यह निगोड़ी सत्ता बला ही ऐसी है कि यहां हर कठपुतली अपने ही मदारी को नाच नचाने लगती है। अब मनमोहन सिंह तो पढ़े लिखे अर्थशास्त्री हैं और नरसिंहाराव के साथ रहकर राजसत्ता के गलियारों के सारे दांव पेंच जान चुके हैं।

नरसिंह राव और मनमोहन सिंह में बुनियादी फर्क (The basic difference between Narasimha Rao and Manmohan Singh) यह है कि राव मौनी बाबा थे और बोलने में कम बल्कि दांव चलने में ज्यादा विश्वास रखते थे। जबकि मनमोहन सिंह शिष्ट भाषा में सलीके से घुड़का भी देते हैं और दांव भी चलते हैं

कांग्रेस के युवराज राहुल बाबा की दो सबसे बड़ी चिंताएं कौन सी हैं? सवाल है बहुत बेतुका पर है बहुत पेचीदा।

प्रश्न आम भारतीय के लिए अर्थहीन है लेकिन नेहरू गांधी राजपरिवार के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। पूरा राजपरिवार आजकल इन दो सवालों को हल करने के लिए तमाम गुणा-भाग पर लगा हुआ है। पहला सवाल तो राहुल बाबा की निजी ज़िन्दगी से जुड़ा हुआ है कि वह दूल्हा कब बनेंगे? दूसरा प्रश्न सार्वजनिक है कि राहुल बाबा क्या प्रधानमंत्री बन भी पाएंगे? इस दूसरे प्रश्न का उत्तर राजपरिवार के कठपुतली प्रधानमंत्री (?) डॉ मनमोहन सिंह ने फिलहाल यह कहकर पेचीदा बना दिया है कि वह अभी रिटायर नहीं हो रहे हैं।

देश के चुनिन्दा संपादकों के साथ एक मुलाकात में प्रधानमंत्री ने कहा कि वह अभी रिटायर नहीं हो रहे हैं। वैसे यह हमारे चुनिन्दा संपादक भी गज़ब के लोग हैं। इन्हें मनमोहन सिंह को रिटायर करने और राहुल बाबा को प्रधानमंत्री बनाने की जल्दी क्यों पड़ी है? मनमोहन जाएंगे भी तो आएगा तो कांग्रेसी ही! क्या मनमोहन सिंह को हटाकर राहुल बाबा को प्रधानमंत्री बनाने से देश के किसान आत्महत्या करना बन्द कर देंगे, क्या इससे गरीबी और महंगाई खत्म हो जाएगी, क्या इससे देश की 42 फीसदी गरीबी की रेखा से नीचे रह रहीं कलावतियों और जलवर्षाओं का भाग्य बदल जाएगा? फिर हमारे यह संपादक ऐसा बेतुका प्रश्न क्यों करते हैं जबकि मनमोहन सिंह का अभी कार्यकाल भी बाकी है, पढ़े लिखे भी हैं, पूंजीवादी अर्थशास्त्री भी हैं, वह स्वस्थ भी हैं, माशा अल्लाह नरसिंहाराव और अटल जी की बनिस्बत ज्यादा फुर्तीले भी हैं, फिर उन्हें रिटायर करने की चिंता क्यों है?

बहरहाल प्रधानमंत्री ने इसी बहाने ताल ठोंक दी है और राजपरिवार को बहुत शालीनता के साथ साफ घुड़की दे दी है कि सात रेसकोर्स के सपने देखना फिलहाल बन्द कर दें।

मनमोहन के जबाव से राजपरिवार भौंचक्का है, क्योंकि उसको अपने वफादार प्रधानमंत्री से तो कम से कम ऐसी उम्मीद नहीं थी। जब सोनिया गांधी के महान त्याग (ऐसा त्याग जिसके सामने महात्मा गांधी भी शरमा जाएं) के बाद मनमोहन सिंह को राजपाट सौंपा गया था तब 10 जनपथ के सलाहकारों का मानना था कि किसी ऐसे गैर राजनीतिक व्यक्ति को इस पद पर बैठाया जाए जो गैर-राजनीतिक हो और जिसका जनाधार भी शून्य हो। इसीलिए प्रणव मुखर्जी, एन डी तिवारी और अर्जुन सिंह जैसे योग्य राजनीतिज्ञों को किनारे करके मनमोहन सिंह को खड़ाऊ सौंपी गई थी क्योंकि मनमोहन सिंह दिल्ली के उस इलाके से लोकसभा चुनाव हार चुके थे जहां सबसे ज्यादा पढ़े लिखे लोग रहते हैं और मूलत: वह मुनीम थे। तात्कालिक तौर पर तो दस नम्बरियों का फैसला ठीक था। पर उन्होंने इतिहास से कोई सबक नहीं लिया था। राजीव गांधी की मृत्यु (Rajiv Gandhi's death) के बाद भी कब्र में पैर लटकाए बैठे और लगभग जनाधार विहीन हो चुके नरसिंहाराव को भी इसी योजना के तहत प्रधानमंत्री बनाया गया था कि जब राजपरिवार चाहेगा उनसे राजपाट छीन लिया जाएगा। लेकिन नरसिंहाराव ने ऐसा नाच नचाया कि राजमाता सोनिया गांधी की रूह राजनीति में आने के नाम से ही कांपने लगी। यह निगोड़ी सत्ता बला ही ऐसी है कि यहां हर कठपुतली अपने ही मदारी को नाच नचाने लगती है। अब मनमोहन सिंह तो पढ़े लिखे अर्थशास्त्री हैं और नरसिंहाराव के साथ रहकर राजसत्ता के गलियारों के सारे दांव पेंच जान चुके हैं।

नरसिंहाराव और मनमोहन सिंह में बुनियादी फर्क यह है कि राव मौनी बाबा थे और बोलने में कम बल्कि दांव चलने में ज्यादा विश्वास रखते थे। जबकि मनमोहन सिंह शिष्ट भाषा में सलीके से घुड़का भी देते हैं और दांव भी चलते हैं। अपने पिछले कार्यकाल तक मनमोहन पूरे वफादार बने रहे लेकिन 2009 में दूसरा कार्यकाल शुरू होते ही उन्होंने अपने पैर फैलाना शुरू कर दिए और धीरे धीरे 10 जनपथ के वफादारों को किनारे लगाना शुरू कर दिया। मनमोहन सिंह राजपरिवार के लिए दूसरे नरसिंहाराव साबित होने जा रहे हैं और वह इशारों ही इशारों में राजपरिवार को संदेश दे चुके हैं कि वह सीताराम केसरी नहीं हैं कि जिन्हें बेइज्जत करके कुर्सी छीनी जा सके।

मनमोहन सिंह यह भली -भांति जानते हैं कि उन्हें राजगद्दी भले ही मिली खैरात में है लेकिन किसी रहम पर नहीं बल्कि राजपरिवार ने अपनी मजबूरी में सौंपी है। इसलिए अब वह आसानी से इसे नहीं छोड़ेंगे और पूरी कीमत वसूलेंगे। दरअसल दस नम्बरी चाहते तो थे कि पिछले लोकसभा चुनाव से कुछ पहले ही राहुल बाबा का राजतिलक कर दिया जाए पर तब मनमोहन सिंह अमरीका की मदद से परमाणु करार निकाल लाए और राजपरिवार के लिए गले की हड्डी बन गए। कांग्रेस की मजबूरी बन गई कि अब उन्हें ही राजपाट सौंपा जाए। अब राजपरिवार चाहता है कि मनमोहन सिंह जल्दी से रास्ता साफ करें क्योंकि राहुल बाबा की अब उम्र बढ़ रही है। ऐसे में जल्द से जल्द उनका राजतिलक हो जाना चाहिए। फिर कांग्रेस की जो आर्थिक नीतियां हैं और जो मौजूदा हालात हैं उनमें 2014 में उसकी सत्ता में वापसी संभव नहीं है और अगर 2014 निकल गया तो फिर राहुल बाबा कभी प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगे क्योंकि तब उनके घर के अन्दर भी तूफान उठेगा। कांग्रेसी चिल्लाने लगेंगे "प्रियंका लाओ- कांग्रेस बचाओ।"

मनमोहन सिंह भी यह अच्छी तरह जानते हैं कि अगला चुनाव अब उनके कंधों पर नहीं होगा बल्कि राहुल बाबा के कंधों पर होगा और कांग्रेस की सरकार बने या जाए उन्हें अब लौटकर 7 रेसकोर्स में एन्ट्री नहीं ही मिलनी है। फिर वह आसानी से हाथ आई हुई कुर्सी क्यों गंवा दें? वह कोई अर्जुन सिंह थोड़े ही हैं कि मरते दम तक वफादारी निभाएं?

राजपरिवार की यही सबसे बड़ी चिन्ता है कि अगर 2014 तक मनमोहन सिंह को झेला तो उनके कर्मों का फल राहुल बाबा भोगेंगे। लिहाजा जल्द से जल्द मनमोहन सिंह को विदा किया जाए। ताकि युवराज का कम से कम कम राजतिलक तो हो जाए। फिर अगर 2014 में सत्ता न भी मिली तो भी राजवंश की परंपरा तो जिन्दा रहेगी।

लेकिन समस्या यह है कि मनमोहन सिंह से कुर्सी खाली कैसे कराई जाए? उनकी ईमानदार और कुशल प्रशासक की छवि का निर्माण तो कांग्रेस ने ही किया है! बीमारी का बहाना भी नहीं बनाया जा सकता क्योंकि प्रधानमंत्री अभी चुस्त दुरूस्त हैं। फिर केवल यह तर्क तो नहीं चलेगा कि युवराज अब जवान हो गए हैं और सारा हिन्दुस्तान घूम आए हैं, उन्हें अब विचारधाराओं का भी ज्ञान हो गया है और वह अब दहाड़ सकते हैं कि मार्क्सवाद सड़ी-गली विचारधारा है।

फिर अगर राहुल बाबा के लिए बिना किसी तर्क के कुर्सी खाली कराई जाएगी तो विपक्ष का यह आरोप सच साबित हो जाएगा कि मनमोहन सिंह डमी प्रधानमंत्री थे और असली सरकार तो 10 जनपथ से चलती थी। इसलिए अगर निकट भविष्य में हमारे यह चुनिन्दा वरिष्ठ संपादक और कांग्रेसी कर्णधार मनमोहन सिंह में खोट निकालते नज़र आएं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

वैसे तो राजनीति में कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती लेकिन अगर 2014 से पहले राहुल बाबा का राज्याभिषेक नहीं हुआ तो अपने पीएम इन वेटिंग अडवाणी जी की तरह युवराज भी युवराज ही रह जाएंगे राजा नहीं बन पाएंगे।

अमलेन्दु उपाध्याय