मांझी सिर्फ सवर्ण समाज ही नहीं, खुद सामाजिक न्याय के बड़े-बड़े सूरमाओं के आँखों की किरकिरी बन गए हैं।
गत दो महीने में एक नए अवतार में उभरे मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की छाया बिहार की राजनीति पर तेजी से दीर्घ से दीर्घतर होती जा रही है। इससे उनके विरोधी पक्ष में हताशा का भाव घर कर गया है, इसका संकेत नए साल की कुछ घटनाओं में स्पष्ट रूप से पाया जा सकता है। पहली घटना पांच जनवरी की है, जब जनता की समस्याएं सुन रहे मुख्यमंत्री मांझी पर जूता उछाला गया। इस घटना को मीडिया ने कितना गुरुत्व दिया और किस रूप में प्रस्तुत किया इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश में सर्वाधिक पढ़े जाने वाले दिल्ली के एक अखबार ने इसकी रिपोर्ट बहुत खास तरीके से प्रकाशित की। उसके बहुत ही महत्वपूर्ण पृष्ठ पर छपी उस रिपोर्ट का आधा हिस्सा जूते फेंकने वाले युवक के तस्वीर से भरा पड़ा था। तस्वीर लगभग क्लोज अप में ली गयी थी, जिससे उसका चेहरा बहुत ही स्पष्ट रूप से उभर कर आया था। जबकि उसे पकड़ने वाले पुलिस कर्मी हिंदी फिल्मों के एक्स्ट्रा चरित्रों की भांति पृष्ठ में चले गए थे, जिनके चेहरे का भाव पढ़ना कठिन लग रहा था। अखबार की पूरी कवायद उस लड़के को हीरो की तरह प्रस्तुत करने की थी जिसमें वह सफल रहा। आर्यन कलर के चेहरे वाले युवक के चेहरे पर न तो कोई ग्लानिबोध था और न ही भय का, चेहरे से एक विजयी भाव झलक रहा था। वैसे मीडिया ने तो जूते फेंकने वाले को तो हीरो बनाया, पर घटना का सही निहितार्थ उस पर आई प्रतिक्रियाओं में देखा जा सकता है। इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए देश की सबसे बड़ी पार्टी के तरफ से कहा गया कि हम इसका समर्थन नहीं करते लेकिन इस घटना में मांझी के खिलाफ समाज में पनपते आक्रोश का प्रतिबिम्बन हुआ है। उधर जूता फेंकने वाले युवक का आरोप है कि मांझी जाति की राजनीति कर रहे हैं और युवाओं को आतंकी बनने की राह पर ठेल रहे हैं।

देश की सबसे बड़ी पार्टी इस के इस बयान पर बहुतों को आपत्ति हो सकती है कि यह मांझी के खिलाफ समाज के आक्रोश का प्रतिफल है। क्योंकि देश के बहुसंख्य वंचित समाजों में तो माझी को लेकर अभूतपूर्व उत्साह है, आक्रोश बस मात्र एक समाज विशेष में है। ऐसे में इस लेखक को उस पार्टी का बयान बहुत ही नैसर्गिक लगा। कारण, यदि कोई भी व्यक्ति नए सिरे से सम्पूर्ण भारतीय चिंतन का सिंहावलोकन करे तो पाएगा कि सदियों से ही भारत की सभी समस्यायों की विवेचना एक खास समाज को ही ध्यान में रखकर की गयी हैं। इसी समाज को दृष्टिगत रखकर विपुल वैदिक साहित्य सृष्ट हुआ। यही समाज ही आधुनिक भारत के राजा राममोहन राय-बंकिम-रवि जैसे महान मनीषियों तक के लिए देश रहा। इसी समाज को ध्यान में रखकर देश का स्वाधीनता संग्राम लड़ा गया। स्वाधीन भारत के योजनाकारों ने भी देश के सम्पूर्ण विकास का नक्शा इसी समाज को ध्यान में रखकर तैयार किया। मांझी के बयानों और कामों से आक्रोश सिर्फ इसी समाज विशेष में है, जो आज भी खुद को ही देश मानने की मानसिकता से नहीं उबर पाया है। उन पर जूता फेंकने वाला लड़के के अवचेतन में भी यह समाज विशेष ही देश और समाज हैं इसलिए उसने उन पर युवाओं को आतंकी बनाने का आरोप लगाया है।

देश के बहुपठित अखबार ने जूता फेंकने वाले की तस्वीर महत्व के साथ इसलिए छापी है कि उसकी नज़रों में भी वह समाज विशेष ही देश हैं जिसके हित में एक अंजान युवक ने वीरोचित कार्य अंजाम देकर देश का मार्गदर्शन किया ।

बहरहाल सदियों से ही इस देश के साधु-संतों, लेखक-कलाकारों, राष्ट्रभक्तों इत्यादि के चिंता का केंद्र जो देश रहा है, संवैधानिक पद पर रहते हुए भी उस देश–समाज को मांझी ने अभूतपूर्व ऐतिहासिक अंदाज में चुनौती पेश की है। भारत में वर्ण-व्यवस्था के वंचितों(दलित-आदिवासी-पिछड़ों) के हित में कुछ करना/कहना मुख्यधारा के समाज की मीडिया और बुद्धिजीवियों द्वारा जातिवाद के रूप में निन्दित होता रहा है। कभी यह काम माया-मुलायम, लालू-पासवान खूब किया करते थे। किन्तु उनके जाति-मुक्त दिखने की सफल कवायद के बाद मांझी द्वारा यह जिम्मेवारी खुद अकेले ले लेने के बाद पिछले दो महीनों से सदियों के वंचितों के मन में मुक्ति की चाह नए सिरे से करवट ले रही है। उनकी चाह से प्रभुवर्ग के लोग अनजान नहीं हैं। उन्हें लगता है कि मांझी यदि नहीं सुधरे तो देश और समाज संकट में पड़ जायेगा। इसलिए वे देश-द्रोही मांझी के खिलाफ शहीदी मुद्रा अख्तियार कर रहे हैं। किन्तु मांझी सिर्फ सवर्ण समाज ही नहीं, खुद सामाजिक न्याय के बड़े-बड़े सूरमाओं के आँखों की किरकिरी बन गए हैं।

राजनीति के पंडितों के अनुसार भाजपा से टूट के बाद जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर खेला गया ट्रम्प कार्ड अब जदयू को परेशान करने लगा है। लिहाजा अब मांझी से छुटकारा पाने की तैयारी तेज हो चुकी है। जदयू और राजद के शीर्ष नेतृत्व के बीच इसको लेकर चर्चा भी शुरू हो गयी है। दिल्ली के सर्द माहौल में 7 जनवरी को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और लालू-शरद की मुलाकात से राजनीति के जानकार लोगों को लग रहा है कि मांझी की रुखसती की पटकथा तैयार होने लगी है। सूत्रों के मुताबिक इस पटकथा में नीतीश कुमार को फिर से मुख्यमंत्री और लालू प्रसाद यादव की पुत्री डॉ. मीसा भारती को उप-मुख्यमंत्री बनाने का फार्मूला तैयार किया जा रहा है।

किन्तु मांझी को बिहार की राजनीति में चल रही हलचल का अंदाज है इसलिए वे विपक्षियों के हमलों और सजिशों से बेपरवाह अपनी धुन में आगे बढ़े जा रहे हैं। उन्हें पता है कि पिछले दो महीनों में उन्होंने जो काम किया है दलित, आदिवासी पिछड़ों सहित तमाम परिवर्तनकामी शक्तियां धीरे –धीरे उनके पीछे लामबंद हो रही हैं। इससे उनके बॉडी लैंग्वेज में दिन ब दिन बदलाव आता जा रहा है। इसीलिए जिस दिन उनकी ओर जूता उछाला गया, आत्मविश्वास से भरे मांझी ने उनकी लगातार तरफदारी कर रहे नक्सलियों के लेवी वसूली का भी समर्थन कर दिया है। उसी दिन उन्होंने क्रिकेटीय भाषा में अपनी उपस्थित का अहसास कराते हुए कह दिया कि नीतीश टीम के कप्तान है, पर बैटिंग मैं कर रहा हूँ। जबतक आउट नहीं होता हूँ किसी और के लिए चांस नहीं है। गैर-भाजपाई सामाजिक न्याय की राजनीति में उनकी अपरिहार्यता को देखते हुए अब खुलकर कर उनकी ही सरकार के कई मंत्री उनके पक्ष में मुखर हो उठे हैं। उन्हें लगता है अब मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटाना आगे की सामाजिक न्याय की राजनीति के लिए आत्मघाती कदम होगा। उनके हटाये जाने की सम्भावना को देखते हुए सोशल मीडिया पर भी उनके समर्थन की नए सिरे से बाढ़ आई है। लोग फेसबुक और दूसरे सोशल साइट्स पर खुलकर कर सन्देश दे रहे हैं कि मांझी को सामने रखकर ही प्रचंड शक्तिशाली भाजपा का मुकाबला किया जा सकता है। बिना उनके अब सामाजिक न्याय की राजनीति को पूरी तरह से दम तोड़ने से बचाना भी मुश्किल होगा। मांझी के समर्थन में उठ रही आवाजों का इल्म शायद उनको हटाने वालों को हो गया है इसीलिए 9 जनवरी को लालू यादव के तरफ से यह बयान आ गया- ‘कुछ गंदे लोग मुख्यमंत्री को हटाने का दुष्प्रचार कर रहे हैं, जबकि ऐसी कोई बात नहीं है ‘।
एच. एल. दुसाध
एच. एल. दुसाध, लेखक प्रख्यात बहुजन चिंतक व बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।