बेंगलुरु छेड़छाड़ मामला – सामाजिक विविधिता में छुपे बीज
वीरेन्द्र जैन

आज से लगभग पचास साल पहले कलकत्ता <आज का कोलकता> के रवीन्द्र सरोवर में आयोजित किसी बड़े मनोरंजन कार्यक्रम के दौरान अचानक ही बिजली चली गयी थी, जिसके बाद वहाँ उपस्थित कुछ पुरुष महिलाओं पर जंगलियों की तरह टूट पड़े थे और सुबह के अखबारों में साड़ी सेंडिलें ही नहीं ब्लाउज और ब्रेजरी के टुकड़ों का ढेर नजर आ रहा था।
चर्चा में कुछ सच्ची और झूठी कहानियां भी थीं।
शर्म के मारे पीड़ित पक्ष कुल कर सामने नहीं आया था।
31 दिसम्बर 2016 की रात्रि में नये वर्ष के कार्यक्रम के दौरान जो कुछ घटित हुआ उससे रवीन्द्र सरोवर कांड की याद आना स्वाभाविक है।
विचारणीय यह है कि तब से अब तक समाज की मानसिकता में यह बदलाव आया है, कि अब लोगों को बिजली जाने की प्रतीक्षा भी नहीं करना पड़ती।
इस घटना को कई कोणों से देखा जा रहा है, जिनमें कानून व्यवस्था, बदलती जीवनशैली, और राजनीतिक प्रतिद्वन्दी की प्रतिक्रिया, से लेकर नशाखोरी, पश्चिमीकरण, महिला विमर्श आदि भी शामिल हैं।

सच तो यह है कि ये सारे दृष्टिकोण इस घटनाक्रम में विद्यमान हैं और इन सब के सम्मलित प्रभाव देखे जा सकते हैं।
महाराष्ट्र के एक मुस्लिम नेता ने इस अवसर पर मुस्लिम महिलाओं के लिए तय किये गये इस्लामी नियमों की श्रेष्ठता का मौका तलाश लिया और महिलाओं को ढके मुंदे रह कर चूल्हा चौका करते हुए बच्चे पैदा करने की मशीन तक सीमित हो जाने को ही, उनके बचाव का उपाय बताने लगे। वे कुछ दिनों पहले लगे उन पोस्टरों के सन्देशों को भूल गये जिनमें लिखा हुआ था कि नज़रें तेरी बुरी, और बुरका मैं पहनूं, पर्दा मैं करूं।
आधुनिक सोच के एक मित्र को तो पौराणिक जीवनशैली पर टिप्पणी का मौका मिल गया और वे यह कहते हुए मिले कि आज का बंगलरु तो द्वापर का वृन्दावन हो गया लगता है।
सच्चाई यह है कि आज हमारे समाज को किसी एक सांस्कृतिक पहचान से नहीं जाना जा सकता है। हम आधे तीतर आधे बटेर से लेकर चूं-चूं के मुरब्बे तक हो गये हैं। पुराना हमसे छूटता नहीं है और नया ललचाता है। न हम पश्चिमी हुये और न ही भारतीय रह गये, न हम ग्रामीण और कस्बाई रहे और न ही महानगरीय बन पाये।
वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र में नौकरी के लिए हम मन्दिरों में पूजा पाठ कराते हैं। लड़कियां जींस और पायलें एक साथ पहनती हैं व आई टी वाली लड़कियां मांग भर कर करवा चौथ का व्रत रखती हैं।
हमारे यहाँ पुरुषों की नैतिकताएं अपने घर की महिलाओं के लिए भिन्न हैं, और सहपाठिनों तथा महिला सहकर्मियों के लिए भिन्न होती हैं।
जरा मालूम करके देखिए कि उस रात उस नये वर्ष के कथित उत्सव में सम्मलित होने वाले कितने पुरुष अपनी बहनों को साथ में लाये थे!
यदि इस आयोजन या उत्सव में सम्मलित होने वाले पुरुष अपनी बहनों या घर की दूसरी महिला सदस्यों के साथ आये होते तो शायद वैसी घटनाएं नहीं घटीं होतीं।
लोग दूसरे के घर की महिलाओं को आधुनिक व खुले विचारों की बनना चाहते हैं ताकि वे उन्हें आसानी से दोस्त बना सकें, पर अपनी बहनों के लिए चाहते हैं कि घर की चार दीवारी के अन्दर रहते हुए जल्दी से जल्दी उनके बुजुर्गों द्वारा तय किये गये पुरुषों से विवाहित होकर घर बसा लें। ऐसे लोग आधुनिकता के नाम पर अपनी कामुकता के लिए सहज उपलब्धता तलाशने वाले लोग हैं।
एक युवक ने मुझ से ‘फ्रीडम आफ सेक्स’ पर विचार जानने चाहे तो मैंने कह दिया कि अगर आप अपनी बहन को यह स्वतंत्रता देना पसन्द करें तो ठीक हो सकती है। उसके बाद उसने कोई दूसरा सवाल नहीं पूछा।
मेरा एक तमिल सहकर्मी कानपुर को ‘ बिगेस्ट विलेज आफ इंडिया’ कहा करता था, और वह गलत भी नहीं था।
इस तरह की घटनाओं के लिए कुछ लोग कम वस्त्रों की पोषाकों को ज़िम्मेवार मानते हैं तो कुछ ऐसे विचार को बहुत दकियानूसी मानते हैं।
मैं दोनों से ही पूरा सहमत नहीं हो पाता। किसी भी महिला या पुरुष को अपनी पसन्द के पहनावे की स्वतंत्रता होना चाहिए। पर इसमें पेंच यह है कि वस्त्र केवल देह को मौसमों से सुरक्षित रखने के लिए ही नहीं पहने जाते अपितु वस्त्र सामाजिक धारणाओं के अनुसार सामने पड़ने वाले के साथ संवाद भी करते हैं।
किसी समाज में दुल्हन के लिए खास पोषाक तय होती है और साध्वी के लिए अलग तरह की होती है।
श्रंगार से ही कोई महिला अभिसारिका बनती है। गोआ या उत्तरपूर्व में महिलाएं स्कर्ट पहनती हैं किंतु राजस्थान और उत्तर प्रदेश के किसी गाँव में जवान या अधेड़ महिला अगर स्कर्ट पहनने लगे तो उसका कुछ अलग ही अर्थ प्रकट होगा।
दूसरी ओर उतने ही कम वस्त्रों में अगर कोई गरीब और अभावग्रस्त या आदिवासी महिला की देह उघड़ी रहती है तो भिन्न भाव प्रकट होते हैं।
अगर महिलाएं किसी समाज में बैड रूम में पहने जाने वाले कपड़ों को पहन कर बाज़ार में आयेंगी तो देखने वालों में बैड रूम का खयाल आ सकता है।
शराब व्यक्ति को वर्जनाएं तोड़ कर सहज होने के लिए प्रेरित करती है और आम तौर पर संकुचित व अपनी भावनाओं को नियंत्रित रखने के लिए पहचानी जाने वाली महिलाएं जब शराब पीते हुए दिख जाती हैं तो नशे में खुद उन्मुक्त हो चुका व्यक्ति गलतफहमी का शिकार हो जाता है।
जब श्रीराम सेने वाले मुताल्लिक पब में घुस कर लड़कियों पर हमला करते हैं तो वे बड़ा अपराध करते हैं और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करते हैं, किंतु जब नशा करते हुए लड़के लड़कियों में से कुछ बहक जाते हैं, या उन्हें गलतफहमी हो जाती है तब वहाँ उपस्थित होश वालों, या कानून व्यवस्था को हस्तक्षेप करना चाहिए था। ऐसी स्थिति से निबटने के लिए आयोजन के प्रबन्धकों को व्यवस्था रखनी चाहिए।
मेरे कहने का मतलब यह है कि श्रीराम सेने वालों और मदिरायल में बहक गये लोगों को एक ही तराजू पर नहीं तौला जा सकता।
ऐसे समाज के बीच न तो यह पहली घटना है और न ही आखिरी। यह संक्रमण काल है और नई आर्थिक नीतियों के बाद पूरा समाज एक नये युग में प्रवेश कर के नये तरह का समाज बनाने का प्रयास कर रहा है।
आज पैसा एक खास तरह के लोगों को नवधनाड्य बना रहा है और सीमाओं से मुक्त पूंजी का प्रवाह नई नई आदतें विकसित करेगा। अपना माल बेचने के लिए मांग पैदा की जाती है और इसके लिए आदतें बदली जाती हैं, सांस्कृतिक मूल्य बदले जाते हैं। इस दौर में पुराने मूल्य टूटेंगे नये गठित होंगे। जो इस बदलाव से दूर होंगे उनके साथ नई पीढ़ी का टकराव स्वाभाविक है। इसके अच्छे या बुरे परिणाम बाद में समझ में आयेंगे।
कानून अपनी गति से अपना काम करेगा। जब विमुद्रीकरण में 150 से अधिक लोगों की असामायिक मृत्यु पर भी समाज चुप रहता है तो नये वर्ष के जश्न में हुई छेड़छाड़ों में से न जाने कितनी तो ऐसी होंगीं जिनके बारे में किसी को कुछ भी न बताया गया होगा।
समाज के मूल्य बहुत विविध होते जा रहे हैं, और एक तरह के मूल्यों के साथ दूसरे तरह के मूल्यों से टकराव बढ़ेगा ही बढ़ेगा। तरस उन पर आता है जिन्हें कम वस्त्र पहिन कर स्वेच्छा से शराबखानों में झूमती अच्छे पैकेज की युवतियों को पुराने तरह की लड़कियों से नापने की आदत है।
नई आर्थिक नीतियों का स्वागत करने वालों को नई से नई नैतिकताओं का सामना करना पड़ेगा। इन नीतियों के लागू रहते इस बदलाव को रोका नहीं जा सकता। इन बदलावों में अपराधों की किस्में भी नई नई होंगीं।