फिर याद आयी अयोध्या
फिर याद आयी अयोध्या
0 राजेंद्र शर्मा
नई दिल्ली। दो हजार पंद्रह के आखिर तक आते-आते, एक बार फिर अयोध्या विवाद का कड़ाह खदकाया जाना शुरू हो चुका है। बेशक, मामला अभी संकेतों तक ही है। लेकिन, संकेत एकदम स्पष्ट हैं। आंच अभी धीमी ही सही, मामला सिर्फ विहिप, बजरंग दल, रामजन्म भूमि न्यास आदि की बयानबाजी तक सीमित नहीं है। राजस्थान से लाल पत्थर के दो ट्रक अयोध्या में विहिप की उस कार्यशाला में पहुंच चुके हैं, जहां मंदिर के निर्माण के लिए सामग्री जुटाने, तैयार करने का काम, रुक-रुककर चलता रहा है। बेशक, दो ट्रक पत्थर पहुंचना अपने आप में महत्वपूर्ण नहीं है।
जानकारों के अनुसार, प्रस्तावित ‘भव्य मंदिर’ के निर्माण के लिए जरूरी आधे से ज्यादा पत्थर पहले ही अयोध्या पहुंच चुका था। महत्वपूर्ण यह है कि पूरे आठ साल के अंतराल के बाद, मंदिर के लिए पत्थरों की नयी खेप अयोध्या पहुंची है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि अयोध्या में मंदिर के निर्माण की सामग्री इकट्ठी किए जाने और तैयार किए जाने के इतने वर्षों से जारी सिलसिले में कुछ नया होने का स्पष्ट संकेत करते हुए, पहली बार राम मंदिर न्यास के प्रधान, नृत्यगोपाल दास ने इस पत्थरों की सार्वजनिक पूजा का आयोजन किया। जाहिर है कि उन्हें न तो यह स्वीकार करने में कोई दुविधा हुई कि पहली बार यह पूजा हो रही थी और न कहने में कोई हिचक हुई कि उन्हें भरोसा है कि मौजूदा, शासन मंदिर के निर्माण में मदद करेगा!
मंदिर विवाद के कड़ाह की आग तेज किए जाने के मौजूदा चक्र की शुरूआत, अयोध्या के इस घटनाक्रम से कोई दो सप्ताह पहले, कोलकाता में आरएएसएस के मुखिया, मोहन भागवत द्वारा विवादित मंदिर का मामला छेड़े जाने से हुई थी। बाबरी मस्जिद के विध्वंस की बरसी की पूर्व-संध्या में, जिसे संघ परिवार से जुड़े कई संगठनों ने एक बार फिर ‘शौर्य दिवस’ के रूप में मनाने का एलान कर रखा था, भागवत ने न सिर्फ यह उम्मीद जतायी थी कि उनके जीते-जी मंदिर बन जाएगा बल्कि उसके लिए ‘तैयार रहने’ का भी आह्वान किया था। हां! इसके साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा था कि ‘कोई नहीं कह सकता है...मंदिर कब, कैसे बनेगा।’
संसद् सत्र के दौरान अयोध्या का मतलब ?
अचरज नहीं कि एक लचीली, वास्तव में काफी हद तक तरल कार्यनीति के साथ, मंदिर कड़ाह को गर्म करने के इस संकेत को पकडऩे में, संघ परिवार के मंदिर बाजू से रत्तीभर चूक नहीं हुई। इस सिलसिले में एक तथ्य, जिसकी ओर प्राय: टिप्पणीकारों का ध्यान नहीं गया है, यह है कि यह सब संसद के हंगामी शीतकालीन सत्र के चलते-चलते किया जा रहा था। यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं था कि अयोध्या में जो हो रहा है, उसकी धमक संसद में भी सुनाई देगी। और इस संकेत का संदेश दूर तक जाएगा। ठीक यही हुआ भी। शीतकालीन सत्र में असहिष्णुता से चर्चा शुरू हुई और अयोध्या से आ रहे अशुभ संकेतों पर समाप्त हुई। इस चर्चा में मोदी सरकार ने संघ परिवार की कार्रवाइयों में ‘कुछ भी आसामान्य नहीं’ बताने के जरिए, अपने संघ परिवार की योजना के साथ होने का ही सबूत पेश किया। याद रहे कि यह सबूत मोदी के राज में जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष तथा आधुनिक व्यवस्था के कमजोर किए जाने की बढ़ती आलोचनाओं की देश की संसद में जोरदार अभिव्यक्ति की पृष्ठभूमि में और एक हद तक उसके जवाब में, पेश किया जा रहा था।
उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभाई चुनाव के लिए संघ परिवार की तैयारी का हिस्सा है यह
यह किसी से छुपा नहीं रहा है कि यह सब सबसे बढक़र, उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभाई चुनाव के लिए संघ परिवार की तैयारी का हिस्सा है। 2017 के शुरू में होने वाले, देश के सबसे बड़े राज्य के चुनाव का, संघ परिवार के प्रभाव और वास्तव में उसके राजनीतिक वर्चस्व को सुदृढ़ करने के लिए कितना महत्व है, यह बताने की जरूरत नहीं है। वास्तव में, 2014 के लोकसभाई चुनाव में उत्तर प्रदेश की अपनी एक हद तक अकल्पित कामयाबी को, राज्य विधानसभा में मोदी के नेतृत्व में भाजपा उसी स्तर पर सुदृढ़ कर सकती है, इसकी उम्मीद तो खैर उसके सबसे उत्साही समर्थकों को भी नहीं रही होगी। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद हुए सभी विधानसभाई चुनावों में एक सिरे से लगाकर, लोकसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा के मत फीसद में आयी स्पष्ट गिरावट को देखते हुए, इस लक्ष्य का कठिन होना स्वयंसिद्ध था। लेकिन, लोकसभा चुनाव में मिले समर्थन में लोकसभा चुनाव के फौरन बाद शुरू हो गयी इस स्पष्ट गिरावट के बावजूद, 2014 के विधानसभाई चुनावों में पिछले चुनाव के मुकाबले भाजपा की बढ़त का जो ग्राफ बना रहा था, 2015 के आखिर में हुए बिहार के चुनावों ने उसे भी पलट दिया।
बिहार में भाजपा को महागठबंधन के हाथों हार का ही मुंह नहीं देखना पड़ा, उसकी ताकत पिछले विधानसभाई चुनावों के मुकाबले भी नीचे खिसक गयी। और जैसे इसी को रेखांकित करने के लिए कि बिहार के चुनाव का नतीजा अपवाद न होकर, मोदी के नेतृत्व में भाजपा के नये-नये बढ़े हुए जनाधार के गंभीर रूप से खिसकने के आम रुझान का ही हिस्सा है, उसके बाद हुए दो लोकसभाई सीटों के उपचुनाव में भाजपा की हार हुई। इसमें मध्य प्रदेश में रतलाम-झाबुआ सीट पर भाजपा की हार खासतौर पर महत्वपूर्ण है, जिसके चलते आम चुनाव के बाद लोकसभा में भाजपा की संख्या में पहली गिरावट दर्ज हुई।
साफ तौर पर टूट रहा है ‘मोदी का जादू’ ।
इसके आस-पास ही गुजरात के स्थानीय निकाय के चुनावों के चुनाव में, गुजरात में मोदी-युग शुरू होने के बाद से पहली बार, ग्रामीण इलाकों में भाजपा, प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस से निर्णायक रूप से पिछड़ गयी। ‘मोदी का जादू’ साफ तौर पर टूट रहा है। इस पृष्ठभूमि में, उत्तर प्रदेश के आने वाले चुनाव में मोदी के नेतृत्व में भाजपा और संघ परिवार का दांव और भी बढ़ जाता है। इसमें इतना और जोड़ लें कि आम चुनाव के बाद से उत्तर प्रदेश में जितने भी विधानसभाई उपचुनाव हुए हैं, उनमें भाजपा न सिर्फ कोई भी सीट जीतने में नाकाम रही है, वास्तव में उसने अपनी एकाधिक सिटिंग सीटें भी गंवायी हैं। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य के प्रेक्षकों के अनुसार, लोकसभा चुनाव के विपरीत, विधानसभाई चुनाव में वास्तविक त्रिकोणीय मुकाबलों की संभावना, वैसे भी भाजपा के खिलाफ जाने वाली है। कार्यकाल के बीचौ-बीच उत्तर प्रदेश में मोदी की भाजपा की नाकामयाबी, उसे एक निश्चित ढलान पर पहुंचा सकती है। यह भी अर्थहीन नहीं है कि उत्तर प्रदेश से पहले होने वाले सभी विधानसभाई चुनावों में, एक असम के अपवाद को छोडक़र, मोदी की भाजपा अपनी सारी कोशिशों के बावजूद, मुख्य खिलाडिय़ों के दर्जे में भी नहीं पहुंच सकती है। राज्यसभा में बहुमत का भाजपा का सपना, बिहार की हार के बाद सपना ही रह जाता नजर आता है। उत्तर प्रदेश की नाकामी इस पर पक्की मोहर लगा सकती है। संसदीय व्यवस्था में यह स्थिति, किसी सरकार की मनमानी के खिलाफ कितना जरूरी जनतांत्रिक अंकुश है, इस पर अलग से जोर देने की जरूरत नहीं है।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें मंदिर के कड़ाह के नीचे आग फिर तेज की जा रही है। यह सब उस उत्तर प्रदेश में हो रहा है, जो पिछले कुछ वर्षों से निर्विवाद रूप से देश भर में सबसे ज्यादा सांप्रदायिक घटनाएं झेलता रहा है। मुजफ्फरनगर के लेकर बिसाहड़ा तक, ऐसी हरेक घटना में संघ परिवार के संगठनों की किसी न किसी रूप में मौजूदगी से साफ है कि स्थानीय रूप और यहां तक कि क्षेत्रीय स्तर पर भी, सांप्रदायिक धु्रवीकरण की कोशिशें यहां समाजवादी पार्टी के सत्ता में आने के बाद से ही लगातार चलती रही हैं। केंद्र में एनडीए सरकार के आने के बाद से, चौतरफा आलोचनाओं के बावजूद, ‘घर वापसी’ से लेकर, ‘लव जेहाद’ के मुकाबले तथा ‘गोरक्षा’ तक के अभियानों के जरिए, इन कोशिशों को और आगे ही बढ़ाया गया है। अब अयोध्या के मुद्दे की आंच तेज करने के जरिए, इस ध्रुवीकरण को कम से कम राज्य के स्तर पर आगे बढ़ाया जाएगा।
बेशक, यह शुरू में धीमी गति से ही होगा। अयोध्या विवाद सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है और मौजूदा सरकार अगर चाहे भी तो इसमें ज्यादा कुछ नहीं कर सकती है। पर मंदिर के मुद्दे को राजनीतिक रूप से एक बार फिर भुनाने की संघ परिवार की कोशिशों में, मददगार तो हो सकती है। इन कोशिशों के साथ तो खड़ी हो ही सकती है।
2016 में मोदी सरकार ज्यादा से ज्यादा यही करती दीख रही होगी। ‘विकास और अच्छे दिन लाने’ और ‘हिंदू-हित रक्षा’ के वादों की दो टांगों में से, पहली वाली वजन उठाने में जितनी ज्यादा असमर्थ होती जाएगी, दूसरी वाली पर जोर उतना ही बढ़ता जाएगा। यह दूसरी बात है कि यह अंतत: इन वादों पर टिके जनसमर्थन के लुढक़ पडऩे की ओर भी ले जा सकता है। 0


