जनतांत्रिक विरासत : भारतीय गणतंत्र के इकहत्तरवें वर्ष में नेहरू की स्मृति

ईश मिश्र

नेहरू क्रांतिकारी नहीं, सामाजिक जनतंत्रवादी थे। कई दिनों से मन सामाजिक चेतना के स्वरूप और स्तर, बर्बर होती सामूहिक संवेदना, धर्मांधता का बोलबाला आदि बातों से हताश और खिन्न है। गोरखपुर में नौनिहालों की हत्या और राष्ट्रवादियों की बयानबाजी तथा फेसबुक पर ‘देशभक्तों’ की बेशर्मी और विषयांतर के लिए अपने साथियों के साथ जी-जान से बच्चों को बचाने में तल्लीन, डा. कफील की मुअत्तली और चरित्रहनन के जरिए, मुस्लिम ऐंगल ठूंसकर ध्रुवीकरण को गतिमान रखने का शातिराना खेल, यह सब देखकर मन उदास और हैरान है, किसी और समाज की भी चेतना इतनी अधोगामी होती होगी?

ईद के दिन, अगस्त को बच्चों की मौत बताने वाले वर्बर संवेदना-संपन्न, स्वास्थ्यविज्ञान के ज्ञान से शून्य स्वास्थ्यमंत्री को बर्खास्त करने की बजाय, योगी सरकार ने ईद के दिन अपने संसाधनों से बच्चों को बचाने वाले डॉ. कफील को बर्खास्त कर दिया गया।

उत्तर प्रदेश उ.प्र. का मुख्यमंत्री योग ज्ञान से खोज कर पाता है कि बच्चे ऑक्सीजन की कमी से नहीं, बल्कि एक बीमारी से मरे, जिसके इलाज के लिए ऑक्सीजन की जरूरत पड़ती है। है इतना बड़ा वैज्ञानिक और कोई मुख्यमंत्री?

सत्ता पार्टी का फर्जी मुठभेड़ और दंगा विशेषज्ञ अध्यक्ष इसे भारत जैसे बड़े देश में स्वाभाविक हादसा बताता है, जैसे प्रधानमंत्री पद के तब दावेदार, मोदी राज्य-प्रायोजिक नरसंहार में मारे जाने वाले मुसलमानों की तुलना कार के नीचे आ कर मर जाने वाले कुत्तों से करते हैं। कश्मीर में मौत का तांडव करते हैं और हर कश्मीरी को गले लगाने की मस्खरी। आज लाल किले की प्राचीर से, पोर-पोर से मक्कारी टपकते मौजूदा प्रधानमंत्री का भड़ैतीपूर्ण भाषण सुन कर, अनायास, 71 साल पहले इसी प्राचीर से, भारत के पहले प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू के पहले, भाग्य को चुनौती देने वाले ऐतिहासिक भाषण की याद बरबस आ गयी।

नेहरू, बौदधिक क्षमता से संपन्न, स्पष्ट अंतःदृष्टि और दूरदृष्टि तथा मानवीय संवेदनाओं से औत-प्रोत, एकमात्र युगद्रष्टा प्रधानमंत्री रहे हैं।

नेहरू के पहले, कालजयी भाषण और राष्ट्र निर्माण की उनकी समझ और संकल्पों की चर्चा बाद में करूंगा, पहले स्वघोषित, राष्ट्रवादी राजनेताओं की बर्बराती (बर्बर होती) मानवीय संवेदनाओं को देखते हुए, नेहरूजी की मानवीय संवेदनाओं की बात करूंगा।

1970 के दशक में इलाहाबाद में नेहरू और निराला तथा नेहरू और फिराक़ को लेकर कई किंवदंतियां प्रचलित थी. उनमें से एक है: नेहरूजी इलाहाबाद में किसी सभा को संबोधित कर रहे थे। निराला जी उन दिनों, कहा जाता है मानसिक विक्षिप्तता से पीड़ित रहते थे। भाषण के दौरान नेहरूजी की निगाह श्रोताओं के पीछे सुरक्षाकर्मियों उलझते दूधियों की तरह लुंगी-बंडी में, लबे बाल-दाढ़ी वाले हट्टे व्यक्ति पर पड़ी। वे सारे प्रोटोकोल की ऐसी-तैसी करते पुलिस वालों को डांटते हुए उनके पास पहुंचे और उन्हें मंच पर ले आए। वह व्यक्ति हिंदी के महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला थे।

निराला ‘क्यों बे गुलाब...’; ‘यदि होता लखपति कुमार, शिक्षा पाता सात समुद्र पार, करता साम्यवाद का व्यापार ......’ जैसी कविताओं के जरिए नेहरू पर कटाक्ष करने में नहीं चूकते थे।

साहित्यकारों पर लगातार हमलों के मौजूदा माहौल में, साहित्य का सम्मान करने वाले, एक संवेदनशील प्रधान मंत्री की याद आना लाजमी है। इसमें कितना सच है पता नहीं, लेकिन किंवदंतियां हवा में से नहीं आतीं। लेकिन नेहरू द्वारा प्रयाग हिंदी सम्मेलन के अध्यक्ष को निरालाजी की आजीविका के लिए मानदेय की व्यवस्था के आवेदन का पत्र लिखने की बात आंखों देखा सच है।

1980-81 में, 1934-42 में राष्टीय आंदोलन में वामपंथी रुझान पर पेपर लिखने के लिए आंदोलन के नेताओं के ‘प्राइवेट पेपर्स’ की फाइलें देख रहा था। नेहरू के निजी पेपर्स में एक हस्तलिखित चिट्ठी दिखी। नेहरूजी की हिंदी की भी हस्तलिपि बहुत सुंदर है। पत्र शब्दशः तो नहीं याद आशय था कि वे जानते ही होंगे कि इलाहाबाद में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ नाम के हिंदी के एक महान कवि रहते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, उनके प्रकाशक भी बेईमानी करते हैं। यदि उनके संस्थान में 100 रूपये (शायद) के मासिक मानदेय का प्रावधान हो तो उन्हें दिया जाए और यदि ऐसे प्रावधान बनाने में केंद्र सरकार की सहायता की जरूरत होगी तो पूरी की जाएगी. उन्होंने यह भी लिखा कि यह राशि उन्हें न देकर महादेवी वर्मा को दिया जाए क्योंकि वे दरियादिल इंसान हैं एक ही दिन में लुटा देंगे। महादेवी वर्मा उनका ख्याल रखती हैं.

यह पत्र नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी (तीनमूर्ति भवन, नईदिल्ली) में प्राइवेट पेपर्स सेक्शन में है

नेहरू जी के नवउदारवादी वारिस, मनमोहन सिंह भले ही ऑक्सफोर्ड में मानद डिग्री लेते हुए, भारत को विकसित करने के लिए औपनिवेशिक प्रभुओं का आभार व्यक्त कर आए, लेकिन हकीकत यह है कि 1947 में जब अंग्रेज बांटकर भारत छोड़कर गए तो देश की अर्थव्यवस्था में औद्योगिक योगदान 6.3% था।

गौरतलब है कि उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दशकों तक अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का मतलब होता था भारत और पूर्वी एसिया, खासकर चीन के साथ व्यापार। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भारत के उत्पादों का हिस्सा लगभग एक-तिहाई था। 1947 में न सिर्फ अर्थव्यवस्था पस्त थी और लोग बदहाल थे, निरक्षरता और अशिक्षा सर्वव्यापी थी।

लाल किले की प्राचीर से भाग्य से टक्कर वाले भाषण के कुछ महीनों पहले (22 जनवरी 1947) संविधान सभा में, “एम्स एंड ऑब्जेक्टिव्स” के प्रस्ताव पर बहस के समापन भाषण में नेहरू ने कहा था,

“इस सदन का पहला काम है, एक नए संविधान के जरिए भारत को मुक्त करना; भूखों का पेट भरना; नंगों का तन ढकना; और हर भारतीय को अपनी क्षमताएं विकसित करने का उपयुक्त अवसर प्रदान करना”।

..... जारी