काश, इस बाढ़ में, तबाही में ही सही, सरहदें मिट जाएं... फिर कोई टोबाटेक सिंह की मौत ना मरे।
अभिषेक श्रीवास्तव
किसी भी घटना को देखने-समझने का एक दृष्टिकोण इस सवाल से उपजता है कि उक्‍त घटना का लाभार्थी कौन है। क्‍या यह सवाल हम कश्‍मीर और पाकिस्‍तान में आई बाढ़ के संदर्भ में उठा सकते हैं? सुनने में थोड़ा अमानवीय जान पड़ता है कि "राष्‍ट्रीय आपदा" से लाभ उठाने की बात, वो भी इस वक्‍त में, भला कैसे हो सकती है? कोई लाभ ले या न ले, लेकिन लाभ मिल तो सकता ही है। मसलन, कश्‍मीर घाटी की जनता का दुश्‍मन नंबर एक कौन है? ज़ाहिर है, भारतीय फ़ौज। जिस लगन और जज्‍़बे से फ़ौज ने राहत का काम किया है, उससे एक बड़ा फ़र्क यह पड़ा है कि साठ साल का उसका जबर, उसे मिले विशेषाधिकारों (इम्‍यूनिटी) की आड़ में किए गए सारे 'पाप', धारणा और प्रचार के स्‍तर पर अचानक धुल गए हैं। दूसरे, नई सरकार के राजनीतिक प्रोजेक्‍ट में सबसे बड़ा नासूर क्‍या हो सकता था? ज़ाहिर है, कश्‍मीर। यह नासूर जिस तरह और जिस भी वजह से ऐन मौके पर फूटा है, उसने नई सरकार को reconciliation का एक बहाना मुहैया करवा दिया है। अब कश्‍मीरी मानस की भारत सरकार के साथ दूरियां पहले जैसी नहीं रह जाएंगी। वहां के चुनाव परिणाम शायद इसकी पुष्टि कर सकें।
अब बाढ़ के कारणों पर आइए। भारतीय मीडिया में ज्‍यादा से ज्‍यादा 2010 की बाढ़ नियंत्रण आयोग की उस रिपोर्ट की चर्चा है जिसकी यूपीए सरकार ने उपेक्षा कर दी थी और ज़रूरी इनफ्रास्‍ट्रक्‍चर निर्माण के लिए राज्‍य को अनुदान नहीं दिया था। इसका सीधा आशय यह है कि इस बाढ़ की गुनहगार पिछली यूपीए और मौजूदा जम्‍मू-कश्‍मीर सरकार है। कल रात '10तक' में पुण्‍य प्रसून यही बात "एक्‍सक्‍लूसिव" बैंड से चला रहे थे, जो कि चारों ओर वेबसाइटों पर पहले से मौजूद है। ज़ाहिर है, लाभार्थी फिर से मौजूदा केंद्र सरकार ही हुई। इसके ठीक उलट पाकिस्‍तानी मीडिया में चर्चा ज़ोरों पर है कि भारत में झेलम-चेनाब के बांध और अफगानिस्‍तान में काबुल नदी (जो पाकिस्‍तान पहुंच कर सिंध नदी में मिल जाती है) पर बने बांध (भारत सरकार द्वारा परिचालित) के दरवाज़े जान-बूझ कर ऐसे समय पर खोले गए जिससे बाढ़ आ गई। भारत-अफ़गानिस्‍तान की इस कथित मिलीजुली साजि़श के अलावा कई रिपोर्टों में सीआइए का 'षडयंत्र' भी उजागर किया गया है जिसने अपनी 'हार्प' तकनीक से नकली बाढ़ को पैदा कर दिया। यह रिपोर्ट पहली बार प्रेस में प्रचारित करने वाले ज़ायद हामिद ट्विटर-एफबी पर हास्‍य का विषय बन चुके हैं, हालांकि पाकिस्‍तानी मीडिया में उनके कई संस्‍करण पैदा हो चुके हैं। भारतीय मीडिया में इस थियरी का कोई taker नहीं है क्‍योंकि महज ऐसा कहना ही 'राष्‍ट्रीय आपदा' के वक्‍त राष्‍ट्रद्रोह करार दिया जा सकता है। इसीलिए यह conspiracy theory है।
अब ज़रा पाकिस्‍तान की घरेलू राजनीति को भी देख लीजिए। जैसा अभूतपूर्व कोहराम बीते दिनों वहां मचा था, वह अचानक थम गया है। इमरान-कादरी सीन से गायब हैं। नवाज़ शरीफ़ ने जम्‍हूरियत को 'रीक्‍लेम' कर लिया है। भला कैसे? ज़ाहिर है, बाढ़ के चलते। सरहद के दोनों ओर मारे गए और उजड़ गए लोगों से पूरी सहानुभूति के साथ आप यह भी देखिए कि कैसे एक तीर से कई शिकार किए जा सकते हैं। अब तीर कहां से चला, कैसे चला, तीर आसमानी है, शैतानी है या रूहानी, इससे क्‍या वास्‍तव में कोई फ़र्क पड़ता है?
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अभिषेक श्रीवास्तव, जनसरोकार से वास्ता रखने वाले खाँटी पत्रकार हैं। हस्तक्षेप के सहयोगी हैं।