प्रबुद्ध सशक्त स्त्री के पति होने के बावजूद सुमंत भट्टाचार्य ऐसी टिप्पणी कर सकते हैं, यकीन नहीं आता !

पलाश विश्वास

यह दरअसल स्त्री के बारे में सुमंत की सतीत्व कौमार्य समर्थक की मनुस्मृति नैतिकता है जो दरअसल पितृसत्ता की जमीन है। इस जमीन पर हम खड़े नहीं हो सकते।
संपादक बनने के बावजूद यह मनसिकता किसी पुरोहित या मौलवी की ही हो सकती है।
Reference:
Sumant Bhattacharya
May 21 at 11:03am ·
का सम्मान करेंगी कविता।
कविता जी, फ्री सेक्स का प्रदर्शन हम दोनों
इण्डिया गेट पर करें तो केसा रहेगा ?

भारत की शालीनता और नैतिकता की
चुप्पी को कमजोरी समझने की भूल
कतई ना करें कविता जी।
अनैतिक को अनैतिक जवाब
देना हमको भी आता है ।
ना हो तो आजमा लीजिए।
Sumant Bhattacharya
5 hrs ·
सिवाय सनातन और कोई विकल्प नहीं है।
फ्री सेक्स में हस्तक्षेप क्या किया
वामपंथी से लेकर दलित और मुल्ले तक
कोसने के लिए सनातन मूल्यों का ही
आश्रय ले रहे हेँ।
ब्रह्मांड हित में सनातन ही सर्वश्रेष्ठ है।
नैतिक अनैतिक की अंतिम परिभाषा
सनातन ही दे सका है।
सुमंत भट्टाचार्य जनसत्ता में हमारे सहकर्मी रहे हैं और प्रभाष जोशी, अमित प्रकाश सिंह और श्याम आचार्य के बहुत प्रिय रहे हैं।
हम लोगों की कोई हैसियत जनसत्ता में कभी थी नहीं। सुमंत और दिलीप मंडल दोनों एसपी सिंह के शिष्य काबिल पत्रकार हैं जो कारपोरेट मीडिया में बेहद कामयाब भी हैं।
सुमंत ने अत्यंत भद्र लड़की से विवाह किया और यह हमारे लिए हमेशा खुशी की बात रही है।
प्रबुद्ध सशक्त स्त्री के पति होने और एकदा जनसत्ता में रहने के बावजूद सुमंत ऐसी टिप्पणी कर सकते हैं, मुझे यकीन नहीं आता।

मैं सुमंत को ज्यादा पढ़ नहीं पाता, लेकिन उनकी पत्नी को अक्सर पढ़ता हूं और स्त्री का सम्मान करने की तहजीब सुमंत को नहीं है, यह अगर सच है तो मुझे इसका गहरा अफसोस है।

पिछले दिनों सुमंत सुनते हैं कि जनसत्ता आये थे और फतवा दे गये थे कि जनसत्ता में बचे खुचे लोग किसी काबिल नहीं हैं और उसने हमलोगों को डफर कह दिया।
दफ्तर गया तो कई साथियों ने शिकायत की और हमने कहा कि उसके पैमाने पर हम किसी लायक नहीं है क्योंकि हम पच्चीस साल से एक ही पोस्ट पर रहने के बावजूद मौका देखकर जनसत्ता से भाग नहीं सके।
जो भागे और बेहद कामयाब भी है, हमें उनकी कामयाबी को सलाम भी करना चाहिए। नाकाम लोगों के बारे में कामयाब लोगों की किसी टिप्पणी का बुरा नहीं मानना चाहिए।
सुमंत ने इंडियन एक्सप्रेस के लिए रिपोर्टिंग भी की है तो हम संजय कुमार जी की तरह यह भी नहीं मानते कि उसकी अंग्रेजी इतनी कमजोर है कि पितृसत्ता के विरोध के परिप्रेक्ष्य में स्त्री के यौन संबंध की स्वतंत्रता का क्या मतलब है।
ऐसा है तो बाकी मीडिया में उसने जहां-जहां काम किया है, उसके बारे में हम कह नहीं सकते लेकिन मुझे यकीन है कि इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता में उसके इस मंतव्य का कम ही लोग समर्थन कर सकते हैं। लेकिन उसकी नासमझी से परेशां ज्यादा होंगे।
यह दरअसल स्त्री के बारे में सुमंत की सतीत्व कौमार्य समर्थक की मनुस्मृति नैतिकता है जो दरअसल पितृसत्ता की जमीन है। इस जमीन पर हम खड़े नहीं हो सकते। संपादक बनने के बावजूद यह मनसिकता किसी पुरोहित या मौलवी की ही हो सकती है।
मान लेते हैं कि कविता कृष्णन जी जैसी सुलझी हुई सामाजिक कार्यक्रता अपनी बात कायदे से समझा नहीं सकी तो अस्पष्टता के संदर्भ में उनसे संवाद किया जा सकता है, असहमत हुआ जा सकता है या उनका विरोध भी करने की स्वतंत्रता असहमत लोगों को हो सकती है लेकिन संपादकी के स्टेटस से नत्थी किसी बेहद कामयाब पत्रकार के इस मंतव्य से हम जैसे मामूली सब एडीटर का दुःखी होना लाजिमी है।
वैसे कोलकाता में जबतक सुमंत रहे, वे हमारे परिवार की तरह ही रहे और हमें उनसे कभी कोई शिकायत नहीं रही और न सुमंत से हमारा कोई विवाद रहा है। अब भी मानते हैं हम कि वह शुरू से बेहद हड़बड़िया रहा है, कोई धमाकेदार टिप्पणी से ध्यान खींचने की जुगत में उसने ऐसी गलती भयंकर कर दी है और उसकी इस तरह कविता कृष्णन या किसी स्त्री का अपमान करने की मंशा नहीं रही है। अपने वक्तव्य के आशय से जो अनजान हो, ऐसे ज्ञानी के बेबाक बोल का नोटिस न लें तो बेहतर।
उसका जन्म उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के मुंश्यारी में हुआ है और उसके पिाता मजिस्ट्रेट थे और इसके उलटहम शरणार्थी किसान अछूत परिवार से हैं।
फिर भी उसके अपनापे में कोई कमी नहीं दिखी और हिमालयी रिश्ते के लिहाज से अब तक हम उसे अपना भाई ही मानते रहे हैं।
हमने पहले तो इस टिप्पणी को उसकी नासमझी समझते हुए नजरअंदाज किया और जनसत्ता के किसी साथी के मंतव्य को तूल देकर विवाद बढ़ाने से बच रहा था।
सुमंत के लिए न जाने कोई सुमंत भट्टाचार्य लिखना भी सरासर गलत है क्योंकि वह सामान्य मनुष्य होता तो बात आयी गयी हुई रहती क्योंकि पितृसत्ता में प्रगतिशील मनुष्यों के उच्च विचारों के मुताबिक भी स्त्री की स्वतंत्रता निषिद्ध है और भद्र समाज नारी वादियों को वेश्या से कम नहीं मानता जैसे तसलिमा नसरीन के साथ आम तौर पर मनुष्यविरोधी सलूक होता है।
आम आदमी तो विशुद्ध शास्त्रसम्मत तरीके से वैदिकी कर्मकांड के तहत स्त्री के अस्तित्व को ही खत्म करने की मानसिकता के साथ जनमता है और स्त्री को मनुष्य समझने के लिए पढ़ा लिखा या संपादक होना भी काफी नहीं होता, उसके लिए समाज, व्यवस्था और राष्ट्र के समूचे ताने बाने के बारे में जानकार होने के साथ सात पितृसत्ता से मुठभेड़ करने की कूवत भी होनी चाहिए।
संजय ने संस्कार की बात कही है तो वैदिकी संस्कृति में स्त्री के साथ जो आचरण के प्रावधान हैं या अन्यधर्ममत में जो स्त्रीविरोधी वैश्विक रंगभेद है, उसके मद्देनजर संस्कारबद्ध लोगों की दृष्टि ही उनके अंध राष्ट्रवाद की तरह इतनी स्त्रीविरोधी हो सकती है कि भाषा, माध्यम और विधा भी लज्जित हो जाये।
सुमंत का असल नजरिया क्या है और नैतिकता की उसकी अवधारणा कौमार्य और सतीत्व से कितना पृथक है, संवादहीनता के कारण हम नहीं जानते।
खास तौर पर यह समझना चाहिए कि इस दुस्समय में बेहद सही लोगों की भाषा भी बिगड़ रही है तो सुमंत के कहे का इतना बुरा मानकर और उसके मंतव्य को तूल देकर हम दरअसल उसीका पक्ष ही मजबूत बनाते हैं क्योंकि निंदा और विरोध से बाजार आइकन बनाता है और यह मुक्तबाजार का व्याकरण है।
कविता जी बेहद सक्षम हैं और किसी भी मंतव्य का वे जवाब दे सकती हैं और हमें उनके जवाब का इंतजार करना चाहिए और वे इस मंतव्य को जवाब देने लायक भी नहीं समझतीं तो यह उनका अधिकार है।
हम बेवजह सुमंत को नायक या खलनायक न बनायें तो पितृसत्ता की भाषा के प्रत्युत्तर में हमारी चुप्पी ज्यादा मायनेखेज जवाब है।
मुझे सुमंत भाई माफ करें कि बेहद दुःखी होकर हमें उनके बारे में यह सब लिखना पड़ रहा है।