अचानक जिंदगी बिना मकसद हो गयी है।
मेरे अपढ़, किसान, अस्पृश्य, शरणार्थी पिता ने जो समता और सामाजिक न्याय की मशाल मुझे सौंपी थी, वह मशाल हाथ से फिसलती चली जा रही है और मैं बेहद बेबस हूं।
यह मुक्तिबोध के सतह से उठता आदमी की कथा भी नहीं है।
मैं तो सतह पर भी नहीं रहा हूं। सतह से बहुत नीचे जहां पाताल की शुरुआत है, वहां से यात्रा शुरु की मैंने और अपने ऊपर के तमाम पाथरमाटी की परतों को काट काटकर जमीन से ऊपर उठने का मिशन में लगा रहा था मैं। अब वह मिशन फेल है। मैं कहीं भी नहीं पहुंच पाया और जिंदगी ने जो मोहलत दी थी, वह छीजती चली जा रही है।
बिना मकसद जीवनयापन प्रेमहीन दांपत्य की तरह ग्लेशियर में दफन हो जाना है। प्रेमहीन दांपत्य का विषवृक्ष दस दिगंतव्यापी वटवृक्ष है अब और वह फूलने फलने लगा है खूब। हवाओं और पानियों में उस जहर का असर है और हम कोई शिव नहीं है कि सारा हलाहल पान करके नीलकंठ बन जाये।
हमारे हिस्से में कोई अमृत भी नहीं है।
यह मुक्त बाजार स्वजनों के करोड़ों करोड़ों की जनसंख्या में हमें अकेला निपट अकेला चक्रव्यूह में छोड़ कार्निवाल में मदमस्त है और हमारे चारों तरफ बह निकल रही खून की नदियों से लोग बेपरवाह हैं।
पिता ने हमें मिशन के लिए जनम से तैयार किया क्योंकि वे जानते थे कि बाबासाबहेब जो मिशन पूरा नहीं कर सकें, वह मिशन उनकी जिंदगी में पूरा तो होने से रहा और न जाने कितनी पीढ़ियां खप जानी हैं उस मिशन को अंजाम तक पहुंचाने के लिए।
हमारे लिए संकट यह है कि पिता तो अपनी मशाल हमें थमाकर घोड़े बेचकर सो गये हमेशा के लिए, लेकिन हमारे हाथ से वह मशाल फिसलती जा रही है और आसपास, इस धरती पर कोई हाथ आगे बढ़ ही नहीं रहा है, जिसे यह मशाल सौंपकर हम भी घोड़े बेचकर सोने की तैयारी करें।
पीढ़ियां इस कदर बेमकसद हो जायेंगी, सन 1991 से पहले कभी नहीं सोचा था।
पिता ने बहुत बड़ी गलती की कि वे सोचते थे कि हम पढ़ लिखकर स्वजनों की लड़ाई लड़ते रहेंगे।
उनकी क्या औकात, जो एकच मसीहा बाबासाहेब थे, वे भी सोचते थे कि बहुजन समाज पढ़ लिख जायेगा, अज्ञानता का अंधकार दूर हो जायेगा तो उनका जाति उन्मूलन का एजंडा पूरा होगा और उनके सपनों का भारत बनेगा।
ऐसा ही सोचते रहे होंगे हरिचांद गुरुचांद ठाकुर, बीरसा मुंडा और महात्मा ज्योति बा फूले और माता सावित्री बाई फूले। हमारे तमाम पुरखे।
नतीजा फिर वही विषवृक्ष है जो जहर फैलाने के सिवाय कुछ भी नहीं करता है।
बाबासाहेब ने फिर भी हारकर लिख दिया कि पढ़े लिखे लोगों ने हमें धोखा दिया।
जाहिर है कि हमारे पिता न बाबासाहेब थे और न हम बाबासाहेब की चरण धूलि के बराबर है। लेकिन हम लोग, पिता पुत्र दोनों बाबासाहेब के मिशन के ही लोग रहे हैं और वह मिशन खत्म है।
ऐसा हमारे पिता नहीं सोचते थे। लाइलाज रीढ़ के कैंसर को हराते हुए आखिरी सांस तक अपने मकसद के लिए वे लड़ते चले गये।
पिता की गलती रही कि नैनीताल में इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए मालरोड किनारे होटल के कमरे में मुकम्मल कंफोर्ट जोन में जो वे मुझे डाल गये, संघर्ष के पूरे तेवर के बावजूद हम दरअसल उसी कंफोर्ट जोन में बने रहे। वही हमारी सीमा बनी रही। जिसे हम तोड़ न सके।
हम जनता के बीच कभी नहीं रहे।
जनता के बीच न पहुंच पाने की वजह से जनता से संवाद हमारा कोई नहीं है और न संवाद की कोई स्थिति हम गढ़ सके।
तो हालात बदल देने का जो जज्बा मेरे पिता में उनकी तमाम सीमाओं और बीहड़ परिस्थितियों के बावजूद था, उसका छंटाक भर मेरे पास नहीं है।
अब जब कंफोर्ट जोन से निकलने की बारी है और अपने सुरक्षित किले से गोलंदाजी करते रहने के विशेषाधिकार से बेदखल होने जा रहा हूं तो बदले हालात में अचानक देख रहा हूं कि मेरे लिए अब करने को कुछ बचा ही नहीं है।
युवा मित्र अभिषेक श्रीवास्तव ने सही कहा है कि बेहद बेहद बेचैन हूं। उसके कहे मुताबिक दो दिनो तक न लिखने का अभ्यास करके देख लिया। लेकिन सन 1973 से से जो रोजमर्रे की दिनचर्या है, उसे एक झटके से बदल देना असंभव है।
हां, इतना अहसास हो रहा है कि आज तक आत्ममुग्ध सेल्फी पोस्ट करके जो मित्र हमें सरदर्द देते रहे हैं, उनसे कम आत्ममुग्ध मैं नहीं हूं।
साठ और सत्तर के दशक में हमने सोचा कि लघु पत्रिका आंदोलन से हम लोग हिरावल फौज खड़ी कर देंगे। हिरावल फौज तो बनी नहीं, नवउदारवाद का मुक्तबाजार बनने से पहले वह लघु पत्रिका आंदोलन बाजार के हवाले हो गया। विचारधारा हाशिये पर है।
नब्वे के दशक में इंटरनेट आ जाने के बाद वैकल्पिक मीडिया के लिए नया सिंहद्वार खुलते जाने का अहसास होने लगा।
मुख्यधारा में तो हम कभी नहीं थे। हमारी महात्वाकांक्षा उतनी प्रबल कभी न थी।
हमने जो रास्ता चुना, वह भी कंफोर्ट जोन से उलट रहा है।
जीआईसी में जब मैं आर्ट्स में दाखिले के लिए पहुंचा तो दाखिला प्रभारी हमारे गुरुजी हरीशचंद्र सती ने कहा कि तुम्हारा जो रिजल्ट है तुम साइंस या बायोलाजी लेकर कैरीयर क्यों नहीं बनाते। तब हमने बेहिचक कहा था कि मुझे साहित्य में ही रहना है।
जिन ब्रह्मराक्षस ने हमारी जिंदगी को दिशा दी, वे हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी भी चाहते थे कि मैं आईएएस की तैयारी करूं तो पिता चाहते थे कि वकालत मै करुं।
हमने कोई वैसा विकल्प चुनने से मना कर दिया और जो विकल्प मैंने चुना, वह मेरा विकल्प है और इस विकल्प के साथ मेरी जो कुकुरगति हो गयी, उसके लिए मैं ही जिम्मेदार हूं। इसका मुझे अफसोस भी नहीं रहा।
एक मिथ्या जो जी रहा था कि हम लोग मिशन के लिए जी रहे हैं, उसका अब पर्दाफाश हो गया है।
हमारे जो मित्र सेल्फी पोस्ट करके अपनी सर्जक प्रतिभा का परिचय दे रहे हैं, हम भी कुल मिलाकर उसी पांत में है।
दरअसल मुद्दों को संबोधित करने के बहाने हम सिर्फ अपने को ही संबोधित कर रहे थे, जो आत्मरति से बेहतर कुछ है ही नहीं।
तिलिस्म में हम खुद घिरे हुए हैं और इस तिलिस्म के घहराते हुए अंधियारे में लेखन के जरिये रोशनी दरअसल हम अपने लिए ही पैदा कर रहे हैं, जिनके लिए यह रोशनी पैदा कर रहे हैं, सोचकर हम मदमस्त थे अब तक, वह रोशनी उन तक कहीं भी, किसी भी स्तर पर पहुंच नहीं रही है।
चार दशक से हम भाड़ झोंकते रहे हैं और सविता बाबू की शिकायत एकदम सही है कि हम अपने लिए, सिर्फ अपने लिए जीते रहे हैं और आम जनता की गोलबंदी के सिलसिले में कुछ भी कर पाना हमारी औकात में नहीं है।
बर्वे साहेब ने भी मना किया है बार-बार कि इतना लोड उठाने की जरुरत नहीं है।
हम जनता के मध्य हुए बिना अपने पिता का जुनून जीते रहे हैं। दरअसल हमने कहीं लड़ाई की शुरुआत भी नहीं की है। लड़ाई शुरु होने से पहले हारकर मैदान बाहर हैं हम और अचानक जिंदगी एकदम सिरे से बेमकसद हो गयी है।
अब जीने के लिए लिखते रहने के अलावा विकल्प कोई दूसरा हमारे पास नहीं है। वह भी तब तक जबतक हस्तक्षेप में अमलेंदु हमें जिंदगी की मोहलत दे पायेंगे। फुटेला तो कोमा में चला गया है और उसके स्टेटस के बारे में कोई जानकारी नहीं है। बाकी सोशल मीडिया में भी हम अभी अछूत ही हैं।
जो हम लगातार अपने लोगों तक आवाज दे रहे हैं, हम नहीं जानते कि कितनी आवाज उन तक पहुंचती है और कितनी आवाजें वे अनसुना कर रहे है। लोग टाइमलाइन तक देखते नहीं हैं।
फिर भी यह तय है कि 1991 से जो हम लगातार सूचनाओं को जनता तक पहुंचाने का बीड़ा उठाये आत्ममुग्ध जिंदगी जी रहे थे, उन सूचनाओं से किसी का कुछ लेना देना नहीं है।
अभिषेक का कहना है कि आप कुछ दिनों तक सारी चीजों से अपने को अलग करके चैन की नींद सोकर देखे तो नींद से जागकर देखेंगे कि भारत अभी हिंदू राष्ट्र बना नहीं है।
अभिषेक हमसे जवान है। हमसे बेहतर लिखता है। हमसे बेहतर तरीके से परिस्थितियों को समझता है। उसका नजरिया अभी नाउम्मीद नहीं है। यह बेहद अच्छा है कि युवातर लोगों ने उम्मीदें नहीं छोड़ी हैं।
हमारे युवा मित्र अभिनव सिन्हा का मुख्य आरोप हमारे खिलाफ यह है कि मैं वस्तुवादी हूं नहीं और मेरा नजरिया भाववादी है। सही है कि यह मेरा स्थाई भाव है।
उम्मीद है कि हमारे युवा लोग हमारी तरह नाउम्मीद न होंगे। शायद लड़ाई की गुंजाइश अभी बाकी भी है।
हम लेकिन इसका क्या करें कि हमें तो लगता है कि भारत अब मुक्म्मल हिंदू राष्ट्र है और हिंदुत्व के तिलिस्म को तोड़ने का कोई हथियार फिलहाल हमारे पास नहीं है।
हमारी बेचैनी का सबब यही है।
पलाश विश्वास