मुकुल सरल

- जब हम कहते हैं कि “पुरुष बलात्कार करते हैं” तो इसका यह मतलब नहीं होता कि सारे पुरुष बलात्कार करते हैं।
- जब आप कहते हैं कि “नेताओं ने देश बर्बाद कर दिया है” तो इसका यह मतलब नहीं होता कि सारे नेता ख़राब हैं।
- “पुलिस भ्रष्टाचारी है” तो ऐसा कहने का भी यह मतलब नहीं है कि सारे पुलिसवाले भ्रष्टाचारी हैं।
- “मीडिया दलाल हो गया है” तो इसका यह मतलब नहीं है कि सारे मीडिया हाउस या सारे मीडियाकर्मी दलाली करने लगे हैं।
इसी तरह कन्हैया कुमार के सेना पर दिए गए बयान का भी यह कतई मतलब नहीं है कि सेना बलात्कारी है। उनके बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया, जिसके आधार पर ग़लत अर्थ निकाले गए। कन्हैया ने अपने कई भाषणों और टीवी पर दिए इंटरव्यू में साफ किया है कि वे सेना का सम्मान करते हैं। आठ मार्च महिला दिवस पर दिए गए बयान की भी जो रिपोर्ट पढ़ने को मिली है उसके अनुसार
कन्हैया ने कहा कि हम अफस्पा का विरोध करते हैं. सेना के जवानों का सम्मान करते हुए हम कहते है कि कश्मीर में महिलाओं का रेप होता है.

(संदर्भ- औरतें पैदा होती नहीं हैं, समाज में बनाई जाती हैं-वायरल हो गया कन्हैया का ये वीडियो )
तो इसमें क्या ग़लत है? कश्मीर से लेकर मणिपुर तक सेना और अन्य सुरक्षा बलों पर उत्पीड़न और यौन शोषण के कम आरोप नहीं हैं। कई मामलों में सेना ने खुद कार्रवाई की है। अपने अफसरों का कोर्ट मार्शल तक किया है। तो कन्हैया के बयान पर इतना बवाल क्यों?
किसी को कोई शक हो तो उदाहरण के लिए नीचे कुछ ख़बरों के लिंक दिए हैं। उन्हें खोलकर पढ़ा जा सकता है।
सेना के अफ़सर के ख़िलाफ़ कोर्ट ... - BBC.com
www.bbc.com/hindi/.../041220_major_...
सेना की कार्रवाई की ताज़ा ख़बर, ब्रेकिंग ...
khabar.ndtv.com ›
मनोरमा देवी की याद में - Samyantar
www.samayantar.com/मनोरमा-देवी-की-याद-म...
When will justice to Manorama - मनोरमा को कब ...
www.amarujala.com › ... ›

कन्हैया कुमार वही युवक हैं जिनके भाई सीआरपीएफ में थे और नक्सलियों से लड़ते हुए शहीद हुए, लेकिन यह युवक आज भी यह कहने की हिम्मत रखता है कि निर्दोष आदिवासियों को नक्सली बताकर मार दिया जाना ग़लत है। (संदर्भ: रवीश कुमार को दिए गया इंटरव्यू संघ-सरकार की नई मुसीबत-कन्हैया के भाषण को 30 लाख से ज्यादा लोगों ने किया शेयर)।
क्या आप और हम ऑपरेशन ग्रीन हंट या सलवा जुडूम का समर्थन कर सकते हैं? नहीं। सुप्रीम कोर्ट तक ने सलवा जुडूम को अवैध ठहराया है तो इसका यह मतलब नहीं है कि हम सीआरपीएफ जवानों की शहादत पर खुशी मनाते हैं या नक्सली हिंसा का समर्थन करते हैं। हमें सैनिकों, सुरक्षाबलों के जवानों की शहादत का भी दुख है और निर्दोष लोगों को नक्सली या आतंकी बताकर मार दिए जाने का भी।
इसके अलावा हम सब मानते हैं कि एक सैनिक देश की रक्षा में अपने प्राणों तक का सर्वोच्च बलिदान देता है। इसके लिए उनका जितना सम्मान किया जाए कम है, जितनी जयकार की जाए कम है, लेकिन फिर भी हमें उन्हें महामानव नहीं बनाना चाहिए। वे भी हमारी-आपकी तरह इंसान हैं। वे भी सेना में नौकरी करने जाते हैं, हां, वे देश के लिए शहीद होने का जज्बा हम सबसे ज़्यादा रखते हैं, लेकिन ये भी सच है कि बेवजह कोई शहीद नहीं होना चाहता।
कन्हैया ने ज़मानत के बाद जेएनयू में दिए गए अपने भाषण में सही कहा था कि

“शहादत का तो सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन यह भी पूछा जाना चाहिए कि हमारे सैनिक शहीद क्यों हो रहे हैं। लड़ने वाला दोषी नहीं, लड़ाने वाला दोषी है।”

आपने देखा कि अमेरिका समेत तमाम देशों ने अपने देश के अतिरिक्त हितों के लिए सैनिकों को इराक और अफगानिस्तान समेत कई देशों में लड़ने भेजा, जिसका उनके अपने देशों में भारी विरोध हुआ। तो इसका मतलब यह नहीं निकाला गया कि विरोध करने वाले लोग देश विरोधी या सेना विरोधी थे। बल्कि इसका मतलब ये था कि वे अपने सैनिकों से बहुत ज़्यादा प्यार करते थे और उन्हें उनकी जान की फिक्र थी। इसलिए हम यह भी कहते हैं कि अपने ही नागरिकों के खिलाफ सेना और अन्य सुरक्षा बलों को क्यों इस्तेमाल किया जाता है। जिसमें वे दोनों एक-दूसरे की जान लेने पर आमादा होते हैं, जबकि शांति और बातचीत से समस्या हल हो सकती है? जब लगभग सभी दलों का मानना है कि नक्सलवाद सिर्फ कानून-व्यवस्था का मामला नहीं है, बल्कि एक सामाजिक और आर्थिक समस्या है, जिसकी जड़ में जाये बिना इसका हल संभव नहीं तो फिर वहां किसके हित में अर्द्धसैनिक बलों को झोंक दिया गया।
इसके अलावा मैंने इससे पहले लिखे अपने लेखों में लिखा कि “...जय किसान और जय विज्ञान के बिना जय जवान अधूरा है।” इसे दो संदर्भों में समझा जाना चाहिए। एक तो यह कि जैसे कन्हैया ने कहा कि “हमारे पिता यानी एक किसान खेत में मर रहे हैं और हमारे भाई सीमा पर शहीद हो रहे हैं।” आपको यह जानने की ज़रूरत है कि सीमा पर शहीद होने वाले जवान किन परिवारों से आ रहे हैं। ये वही गरीब किसान के बेटे हैं जो आज आत्महत्या करने को मजबूर हैं। यानी एक खेत में शहीद हो रहा है और दूसरा सरहद पर। इसलिए केवल भावनात्मक बातें करने की बजाय कुछ ठोस बातें और सवाल भी पूछे जाने चाहिए। जैसे हमारे आम सैनिकों पर सर्दी-गर्मी के लिए क्यों नहीं अच्छे जूते और वर्दियां हैं? सियाचिन में शहीद सैनिकों के लिए आंसू बहाते हुए पूछा जाना चाहिए कि क्या उन्हें बचाया जा सकता था? क्योंकि ख़बरें हैं कि पाकिस्तान ने इस तरह का प्रस्ताव दिया था कि उनके सैनिक उन भारतीय सैनिकों के बहुत पास हैं जो बर्फ़ के तूफान में दब गए थे।

इसके अलावा हमारी लेखक साथी संध्या नवोदिता समेत कई साथियों ने भी सवाल उठाया कि यह पूछा जाना चाहिए कि क्यों नहीं एक ऐसी जगह पर जहां घास तक नहीं उगती, तापमान माइनस 40 डिग्री रहता है वहां भारत और पाकिस्तान की चौकियों से क्या हासिल हो रहा है? क्यों नहीं दोनों देश संयुक्त राष्ट्र संघ में इस तरह का कोई प्रस्ताव पास करते जिससे दोनों देशों के सैनिक इस कब्रगाह से निकल सकें। क्यों नहीं दोनों देश आपसी सहमति से अपनी-अपनी चौकियों को नीचे ले जाते, ताकि बेवजह उनके या हमारे जवान शहीद न हों।
मीडिया का हिस्सा होने के नाते मैं जानता हूं कि एक सैनिक की शहादत पर हम भले ही कितनी गर्वीली बातें कर लें। हमारे नेता और अफसर अंतिम संस्कार पर सलामी दे आएं। उनके परिजन भी शहादत पर गर्व की बातें करें। हम अख़बारों में कितने ही हैंडिग लगा लें कि “ज़िले को नाज़ है”, “शहर को नाज़ है”, “गांव को नाज़ है”, लेकिन यह तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है, दूसरा पहलू दर्द में डूबा है। जिनका बेटा, पति या पिता शहीद होता है, उस परिवार के इस दुख की भरपाई सम्मान के चंद शब्द और आर्थिक सहायता से नहीं की जा सकती। इसके अलावा कुछ दिनों बाद उनके घर न कोई नेता, न कोई अफसर, न कोई मीडिया वाला यह पूछने जाता है कि क्या हाल है? वे कैसे जी रहे हैं?
यही नहीं वन रैंक, वन पैंशन को लेकर पूर्व सैनिकों के साथ क्या सुलूक हुआ या हो रहा है आप जानते ही होंगे।
इसके अलावा आप यह भी जानिए कि सेना के भीतर भी भेदभाव की कम कहानियां नहीं हैं। हथियारों में दलाली से लेकर दूसरे देश के लिए जासूसी तक के आरोप सामने आए हैं। तो क्या इस संदर्भ में सवाल उठाने पर आप सेना के विरोधी समझे जाएंगे?
इसलिए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ज़्यादा महिमामंडन भी संकट की अलामत है। पाकिस्तान में कई बार सैनिक शासन हमने देखा और इस दौरान नागरिक अधिकारों को किस तरह हनन हुआ वो भी सारी दुनिया जानती हैं। दुनिया के अन्य सैनिक तानशाहों से भी हम सबक ले सकते हैं। हमारे-आपके गली-मोहल्ले में दो दिन सेना या पुलिस खड़ी हो जाए तो हमारा-आपका क्या हाल होगा, इसे हम खुद विचार सकते हैं। इसलिए सैनिकों को सैनिक ही बना रहने दें, उन्हें सम्मान दें लेकिन महामानव न बनाएं, यही मेरा आग्रह है। और इस देश की तरक्की में न किसानों का योगदान भूलें, न वैज्ञानिकों का। विचारधार अपनी जगह है लेकिन केवल सेना की जय हो और किसान आत्महत्या करें, वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले विद्वानों, तर्कवादियों की हत्याएं हो, धर्मनिरपेक्षता का मखौल उड़ाया जाने लगे, विचारकों, प्रगतिशीलों को देशद्रोही कहा जाने लगे, दलितों, महिलाओं, आदिवासियों को उनका हक़ न मिले, उन्हें लगातार हाशिये पर धकेला जाए तो हमारा देश कैसे आगे बढ़ सकता है? कैसे महान या महाशक्ति बन सकता है, आप खुद ही सोच सकते हैं।
मुकुल सरल