बाबाओं का देश : सपेरों, मदारियों और बाजीगरों के हवाले अर्थव्यवस्था
पलाश विश्वास
सबसे पहले हम अपने पाठकों और इस देश की आम जनता से माफी चाहते हैं। मौजूदा आपातकालीन हालात में हालात अघोषित सेंसरशिप है और बाकायदा सोशल मडिया की नाकेबंदी है। जो लिंक हम शेयर कर रहे हैं, अव्वल तो वह आप तक पहुंच ही नहीं रहा है और पहुंच भी रहा है तो खुल नहीं रहा है।
जिन प्लेटफार्म के जरिये हम आप तक पहुंचते हैं, वहां भी हमारे लिए सारे दरवाजे और खिड़कियां बंद हैं।
नोटबंदी लागू होने के साथ साथ आम जनता ही नहीं, प्रतिबद्ध पढ़े लिखे एक बड़े तबके को भी यकबयक उम्मीद हो गयी कि देश में पहली बार कालाधन निकालने का चाकचौबंद इंतजाम हो गया है। उनके पुराने स्टेटस इसके गवाह है। बहुत जल्दी उन्हें अपने अनुभवों से मालूम पड़ गया कि ऐसा कुछ होने नहीं जा रहा है।
ऐसे तमाम पढ़े लिखे लोग तीर तरकश संभालकर मैदान में डट गये हैं और चांदमारी पर उतर आये हैं। उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा है कि बाकी आम जनता उनकी तरह न पढ़े लिखे हैं और न काबिल और समझदार हैं।

जो अब भी भक्तिमार्ग पर अडिग हैं। तो उनके ईश्वर के खिलाफ गोलाबारी का मोर्चा खुल गया है।
ईश्वर के खिलाफ अनास्था आम आस्थावान जनता को सिरे से नापसंद हैं और वे किसी दलील पर गौर करने की मानसिकता में नहीं होते।
ऐसे हालात में हकीकत की पूरी पड़ताल के बिना, लोगों से संवाद किये बिना हालात का मुकाबला असंभव है।
प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में पक्ष-विपक्ष के सत्तापक्ष के हितों के मुताबिक बहुत कुछ छप रहा है।
कुल किस्सा आधा सच और आधा झूठ का फसाना है।
आम जनता के लिए क्या सच है, कितना सच और कितना झूठ है, झूठ क्या है, यह सुर्खियों की चीखों से पता करना एकदम असंभव है।
सोशल मीडिया पर संवाद का रास्ता खुल सकता था और वहां भी अघोषित सेंसरशिप है।

हम सिरे से असहाय हैं। हमारा कहा लिखा कुछ भी आप तक नहीं पहुंच पा रहा है।
करीब 45 साल से जिन अखबारों में हम लगातार लिखते रहे हैं, वहां सारे लोग बदल गये हैं और जो लोग अब वहां मौजूद हैं, उनमें अब भी ढेरों लोग हमारे पुराने दोस्त हैं। लेकिन उनमें से कोई हमें छापने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं है। क्योंकि पत्रकारिता अब मिशन नहीं है, बिजनेस है, जिसे सत्ता का संरक्षण और समर्थन की सबसे ज्यादा परवाह है। जनता का पक्ष उनकी कोई वरीयता है ही नहीं क्योंकि उन्हें सिर्फ अपने कारोबारी हितों की चिंता है और वे बेहद डरे हुए हैं।
ऐसे हालात में पैनल चैनल पर हमें कहीं से बुलावा आना भी असंभव है। बाकी सोशल मीडिया पर हम रोजाना रोजनामचा वर्षों से लिख रहे हैं, जो आप तक पहुंच नहीं रहा है। हम शर्मिंदा हैं।
हमारे इलाके में जब से मैं नौकरी के सिलसिले में बंगाल में आया हूं, 1991 से लेकर वाममोर्चा के सत्ता से बेदखल होने से पहले तक बुजुर्ग और जवान कामरेड घर-घर आते जाते थे। इनमें सबसे बुजुर्ग दो कामरेड माणिक जोड़ के नाम से मशहूर थे। वाममोर्चा के सत्ता से बेदखल होने के बाद थोड़े समय के अंतराल में दोनों दिवंगत हो गये।
कामरेड सुभाष चक्रवर्ती के जीवित रहने तक जिले भर में कैडरों का हुजूम जहां तहां दिखता रहता था। तमाम मुद्दों और समस्याओं पर आम जनता से निरंतर संवाद और इसके लिए तैयारी में उनकी दिनचर्या चलती थी।

कामरेड ज्योति बसु के अवसान के बाद बंगाल में कोई कामरेड बचा है या नहीं, मालूम नहीं पड़ता।
पूरे बंगाल में अब संघी सक्रिय हैं। अभी-अभी बंगाल में नवजात बच्चों की अस्पतालों और नर्सिंग होम से व्यापक पैमाने पर तस्करी के मामले खुल रहे हैं, जिसमें प्रदेश भाजपा के संघी अध्यक्ष के खासमखास विधाननगर नगर निगम में भाजपाई उन्मीदवार एक चिकित्सक बतौर सरगना पकड़े गये हैं।
नोटबंदी से एक दिन पहले बंगाल भाजपा के खाते में करोड़ रुपये जमा होने का किस्सा सामने आया तो आसनसोल इलाके में पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा उम्मीदवार और आसनसोल के सांसद केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो के खासमखास कोलकाता के पास विधाननगर में कोयला मापिया के साथ 33 करोड़ के ताजा नोट के साथ पकड़े गये हैं।

कालाधन नये नोट में तब्दील होकर फिर अर्थव्यवस्था में खुलकर आ रहा है और एक हजार के बदले दो हजार के नोट जारी करके कायदा कानून बदलकर इसका चाकचौबंद इंतजाम हो रहा है तो कैशलैस फंडा अलग है।
दीदी ने मोदी के खिलाफ जिहाद का ऐलान कर दिया है और बंगाल में दीदी के सारे समर्थक केसरिया हो गये हैं। वे धुर दक्षिणपंथी हैं और कट्टर वामविरोधी हैं, जो बंगाल में हाल में हुए चुनावों में दीदी मोदी गठबंधन को जिताने के लिए जमीन आसमान एक कर रहे थे।
ये तमाम लोग अब भी मोदी और दीदी का समर्थन कर रहे हैं और दीदी के जिहाद को राजनीतिक नौटंकी मान रहे हैं।
दीदी के समर्थक बहुत ज्यादा हैं, लेकिन उनमें से कोई कार्यकर्ता नहीं है और वे अपने अपने धंधे सिंडिकेट में मशगुल हैं। आम जनता के लिए उनके फरमान तो जारी होते हैं लेकिन आम जनता से किसी का कोई संवाद नहीं है।
सारी राजनीति अखबारों और टीवी के सहारे चल रही है।
वाम नेता भी वातानुकूलित हो गये हैं और उनके बयान सीधे अखबारों, टीवी और सोशल मीडिया से जारी होते रहते हैं।

राजनीति पत्रकारिता में सीमाबद्ध हो गयी है और सारे पत्रकार राजनेता या कार्यकर्ता बन गये हैं।
पत्रकारिता से अलग राजनीति का अता पता नहीं है और न ही राजनीति और सत्ता से अलग पत्रकारिता का कोई वजूद है।
ऐसे माहौल में जिले के एक बड़े कामरेड से आज धोबी की दुकान पर मुलाकात हो गयी, जिनसे नब्वे के दशक में और 2011 तक हमारी घंटों बातचीत होती रहती थी। वे ट्रेड यूनियन आंदोलन में भी खासे सक्रिय हुआ करते थे।
कामरेड सुभाष चक्रवर्ती के खेमे में उनकी साख बहुत थी। उनसे राह चलते दुआ नमस्कार एक मोहल्ले में रहने के कारण अक्सर हो जाती थी। लेकिन बड़े दिनों के बाद उनसे आमना सामना हुआ तो हम उम्मीद कर रहे थे कि वे बातचीत भी करेंगे। वे प्राइवेट सेक्टर में नौकरी करते थे और राजनीतिक सक्रियता में उनकी नौकरी कभी आड़े नहीं आयी।
उनने पहले ही मौके पर वीआरएस ले लिया था।
उनने कोई बात नहीं की तो मैंने पूछ लिया, क्या आप बैंक में थे।
जाहिर है कि वे नाराज हुए और जवाब में कह दिया कि इतने दिनों से आपको यह भी नहीं मालूम। उनका सवाल था कि आप लिखते कैसे हैं।
इस पर मैंने पूछ ही लिया, नोटबंदी के बारे में कुछ बताइये।
वे बोले, मीडिया कुछ भी कह रहा है और आप लोगों को कुछ भी मालूम नहीं है।
मैंने कहा, आप कुछ बताइये।
जबाव में बुजुर्ग कामरेड ने कहा कि मुझे किसी से कुछ लेना देना नहीं है।
गांव हो या शहर, आम जनता और परिचितों से कामरेड इस तरह कन्नी काट रहे हैं, जिन्हें अर्थव्यवस्था के बारे में भी जानकारी होती है।
यह सीधे तौर पर राजनीति का ही अवसान है, वामपंथ का तो नामोनिशां है नहीं।
बिना राजनीतिक कार्यक्रम और संगठन के इस आर्थिक अराजकता का मुकाबला असंभव है जबकि आम जनता को सपेरों, मदारियों और बाजीगरों के करतब से सावन ही सावन दिखा रहा है।
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सपेरों, मदारियों और बाजीगरों के हवाले अर्थव्यवस्था
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