Hastakshep.com-Opinion-Premchand news in Hindi-premchand-news-in-hindi-Premchand-premchand-उपन्यास सम्राट प्रेमचंद-upnyaas-smraatt-premcnd-प्रेमचंद जयंती-premcnd-jyntii-प्रेमचंद-premcnd-हिंदी नवजागरण-hindii-nvjaagrnn

एक है मीडिया की भाषा और दूसरी जनता की भाषा, मीडिया की भाषा और जनता की भाषा के संप्रेषण को एकमेक करने से बचना चाहिए।

प्रेमचंद ने भाषा के प्रसंग में एक बहुत ही रोचक उपमा देकर भाषा को समझाने की कोशिश की है। उन्होंने लिखा है

´यदि कोई बंगाली तोता पालता है तो उसकी राष्ट्रभाषा बँगला होती है। उसी तोते की सन्तान किसी हिन्दी बोलने वाले के यहाँ पलकर हिन्दी को ही अपनी मादरी-जबान बना लेता है। बाज़ तोते तो अपनी असली भाषा यहाँ तक भूल जाते हैं कि ´´ टें-टें´´ भी कभी नहीं कहते। ठीक इसी प्रकार कुछ नये रंग के भारतीय हिन्दी इतनी भूल जाते हैं कि अपने माँ-बाप को भी वे अँग्रेजी में खत लिखा करते हैं। विलायत से लौटकर ´´तुम´´को ´´टुम´´कहना मामूली बात है। हम भारतीय भाषा के विचार में भी अंग्रेजों के इतने दास हो गए हैं कि अन्य अति धनी तथा सुन्दर भाषाओं का भी हमें कभी ध्यान नहीं आता।´

प्रेमचन्द ने ´´शान्ति तथा व्यवस्था´´की भाषा के प्रसंग में अंग्रेजी मीडिया के अखबारों पर जो बात कही है वह आज के बहुत सारे अंग्रेजी मीडिया पर शत-प्रतिशत लागू होती है।

प्रेमचंद ने लिखा है

´विलायती समाचार-पत्र डेली टेलीग्राफ या डेली मिरर या डेली न्यूज (तीनों ही लन्दन के हैं तथा अनुदापदल के प्रमुखपत्र हैं) जो अंग्रेजी में ही छपते हैं, पर इंग्लैंड की राजनीति के अधिकांश सूत्र प्रायः इन्हीं के हाथ में हैं और इनकी भाषा प्रायः सबसे अधिक कटु, दुष्ट,जहरीली और निंद्य होती है।

अंग्रेजी मीडिया की भाषा को जिस रूप में यहां विश्लेषित किया गया है वह बात आज भी अनेक मीडिया के संदर्भ में अक्षरशः सच है। भारत में टाइम्स नाउ टीवी चैनल इसका आदर्श नमूना है।

उत्तर-आधुनिक विमर्श की शुरूआत संस्कृति के क्षेत्र से हुई। यही वजह है इसकी शैतानियों का जन्म भी यहीं हुआ। आज भी विवाद का क्षेत्र यही

है।

प्रश्न उठता है संस्कृति के क्षेत्र में ही यह उत्पात शुरू क्यों हुआ?असल में संस्कृति का क्षेत्र आम जीवन की हलचलों का क्षेत्र है और साम्राज्यवादी विस्तार की अनन्त संभावनाओं से भरा है। पूंजी,मुनाफा, और प्रभुत्व के विस्तार की लड़ाईयां इसी क्षेत्र में लड़ी जा रही हैं।

भाषा व्यक्तिगत तथा ऐतिहासिक स्मरण की वस्तु है। यह न केवल वर्षों के स्थायी आत्म-अनुभव को संजोने में सक्षम बनाती है बल्कि भविष्य में अपने आपको अवस्थित करने में, ऐतिहासिक स्मरण का उपयोग करने में सहायता करती है।

भाषा हमें भविष्य की ओर उन्मुख रहते हुए अतीत में जाने में सक्षम बनाती है। अतीत के अनुभव लाभ-हानि, जय-पराजय, खुशी-गम, वर्तमान की परिस्थिति के बारे में कुछ कह सकते हैं; वे प्रेरणा, सबक तथा वर्तमान के लिए उम्मीद की किरण दे सकते हैं। भविष्य में पहुंचने के क्रम में हम अतीत में वापस आ सकते हैं, और ऐसा करने में भाषा हमारी मदद करती है।

भाषा हमें उन अर्थों के निर्माण के लिए संसाधन प्रदान करती है जो भविष्य की ओर अग्रसर होते हैं।

ये उन संभावनाओं की ओर इशारा करते हैं जो वर्तमान में हमारे अनुभव से परे होती है और कई संसाधन जो भाषा हमें उपलब्ध कराती है, अतीत के उन अर्थों से व्युत्पन्न होते हैं जो हमारे लिए समाप्त हुए नहीं रहते, बल्कि वे हमारी भाषा में, हमारी संस्कृति में, हमारे अनुभव में जीवित रहते हैं।

भारत में अधिकांश प्रतिष्ठित समाजविज्ञानी बुद्धिजीवी अपनी भाषा में नहीं लिखते,यह किस बात का सबूत है ?

एक जमाने में मध्यवर्ग बंगाली मातृभाषा में बोलना-लिखना गौरव की बात समझता था,महान वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु और सत्येन्द्र बसु जैसे लोग बंगला में विज्ञान की नई खोजों पर लिखते थे,  लेकिन इन दिनों अनेक बड़े बंगाली बुद्धिजीवी हैं जो बंगला में नहीं लिखते, यह हम सबके लिए चिन्ता की बात है।

एक अन्य समस्या है वह है संचार क्रांति की मूलभाषा (Language of communication revolution) अंग्रेजी है।

अंग्रेजी कम्प्यूटर की मूलभाषा है, इसमें जनभाषाओं की देर से शुरूआत हुई है,इसका कु-फल है कि कम्प्यूटर में जनभाषाएं हैं लेकिन भारतवासी उनका न्यूनतम इस्तेमाल करते हैं।सिर्फ किताब-पत्र-पत्रिका प्रकाशन में जनभाषाओं की मदद लेते हैं। बाकी सब काम अंग्रेजी में कर रहे हैं। यह स्थिति बदलनी चाहिए। प्रतिष्ठित लेखक-प्रोफेसर-पत्रकार-एम.ए,बी.ए. लोग अभी तक इंटरनेट पर यूनीकोड हिन्दी या भारतीय भाषा के फॉण्ट में नहीं लिखते, यह स्थिति जितनी जल्दी बदले उतना ही अच्छा है। कहीं यह मातृभाषा की विदाई की सूचना तो नहीं है ?

जगदीश्वर चतुर्वेदी

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