करनी चाहिए। मुसलमानों को खासकर मुस्लिम युवाओं को निशाना बनाने की बहुसंख्यकवादी ताकतों की कारगुजारियों के खिलाफ हमारे संघर्ष का मतलब यह नहीं कि हम उस वक्त भी मौन रहे जब किसी इस्लामिस्ट फ्रंट के कार्यकर्ता मुस्लिम महिलाओं के लिए दिशा निर्देश देने लगें कि उन्हें कैसे रहना चाहिए या किसी प्रोफेसर पर वह जानलेवा हमला इस बात के लिए करें कि उनके वक्तव्य ने उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हुई ।
साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष में सेक्युलर हस्तक्षेप को लेकर हमारी समझदारी क्या है ?
आज जब हम सिंहावलोकन करते हैं तो एक बात स्पष्ट होती है कि यहां धर्मनिरपेक्षता का सामाजिक आधार बेहद कमजोर साबित हुआ है। प्रश्न उठता है कि साठ साल से अधिक वक्त़ पहले जब हमने धर्मनिरपेक्षता के रास्ते का स्वीकार किया था, इसके बावजूद यह इतना कमजोर क्यों रहा ?
एक बात जो समझ में आती है कि चाहे आमूलचूल बदलाव में यकीन रखनेवाली ताकतें हो या अन्य सेक्युलर पार्टियां हो, उनके एजेण्डा पर राज्य की धर्मनिरपेक्षता बनाए रखने का सवाल तो अहम था, मगर समाज के धर्मनिरपेक्षताकरण का महत्वपूर्ण पहलू उनके एजेण्डा में या तो विस्मृत होता दिखा या उसकी उन्होंने उपेक्षा की। शायद इसका सम्बन्ध इस समझदारी से भी था कि भारत जैसे पिछड़े समाज में राजनीतिक-आर्थिक मोर्चों पर बदलाव सामाजिक-सांस्कृतिक दायरे को भी अपने हिसाब से बदल देगा।
इसके बरअक्स हम यह पाते हैं कि यथास्थितिवादी या प्रतिक्रियावादी शक्तियां – चाहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या जमाते इस्लामी हों या अन्य धर्म/परम्परा आधारित संगठन हों, वह ‘धर्मनिरपेक्षता की मुखालिफत के अपने एजेण्डे को लेकर पूरी तरह सचेत थी और उन्होंने संस्कृति के दायरे में रणनीतिक हस्तक्षेप के जरिए इस काम को आगे बढ़ाया। अपने ‘धार्मिक दृष्टिकोण’ को मजबूत बनाने के काम को अंजाम देने के लिए उन्होंने तमाम आनुषंगिक संगठनों का सहारा लेकर उसे संस्थाबद्ध करने की कोशिश की। फिर चाहे स्कूलों, अस्पतालों की स्थापना हो या बाल मानस को प्रभावित करने के लिए हमखयाल लोगों के माध्यम से ‘अमर चित्र कथा’ जैसे कॉमिक्स का प्रकाशन हो या समाज के विभिन्न तबकों को बांधे रखने के लिए अलग अलग किस्म के समूहों/संगठनों का निर्माण हो, समाज को उन्होंने अपने रंग में ढालने की कोशिश निरन्तर जारी रखी। यह अकारण नहीं कि संघ अपने आप को ‘समाज में संगठन’ नहीं बल्कि ‘समाज का संगठन’ कहता है। संघ की इस कार्यप्रणाली में शिक्षा संस्थानों के योगदान की चर्चा करते हुए प्रोफेसर के एन पणिक्कर लिखते हैं कि संघ का शिक्षा सम्बन्धी काम 40 के दशक में ही शुरू हुआ और आज वह सत्तर हजार से अधिक स्कूलों का – एकल विद्यालयों से लेकर सरस्वती शिशु मंदिरों तक – जो देश के तमाम भागों में पसरे हैं, का संचालन करता है। इन गतिविधियों के जरिए वह ‘जनता की सांस्कृतिक चेतना को सेक्युलर से धार्मिक बनाने में’ सफल हुए हैं (‘हिस्टरी एज ए साइट आफ स्ट्रगल, थ्री एस्सेज कलेक्टिव, पेज 169) उनके मुताबिक
यह धर्मनिरपेक्ष ताकतों के प्रयासों से गुणात्मक तौर पर भिन्न हैं जो मुख्यतः सांस्कृतिक हस्तक्षेप पर जोर देते हैं, जिसका प्रभाव सीमित एवं संक्रमणशील रहता है। सांस्कृतिक हस्तक्षेप और संस्कृति में हस्तक्षेप का फरक सेक्युलर और साम्प्रदायिक ताकतों के सांस्कृतिक अन्तर्क्रिया को भिन्न बनाता है और उनकी सापेक्ष सफलता को प्रतिबिम्बित करता है। (वही)
दूसरे, धर्मनिरपेक्ष आन्दोलन ने, हमेशा ही भारत की एक ऐसी छवि प्रक्षेपित की है (जिसकी चर्चा हर्ष मन्देर अपने एक हालिया आलेख में करते हैं (Learning from Ambedkar, http://kafila.org/2014/08/23/learning-from-babasaheb-harsh-mander/#more-23461 ) जो उसके ‘विविधतापूर्ण, बहुलतावादी और सहिष्णु सभ्यता के लम्बे इतिहास’ की है जो ‘बुद्ध, कबीर, नानक, अशोक, अकबर, गांधी’ की कर्मभूमि के रूप में सामने आयी है। भारत की यह प्रक्षेपित छवि दरअसल हिन्दुत्व दक्षिणपंथ द्वारा भारतीय इतिहास के बेहद संकीर्ण, असहिष्णु, असमावेशी और एकाश्म अर्थापन (monolithic interpretation) के बरअक्स सामने लायी गयी है, जिस प्रक्रिया को प्रोफेसर रोमिल्ला थापर ‘हिन्दु धर्म का दक्षिणपंथी सामीकरण’ (Semitisation of Hinduism) कहती हैं। उसके अन्तर्गत उसने भारत की वर्तमान संस्कृति को महिमामण्डित किया है जिसने हर आस्था को यहां फलने फूलने की इजाजत दी, जहां ‘उत्पीड़ित आस्थाओं को सहारा मिल सका’ और जहां ‘आध्यात्मिक एवं रहस्यवादी परम्पराओं के साथ विविधतापूर्ण और सन्देहमूलक परम्पराएं भी फली फूली।’
इसी समझदारी को आधार बना कर उसने हिन्दुत्व वर्चस्ववादी ताकतों पर प्रश्न उठाने की, उन्हें चुनौती देने की कोशिश की है। मगर यह समझदारी दरअसल हमारे समाज का आंशिक वर्णन ही पेश करती है और जाति की कड़वी सच्चाई को अदृश्य कर देती है। इसमें कोई दोराय नहीं कि जाति जैसी हक़ीकत को लेकर नज़र आयी समाजशास्त्रीय दृष्टिहीनता ने धर्मनिरपेक्षताकरण के काम को बुरी तरह प्रभावित किया है।
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ऐसे कई प्रश्न हो सकते हैं जिनके जवाब मिलने अभी बाकी हैं। मिसाल के तौर पर, आज तक इस परिघटना पर ध्यान नहीं दिया गया कि किस तरह दक्षिण एशिया के इस हिस्से में राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता का विचार समानान्तर ढंग से विकसित हुआ है। हमें उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की तरफ भी आलोचनात्मक ढंग से देखने की आवश्यकता है क्योंकि हम पाते हैं कि राष्ट्रवाद के नाम पर लड़े गए इस संघर्ष में हमेशा उत्पीड़ित तबके की आवाज़ों को मौन किया जाता रहा है।
एक संस्कृत सुभाषित है: ‘वादे वादे जायते तत्वबोधः। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रस्तुत सम्मेलन के बाद हम नयी स्पष्टता, नए संकल्प और नए उत्साह से बाहर निकलेंगे ताकि जनद्रोही ताकतों के इस बढ़ते वर्चस्व खिलाफ आवाज़ बुलन्द की जा सके। जैसा कि हम उल्लेख कर चुके हैं कि यह वाकई स्याह दौर है। हमें यह बात भी नहीं भूलनी चाहिए मानवता ने इससे भी अधिक स्याह दौर देखें हैं और उससे आगे निकली है।
सभी यहभी जानते हैं कि जिन लोगों के हाथों में इन दिनों सत्ता की बागडोर है, उन्हें हिटलर का महिमामण्डन करने में, उसकी कहानियों को पाठयपुस्तकों में शामिल करने में संकोच नहीं होता। उनके वैचारिक गुरूओं ने तो हिटलर-मुसोलिनी के ‘नस्लीय शुद्धिकरण’ की मुहिम के नाम पर कसीदे पढ़े हैं। शायद उन्हें यह भी याद दिलाने की जरूरत है कि ऐसे तमाम प्रयोगों का अन्त किस तरह हुआ और किस तरह अजेय दिखनेवाले ऐसे तमाम बड़े बड़े लीडर इतिहास के कूडेदान में पहुंच गए।
हमारा भविष्य इस बात निर्भर है कि हम किस तरह भविष्य की रणनीति बनाते हैं ताकि उसी किस्म के मुक्तिकामी दौर का यहां पर भी आगाज़ हो।
समाप्त
पेड़ खामोश होना चाहते हैं मगर हवाएं हैं कि रूकती नहीं हैं......
नवउदारवाद और साम्प्रदायिकता के सहजीवी रिश्ते (symbiotic relationship)
हिन्दुत्व माने ब्राह्मणवादी परियोजना का विस्तार
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