भगत सिंह - आज तुम याद बेहिसाब आये
भगत सिंह - आज तुम याद बेहिसाब आये
.................आज तुम याद बेहिसाब आये ............
-संजीव ‘मजदूर’ झा.
भगत सिंह पर संगोष्ठियों में उनकी तस्वीर पर माल्यार्पण कर उनके विचारों को उनसे काटने के पश्चात उनपर चर्चा करना अरुंधति राय के शब्दों में ‘क्लास-पोर्नोग्राफी’ का सबसे सटीक उदहारण है. ऐसा व्यावहारिक और वैचारिक दोनों स्तरों पर धड़ल्ले से किया जाता रहा है.
वैचारिक स्तर पर इस बात की स्पष्ट स्वतंत्रता है कि कोई भी किसी भी वाद से सम्बंधित राजनैतिक संगठन का सदस्य हो सकता है. किसी को गांधीवाद पसंद आये तो किसी को मार्क्सवाद तो किसी को अम्बेडकरवाद. लेकिन इसके साथ ही यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि हमारे किसी पार्टी के सदस्य हो जाने भर से किसी अन्य की वैचारिकी ख़त्म नहीं हो जाती है.
इस बात को बगैर समझे कम से कम भगत सिंह पर तो चर्चा करना मूर्खता ही नहीं, बल्कि मूर्खता के साथ-साथ अपनी मूर्खता-मिश्रित अहंकार का प्रदर्शन करना भी है.
ऐसा नहीं होता तो लोग भगत सिंह और गाँधी का घालमेल नहीं कर रहे होते.
अक्सर हम पाते हैं कि बुद्धिजीवी प्रभुत्वशाली वर्ग का प्रतिनिधि होने के क्रम में भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को उनके विचारों से काटकर उन पर बात करते हैं.
जब हम भगत सिंह पर बात करते हैं तब हमें यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि भगत सिंह को मार्क्स, एंगेल्स तथा लेनिन की सर्वश्रेष्ठ परम्पराओं से सम्बन्ध रखने वाला आलोचनात्मक क्रांतिकारी कहा जाता है.
भगत सिंह क्रांतिकारी होने के साथ-साथ क्रांतिकारी-चेतना के जबरदस्त व्याख्याकार भी थे.
मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच के फर्क को पहचानकर उससे होने वाले विभेद के साथ-साथ सामाजिक उत्पादन शक्तियों के साथ उत्पादन की स्थितियों के बीच सम्बन्ध तथा विरोध पर बात करना उस उम्र के भगत सिंह की अद्भुत प्रतिभा का ही प्रमाण है.
इसलिए विश्वविद्यालयी बौद्धिकों को चाहिए कि भगत सिंह की व्याख्या उन्हें उनके सन्दर्भों से काटकर न करें. ऐसा करके वे सिर्फ भगत सिंह के साथ ही नहीं बल्कि ज्ञान और नए नस्लों के साथ भी विश्वासघात करते हैं.
23 दिसम्बर 1929 को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के चर्चित वायसराय की गाड़ी को उड़ाने के प्रयास के बाद गाँधी ने ‘दि कल्ट ऑफ दि बम’ लेख द्वारा क्रांतिकारियों की जम कर निंदा की. इसके तहत गाँधी जी ने हिंसा का विरोध करते हुए अपने तर्क दिए.
इस तर्क का खंडन भगवतीचरण वोहरा ने ‘बम का दर्शन’ लेख में किया, जिस लेख को भगत सिंह ने जेल में पूर्ण किया.
इस लेख का अध्ययन इसलिए जरुरी है क्योंकि इसमें भगत सिंह ने हिंसा और क्रांति के बीच स्पष्ट भेद दिखाया है. वे कहते भी हैं कि –‘‘क्रन्तिकारी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपनी शारीरिक और नैतिक शक्ति दोनों के प्रयोग में विश्वास करता है और इस सिद्धांत का समर्थन इतिहास की किसी भी क्रांति का विश्लेषण कर जाना जा सकता है.’’
गाँधी ने क्रांतिकारियों को बुजदिल और घृणित कहते हुए विचारशील लोगों से क्रांतिकारियों को सहयोग न करने के लिए अपील की थी, जिसका प्रतिवाद इस लेख में देखा जा सकता है.
इसी क्रम में जवाब में भगत सिंह ने लिखा भी था कि—‘यह सोचना कि यदि जनता का सहयोग न मिले तो हम उद्देश्य छोड़ देंगे, निरी मूर्खता है’.
इसके साथ ही क्रांतिकारियों ने बहस के लिए ललकारा भी.
बहस के लिए आज भी ललकारा जा सकता है और आज भी हम हिंसा के मामले में हमारे बुद्धिजीवी उसी तरह से निरुत्तर हैं जिस तरह से क्रांतिकारियों के सामने उस दौर के गांधीवादी बुद्धिजीवी निःशब्द थे.
लोग राज्य का विरोध करते वक़्त यह कहना नहीं भूलते हैं कि मैं ‘राज्य का विरोध तो कर रहा हूँ लेकिन मेरा रास्ता हिंसा का नहीं है’.
ध्यान रहे ऐसा जवाब एक प्रकार से चालाकी तो है ही साथ ही भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी का अपमान भी है.
अगर थोड़ी देर के लिए हम इसे नक्सलवाद के उदाहरण से जोड़कर देखें तो अधिकांश लोग इस पर बात करते वक़्त घृणा भरी उबासी के साथ-साथ हिंसा शब्द की व्याख्या सीधे नकार भाव में कर देते हैं.
इस नकार के साथ ही खत्म हो जाता है आदिवासियों की समस्या, किसानों की आत्महत्या और पूंजीवादी शोषण.
लेकिन यह नकार किसी भी दृष्टिकोण से बहस तो नहीं कहा जा सकता है.
अगर वाकई नकार भाव भरे बुद्धिजीवियों में तर्क है तो वे अपने मंचों पर उन्हें बुलाये, प्राइम टाइम में उनके साथ बहस करें, अपने पत्र-पत्रिकाओं में उनके विचार प्रकाशित करें. वास्तव में तब पता चलेगा कि तर्क कहाँ है?
एक पक्ष को गौण रखकर दूसरा पक्ष बनकर खुले मैदान में अपनी ही पीठ थपथपाने को ही शायद कुछ लोग तर्क और बहस मानते हैं.
ध्यान रहे कि जो लोग आज के समय में आदिवासियों की समस्याओं पर लिख पढ़ रहे हैं वे प्राइमरी नहीं सेकेंडरी हैं. ये सेकेंडरी ही इतने तर्क दे देते हैं कि राज्य इन्हें नागपुर अंडा सेल के दर्शन करवा देती है।
अब फर्ज कीजिये प्राइमरी ने तर्क करना शुरू किया तब क्या होगा?
हिंसा-विरोधी बुद्धिजीवियों के तर्क तब कहाँ चले जाते हैं जब राज्य शांति ढंग से प्रतिरोध कर रही छात्राओं के बाल ऐंठकर उसे पटक कर बीच सड़क पर घसीटती है?
इनके तर्क तब क्यूँ नहीं चलते जब काश्मीर की घाटी खून के फव्वारे से लहू-लुहान होती है.
तब कोई गाँधीवादी दर्शन के गुणगान में कीर्तन क्यूँ नहीं करता है जब 14 वर्ष से गाँधीवादी तरीके से अनशन कर रही कोई इरोम चानु शर्मिला अपना अनशन तोड़ देती है. इस अनशन के टूटने से तब भी यदि किसी को ह्रदय-परिवर्तन की उम्मीद है तो शायद उसे नव-उपनिवेशवादी शोषण तंत्र की समझ नहीं है.
भगत सिंह जब कह रहे होते हैं कि- ‘स्वतंत्रता राष्ट्र का प्राण है और हमारी गुलामी हमारे लिए लज्जास्पद’, तब वे निश्चित रूप से शोषण की सभी परतों को पहचान कर उस पर बात कर रहे होते हैं.
यदि हम उनके विचारों से रु-ब-रु नहीं होते हैं तो कम से कम उनके विचारों को, उनके योगदान और उनकी भारतीयता की दृष्टि को संकीर्ण करने का भी अपराध हमें नहीं करना चाहिए.
फैज़ साहब के शब्दों में कहा जाय तो कहना पड़ेगा कि—
“हर रागां-ए-खून में चरागाँ हो
सामने फिर वो बेनकाब आये
कर रहा था गम-ए-जहाँ का हिसाब
याद तुम आज बेहिसाब आये.’’


