बुरी तरह घिर गए हैं मोदी-शाह, भाजपा और आरएसएस बचाने में जुटे
बुरी तरह घिर गए हैं मोदी-शाह, भाजपा और आरएसएस बचाने में जुटे
बुरी तरह घिर गए हैं मोदी-शाह, भाजपा और आरएसएस बचाने में जुटे
मोदी राज की खुलती पोल
पांच राज्यों के विधानसभाई चुनाव यानी 2019 के आम चुनाव का सेमी-फाइनल
five state assembly elections i.e. semi-final of the general election of 2019
अचरज की बात नहीं है कि विधानसभाई चुनावों के मौजूदा चक्र में, जिसे 2019 के आम चुनाव का सेमी-फाइनल माना जा रहा है, मोदी-शाह की भाजपा यह पक्का करने की जीतोड़ कोशिशें कर रही है कि चुनाव जनता का फैसला उनकी सरकार के प्रदर्शन के आधार पर नहीं होना चाहिए।
याद रहे कि अब तक छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार में खासतौर पर यह खेल देखने को मिला है, जहां मोदी सरकार के साढ़े चार साल के प्रदर्शन की ओर से ही नहीं, रमन सिंह तथा शिवराज सिंह चौहान की भाजपा सरकारों के पंद्रह-पंद्रह साल के प्रदर्शन की ओर से भी, ध्यान हटाने की कोशिशें की जा रही हैं।
अयोध्या में राम मंदिर का मुद्दा
Ram temple in Ayodhya issue
बेशक, राजस्थान तथा तेलंगाना में भी ऐसा ही होने के संकेत आने शुरू हो गए हैं, हालांकि वहां भी चुनाव प्रचार जैसे-जैसे तेज होगा इसकी कोशिशें और खुलकर सामने आएंगी। इन कोशिशों के हिस्से के तौर पर अचानक जिस तरह के अयोध्या में राम मंदिर के मुद्दे को उछालने की संघ परिवार की कोशिशों को तेज किया गया है, वह किसी से भी छुपा नहीं है।
Will there be ram mandir or babri masjid in ayodhya ?
उच्चतम न्यायालय के तत्काल अयोध्या मामले की सुनवाई शुरू न करने के बहाने से ‘हिंदुओं की भावनाएं आहत’ होने का जाना-पहचाना उन्माद जगाना ही शुरू नहीं किया गया है, इसके हिस्से के तौर पर ‘संत सक्वमेलनों’/सभाओं का बाकायदा एक चुनाव कार्यक्रम भी तैयार कर लिया गया है।
इस मुहिम की गंभीरता का कुछ अंदाजा इस तथ्य से लगया जा सकता है कि खबरों के अनुसार, पिछले ही दिनों बनारस में हुई आरएसएस के सभी आनुषांगिक संगठनों के शीर्ष नेताओं के साथ मोहन भागवत के छ: दिन की समीक्षा बैठक में, समीक्षा समेत बाकी सारे काम छोडक़र अगले चुनाव तक, अयोध्या मुद्दे को ही गरमाने का निर्देश दिया गया था।
क्या केरल में सबरीमला मंदिर बनेगा भाजपा के लिए दक्षिण में अयोध्या
Will Sabarimala temple in Kerala be Ayodhya in the south for BJP
इसी खेल के एक उप-आख्यान की तरह, केरल में सबरीमला मंदिर (Sabarimala Temple in Kerala) के मामले में सभी आयु की महिलाओं के प्रवेश की इजाजत देने के उच्चतम न्यायालय के फैसले को लागू न होने के लिए, भाजपा के नेतृत्व में खुल्लमखुल्ला मुहिम चलाई जा रही है, जिसमें अब मोदी सरकार के मंत्रियों को भी उतार दिया गया है। यह अभियान केरल में भाजपा को कितना आगे बढ़ा पाता है, यह अभियान अगले ही महीने हो जा रहे तेलंगाना के चुनाव में भाजपा की कितनी मदद कर पाता है, यह अभियान क्या संघ-भाजपा के लिए ‘दक्षिण में अयोध्या’ जुटा पाता या नहीं, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। लेकिन, इतना तय है कि यह अभियान विधानसभाई चुनाव के मौजूदा चक्र में भी भाजपा के सांप्रदायिक मुक्चा को चमकाने में कुछ मदद तो कर ही रहा है। इस सिलसिले में यह याद दिलाना भी अप्रासांगिक नहीं होगा कि अंतत: मंदिर के मुद्दे पर बाकायदा छलांग लगाने से पहले तक भाजपा, अपने सांप्रदायिक चेहरे को चमकाने के लिए दूसरे मुद्दों को भी आजमा कर देख रही थी। इस सिलसिले में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने, असम में नागरिक रजिस्टर या एनआरसी के पहले चक्र में करीब 40 लाख लोगों के छूटने के बहाने से, सांप्रदायिक रंग के साथ ‘घुसपैठियों’ का और उसके पूरक के तौर पर सरासर सांप्रदायिक, नागरिक संशोधन कानून का भी मुद्दा उछालने की भारी कोशिश की थी। लेकिन, मंदिर का मुद्दा उछलने के बाद, शाह के चुनावी भाषणों से यह मुद्दा गायब ही हो गया।
बेशक, मोदी सरकार के साढ़े चार साल के प्रदर्शन के साथ-साथ, इस चक्र में जिन तीन राज्यों में भाजपा सत्ता में रही है, वहां राज्य सरकारों के प्रदर्शन पर भी बहस से अगर भाजपा भागने की पूरी कर रही है और हिंदुत्व की दुहाई से जुड़े भावनात्मक मुद्दों के ही सहारे चुनाव की वैतरणी पार करने की कोशिश कर रही है, तो बेशक इसका काफी कुछ संबंध मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान में भाजपा की राज्य सरकारों की विफलताओं से पैदा हुई जनता की नाराजगी से भी है।
अगर मध्य प्रदेश तथा छत्तीस गढ़ में भाजपा के डेढ़ दशक लंबे शासन से जनता की गहरी निराशा खुलकर सामने आ रही है, तो राजस्थान में भाजपा की सरकार के खिलाफ आम जनता में बुरी तरह से ठगे जाने का एहसास साफ देखा जा सकता है।
बेशक, इन भाजपायी राज्य सरकारों से जनता की नाराजगी इस बात से और बढ़ गई है कि केंद्र में भी सत्ता हाथ में होने के बावजूद, भाजपा न सिर्फ रोजगार से लेकर, महिलाओं व दलितों की सुरक्षा तक विभिन्न महत्वपूर्ण मोर्चों पर आम जनता से किए गए वादे पूरे करने में विफल रही है बल्कि केंद्र में सत्ता में आने के बाद से उसने सारे पर्दे उतारकर, अपनी संविधान, जनतंत्र तथा धर्मनिरपेक्षताविरोधी करतूतों को खुल्लमखुल्ला और आगे बढ़ाया है।
विपक्ष की आलोचनाओं का जवाब देने में असमर्थ प्रधानमंत्री
Prime Minister unable to answer criticism of opposition
अचरज नहीं कि जनता की इसी नाराजगी के सामने, भाजपा के सर्वोच्च प्रचारक की हैसियत से प्रधानमंत्री मोदी उतना सहारा अपनी केंद्र सरकार समेत भाजपायी सरकारों की उपलब्धियों के झूठे दावों का नहीं ले रहे हैं, जितना सहारा झूठे इतिहास का ले रहे हैं, जिसमें सारी समस्याओं की जड़ नेहरू और उनकी विरासत से जुड़ी राजनीति है।
विपक्ष की आलोचनाओं का कोई जवाब देने में असमर्थ, अति-आत्ममोह से ग्रसित प्रधानमंत्री न सिर्फ इन विधानसभाई चुनावों के मुकाबले को भी ‘मेरे खिलाफ बाकी सब’ का षडयंत्र बनाकर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं बल्कि हर सवाल का एक ही जवाब दे रहे हैं-उन्होंने कैसे मुझसे सवाल पूछने की जुर्रत की, वे मेरी आलोचना कैसे कर सकते हैं? इसके ऊपर से ‘मैं गरीब चाय वाले का बेटा’ की दुहाई और। अचरज नहीं कि यह सब, जो मोदी के गृहराज्य और गढ़, गुजरात में भी बड़ी मुश्किल से ही संघ-भाजपा की इज्जत बचा पाया था, विधानसभाई चुनाव के मौजूदा चक्र में न तीन भाजपा शासित राज्यों में काम करता नजर आता है और न तेलंगाना में, जहां भाजपा को मजबूरी में अकेले चुनाव लडऩा पड़ रहा है।
रही बात पूर्वोत्तर के राज्य मिजोरम की, तो वहां तो चुनाव से पहले ही भाजपा ने आधिकारिक रूप से यह साफ करना जरूरी समझा है कि वह चुनाव के बाद, न सिर्फ मिजो क्षेत्रीय पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन के साथ हाथ मिलाने के लिए तैयार होगी, जो चुनाव में भाजपा के साथ दिखाई तक नहीं देना चाहता है बल्कि कांग्रेस के वर्तमान मुख्यमंत्री के साथ भी गठजोड़ का दरवाजा खुला रखने जा रही है!
लेकिन, नरेंद्र मोदी के दुर्भाग्य से, उनकी सरकार की भारी विफलताओं के ऊपर से, अब एक के बाद एक सामने आ रहे घोटालों ने, उनकी सबसे बढक़र कार्पोरेट मीडिया-पीआर के सहारे गढ़ी गई छवि को गंभीर चोट पहुंचाना शुरू कर दिया है, जबकि यही छवि उनका सबसे बड़ा हथियार है। मिसाल के तौर पर रफाल के संबंध में हर रोज आ रहे नये-नये रहस्योद्घाटनों के अलावा पिछले एक हफ्ते में ही कम से कम तीन ऐसे खुलासे हुए हैं, जिन्होंने मोदी सरकार और भाजपा की नीयत पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। इनमें से पहले दो रहस्योद्घाटन, मोदी सरकार की सीबीआई को अपना राजनीतिक हथियार बनाने की नंगी कोशिशों के चलते, गहरे संकट में धकेल दी गई केंद्रीय जांच एजेंसी के, उच्चतम न्यायालय तक पहुंचे अंदरूनी झगड़े के क्रम में ही सामने आए हैं। पहला रहस्योद्घाटन, जो मोदी सरकार द्वारा विपक्षी नेताओं के खिलाफ सीबीआई का अंधाधुंध दुरुपयोग किए जाने की आम आशंकाओं की ही पुष्टि करता है, यह है कि प्रधानमंत्री कार्यालय और बिहार सरकार के भाजपायी उपमुख्यमंत्री, सुशील कुमार मोदी की ओर से और नीतीश कुमार की जानकारी में, सीबीआई पर इसके लिए दबाव डाला रहा था कि किसी तरह आइआरटीसी प्रकरण में लालू यादव के परिवार को गिरफ्तार कर लिया जाए। यह इसके बावजूद था कि सीबीआई के कानून विशेषज्ञों ने साक्ष्यों के अभाव में ऐसा नहीं करने की ही सलाह दी थी। बाद में मोदी के चहेते उप निदेशक, अस्थाना ने लालू प्रसाद के गिरफ्तार न कि ए जाने को, सीबीआई निदेशक वर्मा के खिलाफ सीवीसी से अपनी शिकायत का हिस्सा भी बनाया था।
दूसरा, इससे भी विस्फोटक रहस्योद्घाटन, सीबीआई के झगड़े में मोदी सरकार के पक्षपातपूर्ण हस्तक्षेप के हिस्से के तौर पर तबादला कर वनवास में भेजे गए, सीबीआई के डीआइजी मनीश कुमार सिन्हा ने अपने तबादले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय से अपनी प्रार्थना में किया है।
मोदी सरकार के कृपापात्र सीबीआई उप निदेशक अस्थाना के खिलाफ मोइन कुरैशी प्रकरण में घूसखोरी के आरोपों की जांच से जुड़े रहे सिन्हा ने अपनी याचिका में इसकी जानकारी दी है कि किस तरह केंद्रीय कोयला व खदान मंत्री, हरिभाई पृथ्वी भाई चौधरी ने कुरैशी प्रकरण को दबाने के लिए एक बिचौलिये के माध्यम से दो करोड़ रु. की रिश्वत मांगी थी। इसके साथ ही उन्होंने इसका भी विवरण दिया है कि किस तरह से प्रधानमंत्री कार्यालय के उच्चाधिकारियों, सीवीसी तथा एनएसए, अजीत डोवाल की इस प्रकरण में संलिप्तता थी और खासतौर पर डोवाल ने उक्त प्रकरण में अस्थाना के खिलाफ जांच को विफल करने के लिए सीधे हस्तक्षेप किया था।
याद रहे कि सीबीआई के मामले में सरकार के आधी रात के ऑपरेशन की अगुआई खुद डोवाल ही कर रहे थे। इस तरह, रफाल प्रकरण की ही तरह, सीबीआई प्रकरण की आंच भी प्रधानमंत्री के चहेतों से होते हुए, सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय तथा खुद प्रधानमंत्री तक पहुंच रही है।
तीसरा बड़ा रहस्योद्घाटन, 2005 के नवंबर के सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ हत्या के प्रकरण में, उस समय सीबीआई के गांधीनगर के एसपी तथा उक्त प्रकरण के मुख्य जांच अधिकारी, अमिताभ ठाकुर ने मुंबई की सीबीआई अदालत में अपनी गवाही में यह दोहराकर किया कि उनकी जांच के अनुसार गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री, अमित शाह को इस हत्या से राजनीतिक और आर्थिक लाभ हुआ था। शाह के अलावा एंटी-टैररिज्म स्क्वैड के तत्कालीन डीआइजी, डी जी वंजारा, उदयपुर के तत्कालीन एसपी दिनेश एम एन, अहमदाबाद के तत्कालीन एसपी राजकुमार पांडियन तथा अहमदाबाद के तत्कालीन डीसीपी अभय चुडास्मा को भी इस हत्या से राजनीतिक लाभ हुआ था। ठाकुर की गवाही के अनुसार इस हत्या से शाह ने अहमदाबाद के पापूलर बिल्डर्स के मालिकान, पटेल बंधुओं से 70 लाख रु0 वसूल किए थे और वंजारा ने 60 लाख रु.।
विडंबना यह है कि इस फर्जी मुठभेड़ में, जिसमें कौसर बी और तुलसीराम प्रजापति की भी हत्या कर दी गई थी, मुख्य जांच अधिकारी के अनुसार शाह समेत जो मुख्य आरोपी थे, उन सभी को अदालत के जरिए संदिग्ध तरीके से बरी कराया जा चुका है, जबकि निचले स्तर के जिन पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अब भी सुनवाई हो रही है, उनकी मुख्य जांच अधिकारी के अनुसार इस हत्याकांड में कोई खास स्वतंत्र भूमिका नहीं थी।
इन बढ़ते रहस्योद्घाटनों के साथ और ऐसे रहस्योद्घाटन आने वाले दिनों में बढ़ते ही जाने वाले हैं, बढ़ते घेराव में मोदी-शाह की भाजपा और आरएसएस द्वारा हिंदुत्व और नकारात्मक प्रचार का ही ज्यादा से ज्यादा सहारा लिया जा रहा होगा। यह उनके बुनियादी आधार को तो जरूर बचाएगा, लेकिन चुनाव में उनकी हार का ही रास्ता तैयार करेगा। 0
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