बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों को सामाजिक न्याय की जीत बताना भी सरलीकरण
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों को सामाजिक न्याय की जीत बताना भी सरलीकरण

बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों पर उत्साहित बुदि्जीवियों को नवसाम्राज्यवाद के खिलाफ निर्णायक संघर्ष छेड़ना चाहिए।
बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम पर सोशलिस्ट पार्टी का बयान
The intellectuals who are excited about the results of the Bihar Assembly elections should wage a decisive struggle against neo-imperialism.
Socialist Party statement on Bihar Assembly election result
नई दिल्ली, 11 नवंबर 2015। सोशलिस्ट पार्टी ने कहा है कि बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों (Bihar assembly election results) को सामाजिक न्याय की जीत (Victory of social justice) बताना भी सरलीकरण है। चुनाव में दलित-पिछड़ी जातियों के वोटों की गोलबंदी से राजनीतिक सत्ता हासिल करना सामाजिक न्याय की राजनीति (Politics of social justice) का महत्वपूर्ण रणनीतिक पक्ष है, लेकिन तभी जब इस तरह से हासिल की गई राजनीतिक सत्ता नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ हो और संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों के मुताबिक सामाजिक न्याय की पूर्णता की ओर बढ़े।
सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष भाई वैद्य ने आज पार्टी का आधिकारिक वक्तव्य जारी किया जो निम्नवत् है-
सोशलिस्ट पार्टी बिहार विधानसभा चुनाव में अपने उम्मीदवारों को वोट देने वाले बिहार राज्य के मतदाताओं का आभार व्यक्त करती है। उनका वोट स्वतंत्रता संघर्ष, भारत के समाजवादी आंदोलन और भारत के संविधान की साझी विरासत के हक में दिया गया वोट है। सोशलिस्ट पार्टी इसी विरासत के आधार पर नवउदारवादी और सांप्रदायिक ताकतों के गठजोड़ का विकल्प खड़ा करने के लिए कृतसंकल्प है।
सोशलिस्ट पार्टी बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों का स्वागत करती है। मुलायम सिंह अगर महागठबंधन में शामिल रहते तो यह जीत और दमदार हो सकती थी। लोकसभा चुनाव के समय भी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों द्वारा गठबंधन बना लिया जाता तो नतीजा अलग हो सकता था। इसके साथ ही सोशलिस्ट पार्टी देश के नागरिकों से नवउदारवादी और सांप्रदायिक ताकतों के गठजोड की प्रचलित राजनीति पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की अपील करती है। यह अच्छी बात है कि बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की जीत से बुदि्धजीवियों ने राहत महसूस की है। लेकिन सामान्य जनता, खास तौर पर अल्पसंख्यकों को इससे वास्तविक और स्थायी राहत नहीं मिलने जा रही है। सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि बिहार विधानसभा चुनाव नतीजों को सांप्रदायिकता के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता की जीत बताना सरलीकरण है।
आजादी के संघर्ष के समय से ही भारत का इतिहास बताता है कि सांप्रदायिकता का नंगा नाच बीच-बीच में तबाही लाता रहा है। सांप्रदायिकता के चलते देश का विभाजन हुआ जिसमें दस लाख से ज्यादा नरसंहार हुआ और गांधी जी की हत्या हुई। आजाद भारत में भी हजारों लोग सांप्रदायिक दंगों में मारे गए हैं। इनमें बडी संख्या अल्पसंख्यकों की है, चाहे वे मुसलमान हों या 1984 के दंगों में मारे गए सिख हों। आरएसएस-भाजपा का सांप्रदायिक चरित्र और उसके अभी के सर्वोच्च नेता नरेंद्र मोदी की सांप्रदायिक फासीवादी मानसिकता एक खुली सच्चाई है। यह सच्चाई भी खुल कर सामने आ चुकी है कि वे सत्ता हासिल करने के लिए और सत्ता मिलने पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयासों में किसी भी हद तक जा सकते हैं। यह सच्चाई भी सबके सामने है कि नवउदारवाद के पिछले तीन दशकों में आरएसएस-भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति को बडी सफलता मिली है। उसने समाज में गहराई तक सांप्रदायिकता के बीज बोए हैं। बिहार में भी सांप्रदायिकता गहराई से पैठ बना चुकी है। लोकसभा चुनाव में उसने 40 में से 31 सीटें जीती थीं और इस चुनाव में भी उसे खासा वोट मिला है। वह कांग्रेस को पराभूत करके देश में पहले नंबर की राष्ट्रीय पार्टी बन गई है।
बिहार के नीतीश कुमार समेत प्रायः सभी राज्यों के क्षत्रपों ने आरएसएस-भाजपा को सफलता के शिखर पर पहुंचाने में कम-ज्यादा भूमिका निभाई है। इससे भारत की धर्मनिरपेक्ष राजनीति की कमजोरी की सच्चाई अपने आप खुल कर सामने आ जाती है। लेकिन धर्मनिरपेक्षतावादी इस सच्चाई से आंख चुरा कर इस या उस चुनावी जीत में धर्मनिरपेक्षता की जीत का उत्सव मनाने लगते हैं।
सोशलिस्ट पार्टी के मुताबिक इन नतीजों को सामाजिक न्याय की जीत बताना भी सरलीकरण है। चुनाव में दलित-पिछडी जातियों के वोटों की गोलबंदी से राजनीतिक सत्ता हासिल करना सामाजिक न्याय की राजनीति का महत्वपूर्ण रणनीतिक पक्ष है। लेकिन तभी जब इस तरह से हासिल की गई राजनीतिक सत्ता नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ हो और संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों के मुताबिक सामाजिक न्याय की पूर्णता की ओर बढे। सरकार की नीतियां संविधान के मूलभूत मूल्यों – लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता – के आधार पर बनाई जाएं, न कि विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन और देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों के आदेश पर।
यह एक महत्वपूर्ण संकेत है कि लोकसभा चुनाव में कारपोरेट राजनीति के बडे खिलाडी नरेंद्र मोदी का चुनाव प्रचार लिखने वाले शख्स ने नीतीश कुमार का चुनाव प्रचार भी तैयार किया। नीतीश कुमार कारपोरेट राजनीति के ही एक खिलाडी नहीं हैं तो उन्हें मोदी सरकार के विदेशी निवेश के कानूनों में और ज्यादा ढील देने के कम से कम हाल में लिए गए फैसलों को निरस्त कराने का संघर्ष छेडना चाहिए। भारत की शिक्षा को डब्ल्यूटीओ के चंगुल से बाहर निकालने के संघर्ष को अपना पूरा समर्थन देना चाहिए। नेताओं और कारपोरेट घरानों द्वारा देश के संसाधनों की खुली लूट को चुनौती देनी चाहिए। बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों पर उत्साहित बुदि्जीवियों को नवसाम्राज्यवाद के खिलाफ निर्णायक संघर्ष छेड़ना चाहिए।
विकास के नाम पर बेतहाशा बढती मंहगाई, बेरोजगारी, विस्थापन, किसानों की आत्महत्याएं और छोटे उद्यमियों-व्यापारियों के हितों पर चोट वर्तमान सरकार में भी जारी है। मोदी के झूठे वादों की पोल खुल चुकी है। लोग जान चुके हैं कि मोदी कारपोरेट घरानों के ‘प्रधान सेवक’ हैं। लिहाजा, जनता का आक्रोश केंद्र सरकार के खिलाफ बढ रहा है। आरएसएस-भाजपा असली मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाने के लिए सांप्रदायिक भावनाएं भडकाने का काम करते रहेंगे। यदि नवसाम्राज्यवादी शिकंजे को खत्म करने का बडा संघर्ष समाज में चलेगा तो सांप्रदायिकता की जगह कम होती जाएगी।


