कैलाश सत्यार्थी
भारत में बच्चों की गुमशुदगी की घटनाओं में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। आज स्थिति यह है कि देश में हर छह मिनट में कहीं न कहीं से एक बच्चे को गायब कर दिया जाता है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक वर्ष 2009 में 68227, वर्ष 2010 में 77133, तथा 2011 में 90654 बच्चे गायब हुये। इनमें से लगभग 40 फीसदी का कोई अता-पता नहीं चल पाया।

विडम्बना देखिये कि इतने जघन्य अपराध की रोक-थाम के लिये देश में न ही कोई कानून बना है और न ही देश की संसद् में एक बार भी इस गम्भीर मुद्दे पर चिन्ता दिखाते हुये कोई चर्चा करायी गयी। गाहे-बगाहे, इक्के-दुक्के सांसदों ने कोई लिखित सवाल पूछ भी लिया तो उसी अन्दाज़ में सरकारी महकमों के मुँशियों द्वारा तैयार किया गया घिसा-पिटा जवाब पढ़कर सुना दिया जाता है।

पाठकों को स्मरण होगा कि बच्चों के गायब होने के सम्बन्ध में कुछ साल पहले ही देश में एक गम्भीर काण्ड का खुलासा हुआ था जिसने पूरी मानव सभ्यता के सिर को शर्म से झुका दिया था। दिल्ली से सटे निठारी गाँव जो अब नोएडा उप नगर का एक भाग बन चुका है, में जब एक दिन सफाई कर्मचारियों को गटर में बच्चों के जिस्मों के टुकड़े मिले तो पूरा मुल्क सन्नाटे में आ गया था। लेकिन इससे पहले जब-जब भी गुमशुदा बच्चों के माता-पिता अपनी गुहार लेकर स्थानीय पुलिस थाने पहुँचे तो उनको निराश और अपमानित होकर ही लौटना पड़ा। बाद में पता चला कि इंसानी शक्ल के नरभक्षी दरिन्दे उन मासूम बच्चों का खून निकालकर पीते थे और टुकड़े-टुकड़े करके माँस खा जाते थे। इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या होगी कि इतने नृशंस व हृदय विदारक घटना के बाद भी न तो हमारी सरकार चेती और न उमड़ी समाज की संवेदना ज्यादा दिनों तक टिकी रह सकी।

बच्चों की गुमशुदगी, बच्चों और उनके माता-पिताओं व परिजनों के साथ ऐसा घिनौना और यातनामय अपराध है जिस से किसी भी सभ्य समाज में बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिये। गुमशुदा हुये बच्चों में अधिकाँशतः झुग्गी-बस्तियों, विस्थापितों, रोजगार की तलाश में दूर-दराज के गाँवों से शहरों में आ बसे परिवारों, छोटे कस्बों और गरीब व कमजोर तबकों के बच्चे होते हैं। चूँकि ऐसे लोगों की कोई ऊँची पहुँच, जान-पहचान या आवाज नहीं होती इसलिये पुलिस, मीडिया और यहाँ तक कि पड़ोसी भी उनको कोई तवज्जो नहीं देते हैं। माता-पिता भी ज्यादातर अशिक्षित तथा डरे-सहमे होते हैं। जानकारी के अभाव में पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने के बजाय वे लोग अपने बच्चे के गुमशुदा होने के कई घण्टों अथवा एक-दो दिन बाद तक स्वयं ही खोज-बीन में लगे रहते हैं। अगर समाज और पुलिस की मुश्तैदी से बच्चों का चुराया जाना रोका जा सके तो ऐसे अनेकों अपराधों पर अँकुश लगाया जा सकता है।

हम जैसे कार्यकर्ता लगातार यह आवाज उठाते रहे हैं कि बच्चों की गुमशुदगी को एक संगठित अपराध की तरह देखा जाना चाहिये। बच्चे कोई छतरी, जूते, पर्स या मोबाइल फोन जैसी निर्जीव चीजें नहीं हैं जो भूल से कहीं खो जायें। हर गुमशुदा बच्चे को पहली ही रात सोने की जगह, पानी, खाना वगैरह की जरूरत होती है जिसके लिये वह शोर मचा सकता है। अगर कोई बच्चा कई दिनों, महीनों व सालों तक गायब है तो कहीं न कहीं उसे जिन्दा रखने के लिये भोजन-पानी का प्रबन्ध जरूर किया जाता होगा। दरअसल लापता होने वाले सभी गुमशुदा बच्चे, बाल दुर्व्यापार (ट्रैफिकिंग) के ही शिकार होते हैं। शातिर और अपराधी गिरोह कुछ बस्तियों को चिन्हित करके बच्चे को चुराते हैं और उसे दूसरे अपराधियों को बेच देते हैं अथवा अपने ही अन्य साथियों के पास सैकड़ों मील दूर कहीं पहुँचा देते हैं। जोर-जबर्दस्ती, मार-पीट, नशे की दवाईयाँ, इन्जेक्शन आदि देकर इन बच्चों को अलग-अलग प्रकार के कामों में बेचा जाता है। बाल वेश्यावृत्ति, बँधुआ मजदूरी, गुलामी, अपाहिज बनाकर जबरिया भीख मँगवाने व बाल विवाह कराने से लगाकर बच्चों के शरीर के विभिन्न अंगों की बिक्री तक में उनका उपयोग किया जाता है।

कुछ दिनों पूर्व बचपन बचाओ आन्दोलन के प्रयास से छुड़ाये गये 11 वर्षीय संतोष (बदला हुआ नाम) ने बताया कि उसे कई-कई बार बेचा गया। उससे कई सालों तक खेतों में बँधुआ मजदूरी करायी गयी थी। मुक्त हुये एक अन्य बच्चे को पंजाब में सर्कस में बँधुआ बनाकर रखा गया था। कुछ वर्ष पूर्व दक्षिणी दिल्ली में एक स्कूल से लौट रही दो छात्राओं को गायब कर किया गया था जिनको कई वर्ष बाद राजस्थान के अलवर जिले के एक गाँव से छुड़वाया गया। उनसे वहाँ वेश्यावृत्ति करवायी जाती थी। इसी तरह जोधपुर के कुछ गाँवों से चुराये गये बच्चों से दिल्ली में एक गिरोह द्वारा जबरिया भीख मँगवायी जा रहा थी।

हाल में ही माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला देकर गुमशुदा बच्चों तथा उनके माता-पिताओं के जीवन में एक नई आशा की किरण जगाई है। बचपन बचाओ आन्दोलन की एक याचिका पर दिये गये इस ऐतिहासिक फैसले में सभी राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार को आदेशित किया गया है कि गुमशुदगी के प्रत्येक मामले को सम्भावित अपराध मानते हुये प्राथमिकी दर्ज की जाये। ज्ञातव्य है कि बच्चों की गुमशुदगी के खिलाफ हमारे देश में कोई कानून नहीं है। जो कानून है भी वह सिर्फ अपहरण के मामले में है जिसके अन्तर्गत शिकायतकर्ता को किसी पर अपने बच्चे के अपहरण का शक व्यक्त करना पड़ता है। तभी प्राथमिकी दर्ज होती है। अपरचित लोगों द्वारा ट्रैफिकिंग के लिये चुराये गये बच्चों के मामले में माँ-बाप आखिर शक करें भी तो किस पर, लिहाजा पुलिस में उनकी प्राथमिकी (एफ.आई.आर.) तक दर्ज नहीं होती। यही वजह है कि सरकारी आँकड़ों में 2008 से लगाकर 2010 तक गुमशुदा हुये 1,17000 बच्चों के मामलों में मात्र 16,000 प्राथमिकी दर्ज हो सकी। न्यायालय ने 2009 से अब तक गुम हुये प्रत्येक बच्चे के मामले में एफ.आई.आर. दर्ज करके एक महीने के अन्दर सभी मामलों की जाँच पड़ताल शुरू करने का आदेश दिया। सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार अकेले 2009 से 2011 के दो वर्षों के अन्तराल में 75,808 गुमशुदगियों की एफ.आई.आर. दर्ज करनी पड़ेंगी। अब पुलिस को गुमशुदगी के मामलों को बाल दुर्व्यापार, ट्रैफिकिंग व अगवा किये जाने के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा।

इस परिप्रेक्ष्य में देश की सबसे बड़ी अदालत का यह फैसला मील का पत्थर साबित हो सकता है। इस फैसले में कहा गया है कि प्रत्येक पुलिस थाने में कम से कम एक प्रशिक्षित पुलिस अधिकारी नियुक्त किया जाये जो किशोर कल्याण अधिकारी के तौर पर बच्चों से सम्बंधित अपराधों की जाँच-पड़ताल करेगा। इसके अलावा हरेक थाने पर ‘राष्ट्रीय विधिक सहायता प्राधिकरण‘ की ओर से कम से कम एक ‘पैरा विधिक स्वयंसेवी‘ रखा जायेगा जो बच्चों की गुमशुदगी तथा बच्चों पर हो रहे अन्य सभी प्रकार के अपराधों की शिकायतों पर होने वाली कार्यवाही की निगरानी करेगा। साथ ही बच्चों की गुमशुदगी, बाल मजदूरी, दुर्व्यापार, अगवा किये जाने और बच्चों से सम्बंधित सभी प्रकार के शोषण से जुड़े कानूनों को सही ढँग से लागू कराने, गुमशुदा बच्चे की खोज-बीन करने और वापस लौटे बच्चों के मामलों में एक मानक प्रक्रिया संहिता (स्टैण्डर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर) राष्ट्रीय स्तर पर लागू की जायेगी। इसके अतिरिक्त बच्चों से सम्बंधित सभी महत्वपूर्ण महकमों और संस्थानों, जैसे बाल कल्याण समिति, विशेष पुलिस दस्तों, सभी पुलिस थानों, किशोर न्याय मण्डलों, जिला बाल संरक्षण इकाईयों, राज्य स्तरीय बाल संरक्षण यूनिटों आदि के बीच एक कम्प्यूटरी कृत नेटवर्क स्थापित किया जायेगा। साथ ही केन्द्रीय स्तर पर एक डेटा कोष बनाया जायेगा।

लेकिन हम सब यह भी अच्छी तरह से जानते हैं कि देश के कानूनों के साथ सरकारी अनुपालक एजेन्सियों द्वारा ही किस तरह का भद्दा मजाक किया जाता है और किस-किस प्रकार से न्यायालयों के निर्णयों की फजीहत की जाती है। जो पुलिस वाले बाल तस्करों और बच्चा चुराने वाले गिरोहों की काली कमाई पर मौज कर रहे हों वे इस फैसले पर अपने आप अमल करने लगेंगे, यह सोचना बड़ी भूल होगी। अदालत की ये नज़ीरें तभी इस्तेमाल हो सकती हैं जब कोई आगे बढ़कर इन पर अमल कराना चाहेगा। बच्चों की गुमशुदगी रोकने के लिये जहाँ सामाजिक जागरूकता जरूरी है, वहीं सरकारी तन्त्र को जवाबदेह ठहराने के लिये सजग और सक्रिय सिविल सोसाईटी की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण होगी। गुमशुदगी, बाल व्यापार, बँधुआ मजदूरी, जबरिया भीखमंगी आदि के दुष्चक्र को तोड़ने के लिये इन सभी अपराधों के खिलाफ एक साथ मुहिम छेड़नी होगी।

बच्चों के खिलाफ हो रहे अपराधों की रोक-थाम के लिये प्रत्येक बच्चे की सही-सही पहचान जरूरी है। परिवारों के अलावा हर एक पंचायत, नगर पालिका एवं निगमों आदि संस्थाओं के लिये यह अनिवार्यता होनी चाहिये कि प्रत्येक बच्चे का जन्म पंजीकरण हो। वयस्कों के लिये दिये जाने वाले आधार कार्ड की तरह ही देश के प्रत्येक बच्चे को प्रमाणित पहचान कार्ड जारी किया जाये। जो फैक्ट्री, कार्यशाला, उद्योग, घर, स्कूल, बाल गृह आदि बिना पहचान पत्र के किसी बच्चे को रखते पाये जायें उन पर अलग कानून के अन्तर्गत आपराधिक कार्यवाही हो। जहाँ कहीं सड़कों, फुटपाथों या दूसरी किसी भी सार्वजनिक जगहों पर बिना पहचान के बच्चे पाये जायें उस क्षेत्र के सम्बंधित अधिकारियों व पुलिस के खिलाफ कार्यवाही की जाये।

जब तक हम ठीक प्रकार से यह नहीं जानते कि देश में कितने बच्चे हैं, वे कौन हैं, कहाँ हैं और किस पृष्ठ भूमि के हैं आदि तब तक उनकी हिफाज़त और सुरक्षा भला कैसे की जा सकती है? इसी जानकारी के आधार पर सुनिश्चित हो पायेगा कि कौन से बच्चे चुराये गये हैं, बाल मजदूरी के शिकार हैं, कुपोशण ग्रस्त हैं, अथवा शिक्षा से वंचित हैं, उन्हें किस प्रकार की बीमारियाँ हैं और आखिर उनकी समस्याओं का समाधान कैसे किया जाये। इससे यह भी सुनिश्चित हो सकेगा कि बच्चों के मद में कितने बजट राशि सुनिश्चित की जाये।

चौराहे की लाल बत्ती पर भीख माँगने वाले जिस बच्चे को आप भूखा और नंगा समझकर भीख देते हैं, बहुत सम्भव है कि देश के किसी और हिस्से में उसकी मां सालों से उसकी राह गुहार रही हो। अपने किसी दोस्त या रिश्तेदार के घर में जिस बालिका या किशोरी घरेलू नौकरानी के हाथ का खाना आप स्वाद ले-लेकर खा रहे हों, बहुत सम्भव है कि उड़ीसा, झारखण्ड या असम में उसके माता-पिता बेटी को ढूँढने के लिये दर-दर की ठोकरें खा रहे हों। इस परिप्रेक्ष्य में आवश्यक है कि सभी लोग अपने सामाजिक दायित्य का निर्वहन करते हुये बाल मजदूरों की सेवाओं व उनके द्वारा बनायी गयी वस्तुओं का बहिष्कार करें। ताकि सस्ता श्रम कराने के लिये बच्चों की खरीद-फरोख्त, और उन्हें जानवरों से भी कम कीमत पर खरीदे व बेचे जाने के लिये बच्चों का चुराया जाना रोका जा सके।
कैलाश सत्यार्थी, लेखक ख्याति लब्ध सामाजिक कार्यकर्ता एवं बचपन बचाओ आन्दोलन के संस्थापक हैं।