महेश राठी
मुक्त बाजार व्यवस्था के दौर में जब अर्थव्यवस्था के विकास की तेज गति के दावे किए जा रहे हैं तो यह भी इस विकास की विडम्बना ही कही जाएगी कि विश्व पटल पर भारतीय स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था भयावह अराजकता एवं अव्यवस्था का शिकार बनती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार देश में नौ लाख से भी अधिक लोग हर साल पानी से पैदा होने वाले रोगों के कारण मौत का शिकार होते हैं। वहीं देश के बच्चों की आधी आबादी कुपोषण का शिकार है जिसमें से लगभग 56 लाख प्रतिवर्ष मौत का ग्रास बनते हैं और यह दुनिया में कुपोषण से होने वाली मौतों का आधा हिस्सा है। पांच लाख लोग हर वर्ष तपेदिक का शिकार होकर मरे जाते हैं। एक लाख माताएं हर साल प्रसव के समय मौत का शिकार होती हैं। पांच करोड़ अस्सी लाख मधुमेह के रोगियों के साथ भारत मधुमेह की विश्व राजधानी बनने की ओर अग्रसर है। मलेरिया, हैजा और डेंगू जैसी महामारियों से मरने वाले लोगों की संख्या भी काफी बड़ी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार जहां देश में बीस से तीस लाख लोग एड्स जैसी महामारी का शिकार हैं, वही 2005 की एक रिपोर्ट कहती है कि 52 से 57 लाख लोग एचआईवी वायरस से पीड़ित हैं। वर्तमान में दुनिया की एक महाशक्ति बनने का दंभ भरने वाले भारत की उपलब्धियां यदि स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में देखें तो इसमें लगातार विफलता ही उसकी एकमात्र उपलब्धि कही जाएगी। दरअसल यह हमारी लचर स्वास्थ्य सेवाओं और सरकार की बदलती हुई प्राथमिकताओं का परिणाम है। आजादी के फौरन बाद देशवासियों के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था की बात की गई। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा केन्द्र, तालुक अस्पताल, जिला अस्पताल और राज्यस्तरीय स्वास्थ्य संस्थानों के नेटवर्क रूपी तर्कसंगत रेफरल व्यवस्था स्थापित करने के साथ बेहतर काम की शुरुआत हुई। तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों ने इस व्यवस्था के तहत स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में काफी हद तक सफलता भी पायी। मगर साठ का दशक आते-आते सरकारी प्रोत्साहन से निजी क्षेत्र ने अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू किया और नब्बे के दशक तक पंहुचते-पहुंचते सार्वजनिक क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था लगभग निष्क्रिय हो गई। हालांकि पिछली सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनाकर और स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था पर होने वाले खर्च को तीन प्रतिशत करने की बात तो कही मगर स्थिति जस की तस बनी हुई है। तमाम दावों और आश्वासनों के बाद भी पिछले बजट में स्वास्थ्य सेवाओं पर महज 0.9 प्रतिशत ही खर्च का प्रावधान था। जहां दुनिया की विकसित अर्थव्यवस्थाएं अपनी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था पर सकल घरेलू उत्पाद का बड़ा हिस्सा खर्च करती हैं, वही सकल घरेलू उत्पाद की ऊंची वृद्धि दर का दावा करने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था का खर्च नियोजित, गैर नियोजित, सार्वजनिक, निजी, राज्य और केन्द्र सभी मिलाकर जीडीपी का पांच प्रतिशत से भी कम है। जबकि अमेरिका अपने सकल घरेलू उत्पाद का सोलह प्रतिशत, फांस ग्यारह प्रतिशत जर्मनी 10 .4 प्रतिशत खर्च करते हैं। हालांकि यह क्षेत्र राजस्व देने वाला पहला सबसे बड़ी और शिक्षा के बाद रोजगार मुहैया कराने वाला दूसरा सबसे बड़ा सेवा क्षेत्र है। परन्तु निगमित विकास के इस दौर में सरकार को नागरिकों के स्वास्थ्य से अधिक चिंता बड़े निगमों के मुनाफे की है। इसीलिए एक कारगर और बेहतर स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था को निष्क्रिय होने पर सरकार की खामोशी उसकी बदनीयती और वर्ग चरित्र को जाहिर करती है। फिलहाल देश में स्वास्थ्य सेवाओं का व्यवसाय 360 करोड़ डॉलर प्रतिवर्ष का है और एक अनुमान के अनुसार 2012 तक उसके 700 करोड़ और 2022 तक 2800 करोड़ हो जाने की आशा है। परन्तु 360 करोड़ डॉलर के इस व्यवसाय में सरकार की भागीदारी महज उन्नीस प्रतिशत है जो लगातार घटती जा रही है