हरिकृष्ण देवसरे के बहाने....

चंचल
वे बाल साहित्य के लिये आये थे और 'बाल दिवस' के ही दिन महा प्रस्थान पर निकल गये (14 नवंबर 2013 )। उन्होंने हिन्दी में जो शोध किया था वह बच्चों के साहित्य पर था उन्होंने कई दर्जन किताबे लिखीं, सब बच्चों के लिये। रेडियो, दूरदर्शन पर जो काम किये वे सब बच्चों को केन्द्र में रख कर। हमारी उनकी मुलाक़ात तब हुयी जब वे बच्चों की पत्रिका 'पराग' के संपादक हो कर आये। उन दिनों हम पराग में ही थे यहाँ हम विषयान्तर कर रहे हैं।
'पराग' टाइम्स घराने की पत्रिका रही और बच्चों से लेकर बड़ों तक इसे चाव से पढ़ते थे। यह वह दौर है जब टाइम्स घराना अपना निजाम बदल रहा था। नयी पीढ़ी आ चुकी थी। अशोक जैन, रामाजी जैन विदा हो रहे थे। उनकी जगह आ रहे थे समीर जैन, ऋचा जैन, रमेश जैन। जिन्होंने बहुत मेहनत मशक्कत से टाइम्स घराने के ताने-बाने को कस कर बनाया हुआ था, उन्हें हाशिये पर डाल दिया गया था। एक नयी सोच लेकर 'बच्चे' उत्साहित थे लेकिन उन्हें लगा कि जब तक 'स्थापित' नामों को हटाया नहीं जायेगा तब तक उनकी मनमानी नहीं चल पायेगी। पहला काम हुआ कि 'सारिका' से कमलेश्वर को हटाने का। तरीका एक ही है उसे बंबई से दिल्ली कर दिया जाये। वही हुआ और कमलेश्वर जी ने, जिन्होंने बंबई में अपनी जड़ें जमा ली थीं, ने दिल्ली आने से मना कर दिया। 'माधुरी' हिन्दी एक मात्र सिनेमा पत्रिका से अरविन्द जी को हटना पड़ा और बाद में उसे भी बन्द कर दिया गया। इलस्ट्रेटेड वीकली से खुशवंत जी पहले ही बाहर आ गये थे। धर्मवीर भारती 'धर्मयुग' से रिटायर हो चुके थे। मामला बड़ा गड्ड-मड्ड हो चुका था। दिनमान के सम्पादक बनाये गये कन्हैया लाल नंदन नंदन जी को मालूम था कि उनके मातहत होकर सर्वेश्वर जी काम नहीं करेंगे। इस लिये सर्वेश्वर जी को पराग का संपादन सौपा गया। यहाँ एक और दिलचस्प घटना घटी।

एक दिन सर्वेश्वर जी ने हमसे कहा कि मैं पराग में आ जाऊँ। हमने कहा जो भी काम हो बताइये, हम तो हैं ही। बोले नहीं तुम्हारा नाम 'पराग' में जायगा, वह भी एक कार्टूनिस्ट की हैसियत से। हम वाकई तैयार नहीं थे, लेकिन उनकी बात भी नहीं टाल सकता था। अचानक पर्सनल डिपार्टमेंट से हमें सन्देश मिला कि आज ग्यारह बजे आपका इंटरव्यू है। मैं पहुँचा। उन दिनों टाइम्स एक फ़ार्म भरवाता था जिसमें एक कॉलम होता था कि आप कितनी 'तनख्वाह' तक में काम करने को तैयार हैं ? हाँ, मैंने उसमें छःह हजार लिखा (उन दिनों संपादक की भी तनखाह इतनी नहीं करती थी)। अंदर गया। मुख्य कुर्सी पर रमेश चंद जैन बैठे थे, बाकियों को हम नहीं पहचानते थे। सारी तक-झक तनख्वाह को लेकर हुयी। रमेश जी ने सर्वेश्वर जी से फोन पर बात की और फोन हमें हमें पकड़ा दिया। सर्वेश्वर जी ने कहा - पंडित जी आप दस्तखत कर के चले आइये। हमने वही किया और पराग में आ गया।
एक साल बाद अचानक सर्वेश्वर जी का निधन हो गया और उनकी जगह आये डॉ. हरेकृष्ण देवसरे। हम उनसे परचित नहीं थे और हमने नौकरी छोड़ने का मन बना लिया। उन्हीं दिनों हमारी दोस्त रंगमंच की एक बड़ी कलाकार दीपा साही जो आजकल केतन मेहता से शादी करने के बाद दीपा मेहता के नाम से जानी जाती हैं और फ़िल्मी दुनिया की बड़ी हस्ती हैं, टाइम्स में ऋचा जैन की सलाहकार होकर आ गयी थीं। उनसे हमने कहा कि यार, अब हम नौकरी नहीं करेंगे। बहरहाल दीपा और ऋचा ने हमें बुला कर आश्वस्त किया कि कोइ दिक्कत नहीं होगी।
दूसरे दिन देवसरे जी ने हमें बुलाया और लम्बी बातचीत हुयी। फिर हम दोनों के बीच बड़े अच्छे रिश्ते बने और आखिर तक रहा। उनका इस तरह से जाना अखर रहा है।
उन्हीं देवसरे जी को उन तमाम बच्चों की तरफ से पुष्पांजलि अर्पित करता हूँ जिनके लिये वे आजीवन लिखते रहे।
नमन