ब्रिक्स सम्मेलन : भारतीय मीडिया के दृष्टिहीन लोगों के बचकानी उछल-कूद के प्रभाव से बचाने की ज़रूरत
ब्रिक्स सम्मेलन : भारतीय मीडिया के दृष्टिहीन लोगों के बचकानी उछल-कूद के प्रभाव से बचाने की ज़रूरत
ब्रिक्स सम्मेलन और भारत-चीन के बीच सहयोग की संभावनाओं का अर्थ
तीन सितंबर से चीन के श्या मन शहर में ब्रिक्स ( ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) के सम्मेलन में जो हुआ, भारतीय मीडिया का भक्त तबका इसे भारतीय कूटनीति की एक महान विजय के रूप में पेश करते थक नहीं रहा है। इस सम्मेलन के बाद जारी किये गये घोषणापत्र में आतंकवाद को स्वाभाविक तौर पर एक महत्वपूर्ण मुद्दा बताते हुए उसमें पाकिस्तान में स्थित आतंकवादी संगठनों का, खास तौर पर लश्करे तइबा और हिज़्बुल मुजाहिद्दीन की तरह के उन सभी संगठनों का उल्लेख किया गया है जिनका उल्लेख संयुक्त राष्ट्र संघ के दस्तावेज़ों में अफ़ग़ानिस्तान के संदर्भ में किया हुआ है।
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पिछले दिनों चीन संयुक्त राष्ट्र में अपने वीटो के अधिकार का प्रयोग करके हिज़्बुल के नेता मसूद अज़हर को आतंकवादी घोषित किये जाने के भारत के प्रस्ताव में बाधा डाल रहा था। अब ब्रिक्स के घोषणापत्र में उसके संगठन का नाम आतंकवादी संगठन के रूप में सामने आने के बाद माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में चीन के लिये कठिन होगा संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रस्ताव में बाधा डालना। और इसी बात को चीन पर भारत की एक बड़ी कूटनीतिक विजय बताते हुए मीडिया कह रहा है कि भारत ने पहले डोकलाम में 'लड़ाई के मोर्चे' पर चीन को मात दी और अब कूटनीति में भी उसे धूल चटा दी है।
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भारतीय मीडिया की ऐसी बचकानी उछल-कूद को देख कर सचमुच बेहद हँसी आती है। सचाई यह है कि डोकलाम के गतिरोध के लंबा खिंचने के दौरान ही चीन और भारत, दोनों को क्रमश: इस पूरे तनाव की व्यर्थता का गहरा बोध पैदा हो गया था। चीन ने भारत को खूब धमकियाँ दी थी और भारत ने भी अपने सेनाध्यक्ष और मीडिया के जरिये चीन को पटकनी देने की अपनी सारी तैयारियों का लंबा-चौड़ा बखान किया था। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गये, दोनों पक्ष इस प्रकार के तनाव की उपयोगिता के बारे में धीरे-धीरे ज्यादा संजीदगी से सोचने लगे। सन् '62 की लड़ाई के बाद बड़ी मुश्किल से लगभग चालीस साल के अंतराल के बाद दुनिया के इन दो पड़ौसी बड़े देशों के बीच संबंध सामान्य होने शुरू हुए थे। हर बीतते दिन के साथ दोनों के बीच बढ़ते हुए आर्थिक संबंधों का विस्तार दोनों को ही काफी लाभ पहुँचा रहा था।
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लेकिन डोकलाम की तरह के एक अत्यंत छुद्र से मुद्दे पर यदि दोनों राष्ट्रों के बीच कोई छोटी-मोटी झड़प भी हो जाती तो फिर परस्पर लाभ के इन संबंधों को फिर से कायम करने में पता नहीं कितना समय, बल्कि एक सदी भी लग जाती तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होती। और इस चक्कर में, अमेरिकी रणनीति सफल होती और भारत, पाकिस्तान और चीन का यह पूरा क्षेत्र उसके हथियारों की बिक्री का और विश्व राजनीति में उसकी दादागिरी को बनाये रखने का सबसे अधिक माक़ूल क्षेत्र बना रहता।
चीन और भारत के बीच कूटनीतिक वार्ताओं में दोनों पक्षों ने ही इस बात की अहमियत को समझा और डोकलाम में सारा मसला कुछ सैनिकों की आपसी धक्का-मुक्की के बाद ही ख़त्म हो गया। भूटान की ओर से पंचायती करने गये भारत के मुट्ठी भर सैनिकों को वापस बुला लेने के सवाल को भारत के प्रधानमंत्री ने अपनी नाक का विषय नहीं बनाया और भारत-चीन की विशाल सीमा एक झटके में तनाव से मुक्त हो गई।
श्यामन में ब्रिक्स सम्मेलन के पहले ही फ़ौजी मूँछों की ताव और भारत के बेवक़ूफ़ मीडिया द्वारा अपनी देशभक्ति के प्रदर्शन मात्र के लिये सहायक डोकलाम का वह रद्दी सा तनाव ख़त्म हुआ, और आज हम ब्रिक्स को फिर से पटरी पर लौटता हुआ देख पा रहे हैं।
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सवाल यही है कि आज की दुनिया में ब्रिक्स की तरह के चुनिंदा देशों के अलग-अलग ब्लॉक्स का मतलब क्या है ? सन् 1990 के बाद से ही अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में उस दुनिया को एकध्रुवीय दुनिया बना कर रखने का जो ताबड़तोड़ अभियान चल रहा है, उसने दुनिया में जो तबाहियां मचाई है, इसे खुली आँखों वाला कोई भी व्यक्ति आसानी से देख सकता है। 1990 में तथाकथित शीतयुद्ध की समाप्ति के साथ ही जैसे वास्तविक युद्धों का एक नया दौर शुरू हो गया जिसमें साम्राज्यवादी देशों ने आपस में मिल कर पूरे पश्चिम एशिया और अफ़ग़ानिस्तान को तो प्राय: एक खंडहर में तब्दील कर दिया। अमेरिका के इस साम्राज्यवादी विस्तार के अभियान का प्रत्युत्तर सिर्फ एक- ध्रुवीय विश्व को बहु-ध्रुवीय विश्व में बदल कर ही दिया जा सकता है।
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ऐसे में दुनिया के तीन महादेशों की पाँच बड़ी शक्तियों का ब्रिक्स की तरह का ब्लाक मानवता की एक ऐतिहासिक ज़रूरत को पूरा करने की भूमिका अदा कर सकता है। ऐसे एक महत्वपूर्ण बहु-स्तरीय परस्पर सहयोग के ब्लाक को डोकलाम की तरह के एकदम फालतू से विषय पर पटरी से उतार देने में कोई बुद्धिमत्ता नहीं थी। इसीलिये ब्रिक्स सम्मेलन के पहले डोकलाम के झूठे तनाव को ख़त्म करके भारत और चीन के नेतृत्व ने राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया। इस सम्मेलन के घोषणापत्र में पाकिस्तान-स्थित आतंकवादी संगठनों के नामों का शामिल होना तो इसका एक इतना मामूली सा परिणाम है, जो किसी प्रकार की गंभीर चर्चा का विषय बनने की भी हैसियत नहीं रखता है।
लेकिन यह भारतीय मीडिया है और लाठी भांज कर राजनीति करने वाला संघ-छाप भारत के शासक वर्गों का खास एक राजनीतिक नेतृत्व है,जो इसे लेकर ही कूद-फाँद रहा है। ब्रिक्स सम्मेलन की उपलब्धि के वास्तविक आकलन को ऐसे दृष्टिहीन लोगों के प्रभाव से बचाने की ज़रूरत है। भारत और चीन का नेतृत्व साझा पहलकदमियों के जरिये ही आज की दुनिया में अपने राजनीतिक क़द को बढ़ा सकता है।
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ब्रिक्स के अन्य परस्पर आर्थिक साझेदारी के क़दमों पर आगे ईमानदारी से काम करके ही वास्तव अर्थों में आने वाले समय को सिर्फ एशिया का समय नहीं, दुनिया के हर कोने में तमाम विकासशील राष्ट्रों के लिये एक संभा वनापूर्ण समय का रूप दिया जा सकता है। भारत को इस मामले में सभी दुविधाओं से मुक्त होना चाहिए। सारी दुनिया के जनगण की मुक्ति का असली शत्रु पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियाँ है, जिनका अभी नेतृत्व अमेरिका करता है। उनसे अपने हित की बहुत ज्यादा उम्मीद करना अपने आपको धोखा देने से अधिक कुछ नहीं है।


