बूढ़े जर्जर हिमालय के सीने पर दहकता मानसून
बूढ़े जर्जर हिमालय के सीने पर दहकता मानसून

समूचे जीवन चक्र से ओत प्रोत जुड़ी मनुष्यता ही शकुंतला की नारी अस्मिता
नैनीझील की मछलियों की तस्वीर (Photo of naini lake fishes) हमने मोबाइल से पिछली दफा जब घर गये थे, तब ली थी, अब मालूम नहीं कि वे उस झील में कब तक जी सकेंगी जैसे हमें यह हर्गिज मालूम नहीं है कि इस पृथ्वी पर मनुष्यता का वास कब तक होगा, क्योंकि स्वर्गवास का चाकचौबंद इंतजाम में इहलोक के मुकाबले परलोक को प्राथमिकता है।
मेघदूत कालिदास की काव्यधारा में प्रकृति का हिमालयी परिदृश्य है।
बूढ़े जर्जर हिमालय के सीने पर दहकता मानसून फिर एक बार।
इसी बीच नैनीताल से लगातार एक से बढ़कर एक भयानक तस्वीरें मरती हुई झील की देह पर पसरती मृत्यु की अमावस्या की आ रही हैं, जहां रोशिनयों का उत्सव अनंत है।
यह मुक्तबाजार का परिदृश्य चकाचौंध है।
दावानल से निजात मिलते न मिलते आपदाओं की घनघटा मानसून है।
हम नहीं जानते कि अपने घर उस नैनीताल में बाकी बचे जीवन में फिर जाना होगा या नहीं। सांत्वना यह है कि महाकवि कालिदास ने निर्वासित यक्ष के प्रणयपत्र का जो प्रस्थानबिंदु उत्तुंग अमल धवल हिमाद्रिशिखर को चुना है, शायद राजा विक्रमादित्य के स्वर्णयुग में आज की तरह बुलेट ट्रेन या माउंट एवरेस्ट पर मंडराते हेलिकाप्टर और युद्धक विमान न होने की वजह से महाकवि वहां तक न पहुंचे हों या उनके चरण स्पर्श का कोई चिन्ह हिमालय में है या नहीं, हम नहीं जानते।
अब कोलकाता से बुलेट ट्रेन से नई दिल्ली का सफर पांच घंटे का होगा।
समुचित क्रयशक्ति हो तो वहां से कुछेक घंचे में समूचे हिमालय के विहंगम अवलोकन कोई भी कर सकता है। कालिदास तो क्या, राजा विक्रमादित्य के लिए यह संभव नहीं था।
फिर भी मुक्तबाजार की उपभोक्ता उड़ान के मुकाबले भारतवर्ष के इतिहास के उस स्वर्णकाल की पर्यावरण चेतना हमसे कहीं बेहतर रही होगी, यह समझने के लिए महाकवि कालिदास का समूचा रचना संसार आज भी उपलब्ध है।
जिस वैदिकी सभ्यता के नाम यह मनुष्यता विरोधी प्रकृति विरोधी राजधर्म और राजकाज है, उस वैदिकी सभ्यता में भी आद्यांत वेद वेदांत प्रकृति चेतना से सराबोर है।
तो प्रश्न यह है कि उस सभ्यता के झंडेवरदार इतने भयानक नरसंहारी प्रकृति विध्वंसक तत्व कैसे हो सकते हैं?
कैराना से हिंदुओं के पलायन की कथावाचन (Story of migration of Hindus from Kairana) संगीतबद्ध अभूतपूर्व हिंसा है तो विभाजित भारत में विस्थापन का अनंत सिलसिला अब विकास का स्मार्ट चरमोत्कर्ष है और अश्वमेधी घृणा अभियान में सीमाओं के आर पार मनुष्यता रक्तरंजित है और शरणार्थी सैलाब से पेरिस लंदन कोलकाता एकाकार है।
प्रकृति का यह नैसर्गिक संसार हालांकि अभिज्ञान शाकुंतलम् की हर पंक्ति में अभिव्यक्त है।
राजा दुष्यंत के मृगया का परिदृश्य उत्तर आधुनिक अश्वमेधी नियमागिरि अभियान से जोड़कर देखें तो कालिदास की पर्यावरण चेतना और मनुष्यता के नाभिनाल से जुड़ी प्रकृति की संवेदना को कला के चरमोत्कर्ष के रूप में चिन्हित करना कोई सौन्दर्यचेतना के बिना भी असंभव नहीं है।
समूचे जीवन चक्र से ओत-प्रोत जुड़ी मनुष्यता ही शकुंतला की नारी अस्मिता है, जिसे हम आज भी आरण्यक सभ्यता जी रही किसी भी आदिवासी नारी की जल जंगल जमीन की लड़ाई में अभिव्यक्त होते देख सकते हैं।
विवाह के बाद कन्या के पितृगृह से पतिगृह की ओर प्रस्थान पर हमारा लोक साहित्य बहुत मुखर रहा है, जिसे पुरानी फिल्मों में हम हाल तक देखते रहे हैं।
शकुंतला की विदाईबेला में अरण्य के जीव जंतु वनस्पति समूह से अलग होने की वेदना का तनिक भी अहसास होता तो हम इस पृथ्वी को बचाने के लिए निश्चय ही सक्रिय होते।
यहां हमारा उद्देश्य प्रकृति और पर्यावरण से मनुष्यता और सभ्यता का तादात्म्य को रेखांकित करना है और शकुंतला का उल्लेख किये बिना हम विषय वस्तु में प्रवेश कर ही नहीं सकते।
हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने जिस भारत की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए लोक गणराज्य भारतवर्ष के भविष्य की परिकल्पना की है और उसे साकार करने के आधार बतौर भारतीय संविधान की रचना की है, वह अंततः महाकवि कालिदास की महानायिका अभिज्ञान शांकुतलम् के गर्भ से निकली है क्योंकि उन्हीं की संतान भरत से भारतवर्ष का नामकरण हुआ, ऐसा नहीं, बल्कि प्रकृति के अभ्यंतर में जो मानवीय संवेदनायें रची बसी है, उसी का संपूर्ण अवयव यह भारतवर्ष है।
आज जिस संपूर्ण निजीकरण और संपूर्ण विनिवेश के अबाध पूंजी के उपनिवेश में हम उपभोक्ता मात्र हैं, तो संस्कृत भाषा को अनिवार्य बनाने के हिंदुत्व एजंडा के सिपाहसालारों और कल्कि महाराज और देवि मनुस्मृति को संस्कृत काव्यधारा के उस अप्रतिम सौनदर्यबोध का स्मरणा कराना अनिवार्य है, जिसमें मनुष्यता की ही नहीं इस पृथ्वी की संपूर्ण जीवनचक्र को लेकर भारतीय सभ्यता और भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ है।
जिस वैदिकी साहित्य और संस्कृति को आधार बनानकर वे नया इतिहास रचना चाहते हैं, उसमें भी इसी संपूर्ण जीवन चक्र के प्रति शत प्रतिशत प्रतिबद्धता है, जिसका आज शत प्रतिशत विनिवेश हो रहा है और शकुंतला के वंशज भारतीयों की इंद्रियां इतनी विकल है कि प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के महाविनाश (Disaster of nature and natural resources) के साथ साथ मनुष्यता और सभ्यता के विरुद्ध इस जघन्यतम युद्ध अपराध के के लिए उनके मनोमस्तिष्क में कोई वेदना संवेदना नहीं है।
सबिता बिश्वास


