फारवर्ड प्रेस की इस भ्रामक राजनीति का क्या करें ?
फारवर्ड प्रेस की इस भ्रामक राजनीति का क्या करें ?
अभिषेक श्रीवास्तव
आज से कोई साढ़े आठ साल पहले यानी 2006 के फरवरी में "सीनियर इंडिया" नाम की व्यावसायिक पाक्षिक पत्रिका पर छापा पड़ा था। विवादास्पद अंक ज़ब्त कर लिया गया था। संपादक आलोक तोमर समेत प्रकाशक को जेल हुई थी। आरोप था कि पत्रिका ने डेनमार्क के कार्टूनिस्ट का बनाया मोहम्मद साहब का कथित विवादित कार्टून छापा है जिससे कुछ लोगों की भावनाएं आहत हुई हैं। सच्चाई यह थी कि उस वक्त दुनिया भर में चर्चित इस कार्टून पर पत्रिका ने एक कोने में करीब दो सौ शब्द की अनिवार्य टिप्पणी की थी जिसके साथ कार्टून का एक थम्बनेल प्रकाशित था, जिसे आधार बनाकर दिल्ली पुलिस कमिश्नर ने अपने ही सिपाही से पत्रिका के खिलाफ एक एफआइआर इसलिए करवा दी क्योंकि दो अंकों से पत्रिका की आवरण कथा कमिश्नर के खिलाफ़ छप रही थी जिसे अवतांश चित्रांश और मैंने संयुक्त रूप से अपने नाम से लिखा था। स्पष्टत: यह दिल्ली पुलिस द्वारा बदले की कार्रवाई थी, लिहाज़ा प्रभाष जोशी से लेकर राहुल देव तक पूरी पत्रकार बिरादरी का आलोकजी के समर्थन में उतर आना बिल्कुल न्यायसंगत था।
अब इसके साथ व्यावसायिक पत्रिका "फॉरवर्ड प्रेस" का मामला रखकर देखिए। बताया जा रहा है कि एक शिकायत के आधार पर आरोप यहां भी वही है कि कुछ लोगों की भावनाएं दुर्गा-महिषासुर पौराणिक कथा के पुनर्पाठ के कारण आहत हुई हैं। लिहाज़ा अंक ज़ब्त हुआ और चतुर्थ श्रेणी के कुछ कर्मचारी जेल चले गए। सच्चाई क्या है? सच्चाई उतनी ही है जितनी दिखती है- मतलब एक शिकायत हुई है कंटेंट के खिलाफ़ और कार्रवाई हुई है। इसके पीछे की कहानी यह है कि महिषासुर विरोध के लिए जिस 'दक्षिणपंथी' सरकार को आज दोषी ठहराया जा रहा है, पिछले कई अंकों से यह पत्रिका उसी के गुणगान कर रही थी। जिस सरकार ने "फारवर्ड प्रेस" की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला किया है, अब तक पत्रिका उसी सरकार और उसके ओबीसी प्रधान सेवक के एजेंडे में अपनी राजनीतिक स्पेस खोज रही थी, हालांकि 'संतुलन' बैठाने के लिए कुछ और लेख बेशक छाप दिए जाते थे। तो हुआ यह, कि अचानक एक शिकायत के कारण मामला बस बैकफायर कर गया। पहले महिषासुर हिंदुत्व में डायवर्सिटी खोजने का औज़ार था, दमन की कार्रवाई के बाद वह अचानक वामपंथ से समर्थन जुटाने का औज़ार बन गया है।
इतना ही नहीं, पत्रिका ने अपने जुलाई के अंक में बहुजनों को बताया कि उन्हें जनादेश को कैसे देखना चाहिए। पत्रिका लिखती है: "दलित, ओबीसी ने भाजपा की भारी विजय में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। यह हमारी जीत है और हमें उसे इसी रूप में स्वीकार करना चाहिए।"
स्पष्ट है कि जो पत्रिका चुनाव से पहले भाजपा को वोट नहीं देने की बात कर रही थी, वह भाजपा के पक्ष में भारी जनादेश आने के बाद इसे अपनी जीत बता रही है। यह पक्ष का परिवर्तन एक सुचिंतित व सुनियोजित फैसला था और पत्रिका की आधिकारिक लाइन भी यही थी। इससे पहले पत्रिका ने रामविलास पासवान और उदित राज के भाजपा में जाने को 'जस्टिफाइ' किया था। जुलाई का अंक शब्दांकन की वेबसाइट पर पढ़ा जा सकता है (http://www.shabdankan.com/2014/06/forward-press-july-2014.html#.VDz1vk0cS00 )
इसके बावजूद पत्रिका पर छापे की 'कार्रवाई' का विरोध होना चाहिए, तो इस बात को समझते हुए कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का मामला यहां पत्रिका के राजनीतिक एजेंडे से स्वायत्त नहीं है। पहले तो आप यह मानें कि "फॉरवर्ड प्रेस"एक व्यावसायिक पत्रिका है, कोई आंदोलन नहीं। दूसरे यह समझें कि सामान्यत: प्रकाशनों पर दमन सत्ता-विरोध के चलते किया जाता है (जैसा "सीनियर इंडिया" के साथ हुआ), लेकिन ताज़ा मामले में पिछले एक साल से मोदी सत्ता के पक्ष में तर्क जुटा रही पत्रिका का दमन हुआ है। इसलिए इसे आप पत्रिका के राजनीतिक एजेंडे से काटकर नहीं देख सकते। इस लिहाज से मैं सीनियर इंडिया के मामले को फॉरवर्ड प्रेस के मुकाबले ज्यादा जेनुइन मानता हूं।
अगर वाकई "फॉरवर्ड प्रेस" दक्षिणपंथ विरोध या वामपंथी रुझान की पत्रिका है (जैसा कि अब कहा जा रहा है) तो एचएल दुसाध से लेकर प्रेमकुमार मणि तक हर कोई नरेंद्र मोदी के प्रोजेक्ट में हिस्सेदारी क्यों तलाश रहा था? यदि पिछले अंकों में ज़ाहिर राजनीतिक लाइन ही पत्रिका की आधिकारिक लाइन है, तो अब दक्षिणपंथी सरकार के दमन का स्यापा क्यों? कहने का मतलब ये कि अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ हम खड़े तो हैं ही, हमेशा रहेंगे, लेकिन उस भ्रामक राजनीति का क्या करें जो अपनी सुविधा के मुताबिक कभी दक्षिणपंथी हो जाती है तो कभी वामपंथियों को साथ आने को कहती है।
इससे कहीं ज्यादा विडंबनापूर्ण स्थिति उन वामपंथियों और वामपंथी संगठनों की है जो "अभिव्यक्ति की आज़ादी" के पक्ष में बयान जारी करते हुए और हस्ताक्षर करते हुए उसे महिषासुर प्रकरण व पत्रिका के अब तक लिए राजनीतिक पक्ष से अलगा कर देख रहे हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी हवा में नहीं होती, उसका एक ठोस राजनीतिक आधार होता है जिससे पक्ष लेने का पैमाना तय होता है। अगर यहां एक विशुद्ध दक्षिणपंथी पत्रिका पर भी दक्षिणपंथी सरकार का हमला होता तब भी हम अभिव्यक्ति की आज़ादी के समर्थन में ही खड़े होते, लेकिन "फॉरवर्ड प्रेस" के विशिष्ट मामले में दो दिक्कतें हैं। पहली दिक्कत इसकी राजनीति का स्पष्ट होना नहीं है। दूसरी दिक्कत एक मिथकीय पात्र से राजनीतिक लड़ाई लड़ने के लिए दूसरे मिथकीय पात्र को औज़ार बनाना है। सामान्य वैज्ञानिक दृष्टि भी मिथकों को स्वीकार्यता नहीं देती है।
हम छापे की कार्रवाई का विरोध करेंगे, लेकिन क्या पत्रिका अपनी राजनीति को स्पष्ट करेगी? एक सवाल पत्रिका के साथ बेशर्त खड़े वामपंथी संगठनों और व्यक्तियों से भी कि क्या वे पत्रिका के साथ सिद्धांतत: खड़े रहते हुए मिथकों की उसकी राजनीति को कठघरे में खड़ा करेंगे?
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