सुशील कुमार

नोटबंदी का एक साल पूरा हो गया। सत्ता और विपक्ष दोनों इस मुद्दे को अपनी तरह से भुनाने में लगे हैं। नोटबंदी की जिम्मेदार भाजपा इसे काला धन विरोधी दिवस कहकर जश्न मना रही है तो कांग्रेस समेत दूसरे विपक्षी दल इस नोटबंदी से लोगों को हुई परेशानियों के मुद्दे को उठाकर बीजेपी को घेर रहें हैं।

हम दोनों पार्टियों को एक किनारे रख देते हैं और सिर्फ एक बार आँखे बंद कर एक साल पुरानी घटना को याद करते हैं जो नोटबंदी के दौरान हमने अपने आसपास देखी या खुद झेली थी।

लंबी कतारों में खड़े लोग, बैंक का शटर गिरा हुआ, एटीएम के बाहर कैश न होने की लटक रही तख्ती। सुबह से शाम तक अपने 500 और 1000 के नोट बदलने के लिए लोगों में अफरातफरी के बीच बैंक कर्मचारियों की अकड़। इन सब बातों को आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।

यही वह समय था जब मैंने लोगों को बैंक के एक चपरासी के सामने गिड़गिड़ाते देखा था। वरना बैंक के एग्जीक्यूटिव हमेशा ग्राहकों को नयी स्कीम खोलने और खाता से जुडी सेवाएं बढाने के लिए ही निवेदन करते देखे गए हैं। खासकर प्राइवेट बैंकों में तो ऐसा ही होता रहा था। जिनमें ग्राहक हमेशा बैंको से श्रेष्ठ समझा जाता रहा था। नोटबंदी के बाद से इन बैंकों के व्यवहार में अपने ग्राहकों के प्रति एक अजीब सा बदलाव आया।

सरकारी नियमों ने बैंकों को यह मौक़ा दे दिया कि वे जैसे चाहे वैसे लोगों को परेशान कर सकते हैं। हर दिन नियमों में बदलाव किये गए और पैसे निकालने के लिए ग्राहकों को कई खांचों में बांध दिया गया। मसलन अगर आपकी शादी है तो आप इतनी रकम निकाल सकते हैं, अस्पताल में इलाज करा रहे हैं तो फला तरीके अपना सकते है, इतनी तारीख तक सिर्फ इतनी रकम दी जायेगी आदि।

इन सब के बीच एक उपभोक्ता की तकलीफों को समझने की बजाय सरकार सिर्फ बैंको को अधिकार दिए जा रही थी जिसने लोगों को गिड़गिड़ाने पर और मजबूर कर दिया। जिस बैंक के आप नियमित ग्राहक थे उसी के कर्मचारी अपने ग्राहकों को भूल गए।

आज देश में सैकड़ों बैंक हैं जो लगभग एक सामान सेवाएं देते हैं इनके ब्याज दरों में भी ख़ास अंतर नहीं होता, फिर भी लोग अपने नियमित लेनदेन के लिए एक ख़ास बैंक को ही क्यों चुनते हैं। बड़ा आसान जवाब है बैंक और ग्राहक के बीच एक भावनात्मक जुड़ाव, जो उन्हें कई वर्षों से बांधे हुए है। कई-कई पीढ़ी से लोग एक ही ब्रांच में अपने बच्चों, नाती-पोतों का खाता खोले हुए हैं। बैंक के भीतर जाते ही ग्राहक और कर्मचारी एक दूसरे को निजी तौर से पहचानते और अभिवादन करते हैं। यह सब सरकारी बैंकों में अधिक देखा जाता है।

यह बात भी सच है कि सरकारी बैंकों द्वरा लोगों से दुर्व्यहार भी अधिक किया जाता है। लेकिन जब आप किसी रिटायर्ड अधिकारी से उसकी पेंशन लेने किसी सरकारी बैंक के अनुभवों को पूछेंगे तो प्राइवेट बैंकों के 'वेलकम सर' के अभिवादन और सरकारी बैंकों के, "शर्मा जी बड़ी जल्दी आ गए पेंशन निकालने इस बार" में साफ़ अंतर समझ आएगा।

नोटबंदी के दौरान यही बैंक कर्मचारी शर्मा जी को भूल गए जो पिछले 10-15 सालों से लगातार इसी बैंक में अपनी पेंशन लेने आ रहे थे। उन्हें भी लंबी कतार में लगने को मजबूर कर दिया। मामूली रकम निकालने के लिए वे कई दिन बैंक के चक्कर लगाते रहें। अगर आप अपने आसपास ढूढेंगे तो आज आपको ऐसे कई शर्मा जी मिल जायेंगे जो अब बैंक को हजार गालियां देकर बैंक न जाने की कसम खा चुके हैं।

भले ही बैंक इस बात से इंकार करते रहें कि उन्होंने सभी ग्राहकों से सामान बर्ताव किया लेकिन यह बात भी सच है कि बैंकों में मोटी लेनदेन करनेवालों के रुपये बदलवाने में खुद बैंकों की बड़ी भूमिका रही थी। वरना कतारों में महंगी गाड़ियों से उतरते लोगों को भी लगना चाहिए था जो नजर नहीं आये।

इस घटना ने बैंक और ग्राहक के बीच एक शक की भावना पैदा कर दी।

दूसरी एक बड़ी घटना बैंकों का ग्राहकों के प्रति तानाशाही रवैया। सरकारी निर्देशों के बाद भी कई बैंक देर से खुलते और थोड़ी देर बाद ही नोट समाप्ति की घोषणा की वजह से मारपीट तक की नौबत बन जाती। कई जगहों से बैंक कर्मचारियों के पिटने और लोगों पर पुलिस लाठीचार्ज की भी खबरें आती। बैंकों के लिए भले ही घटनाएं कुछ दिनों के लिए रही हों लेकिन इन सबने लोगों के मन में बैंकों के प्रति एक अविश्वास का भाव पैदा कर दिया। लोग इस बात से गुस्सा हो गए कि अपने ही पैसे लेने के लिए उन्हें परेशानी उठानी पड़ रही है।

जिसकी वजह से कई लोग बैंक में रकम रखने की वजाय घर में रखना अधिक मुफीद समझने लगे।

बैंकों का यह रवैया सिर्फ नोटबंदी तक नहीं रहा आज भी बैंक खाते को आधार से लिंक करने के सरकारी फरमान को बैंक कर्मचारी ग्राहकों को धमकी भरे लहजे में पूरा करने का हुक्म देते हैं। सबेरे ही बैंकों से ऐसे कई मैसेज आ जाते हैं जिनमें आधार खाते से ना जोड़ने पर खाता बंद कर देने की बातें लिखी होती है।

कुछ महीने पहले मेरे एक मित्र ने एक सरकारी बैंक की सेवाओं से खफा होकर शिकायत पत्र लिखा जिसमें 50000 हजार रुपये से अधिक की लेनदेन पर बैंक ने आधार नम्बर अनिवार्य कर दिया था। बैंक ने उसकी शिकायत का समाधान करने की बजाय खाता बंद कर लेने का सुझाव दिया।

आज बैंक इस भूमिका में आ गए हैं कि उन्हें अपने ग्राहक खोने का भय नहीं है। आप को अगर बैंक की सेवाओं का लाभ उठाना है तो उनकी शर्तों पर चलना अनिवार्य है। आज ग्राहक बैंक की नजर में महज पैसों का लेनदेन करने वाला मामूली उपभोक्ता बन गया है। यह सब तब हो रहा है जब बैंक बड़े कर्जदारों से धन की उगाही नहीं कर पाने की वजह से घाटे में जा रहें हैं।

आज बैंकों के सामने ग्राहकों का यह अविश्वास एक चुनौती की तरह है। भले ही लोग मामूली रकम जमा करने बैंक जाते हों लेकिन बैंको को अपने छोटे ग्राहकों के हितों को समझाना होगा और उनसे उसी रिश्ते को फिर बनाना होगा जो नोटबंदी के बाद से लगभग समाप्त हो गया है। यह रिश्ता बैंक और ग्राहक दोनों के हित में होगा।