समुन्दर से आये महाशैतान फिलिन से जूझ रहे लोगों के साथ एकजुटता जरूरी।
श्रीराम तिवारी

विगत 12 अक्तूबर की शाम से आज देर रात और अल-सुबह तक समुद्र से आये महाशैतान 'फिलिंन' के भारत के पूर्वी राज्य तटों से टकराने से देश के सात राज्यों और तीस शहरों को विनाशकारी मंजर देखना पड़ रहा है। आगामी दस साल लगेंगे फिर से उठ खड़े होने में। गनीमत है की इस समुद्री तूफ़ान से जन हानि बहुत कम हुयी और निसंदेह प्रशंसा की जानी चाहिए केन्द्र सरकार की, राज्य सरकार की मौसम विभाग की, मीडिया की और सेनाओं की। वक्त रहते लोगों को सुरक्षित स्थान पर नहीं ले जाया गया होता तो मंजर भयावह और महाविनाशकारी होता। उखड़ी हुयी सड़कें, टेलीफोन बिजली, उद्द्योग, शिक्षण संस्थान, अस्पताल और सम्पूर्ण व्यवस्था के बुनियादी ढाँचे की बर्बादी रोकने का कोई उपाय नहीं नजर आ रहा है। फिर भी संतोष की बात है कि इंसानी जिन्दगी को बचाने में देश को पहली बार सफलता मिली है। हालांकि अभी तक 11 लोगों के मारे जाने की खबर है किन्तु पाँच लाख लोगों के पुनर्वास, उनकी भूख-प्यास तथा जीवन की न्यूनतम आवश्यक सुविधाएँ वक्त पर पहुँचाना पहली प्राथमिकता है। यदि यह काम ठीक से हो गया तो समझो इस विनाश कारी तूफ़ान पर आंशिक विजय हासिल करने में भारत को सफलता मिल गयी। आशा है जिस तरह अमेरिका ने केटरीना की चुनौती को स्वीकार किया था, हम भारत के जन-गण उससे भी बेहतर कर सकेंगे।

भारत और नासा समेत दुनिया भर के मौसम विज्ञानियों के पूर्वानुमान और विनाश की चेतावनी के मुताबिक 'महातूफ़ान "फायलिन" ने उड़ीसा के गोपालपुर से लेकर आंध्र के श्रीकाकुलम तक अपनी विनाशलीला का ताण्डव दिखा कर ही दम लिया। भारत सरकार, मीडिया, मौसम विभाग और सेनाओं ने इस दफा शायद यह मन्त्र लिया था :- "डरो मत मुकाबला करो, जीत इंसान की ही होगी, कुदरती शैतान की उम्र कुछ घण्टों की ही हुआ करती है जबकि इंसानियत का जीवन अनन्त है।"

एनडीएमऐ की 50 टीमें और एनडीआरऍफ़ की 50 टीमें तथा 2300 जवान इस सामुद्रिक तूफ़ान से मुकाबले के लिये सर पर कफ़न बांधकर, पारादीप से लेकर दक्षिण कृष्णा जिले तक तैनात किये गये। गम्भीर श्रेणी के इस महाविनाशकारी तूफ़ान से डरकर कुछ लोग भले ही मंत्रोच्चार में वक्त बर्बाद करते रहे हों किन्तु सेना की और सरकार की तैयारियाँ निसन्देह जरूरी और संतोषप्रद कही जा सकती हैं।

भारत में अब धीरे-धीरे चमत्कार या ईश्वरीय इच्छा पर साइंटिफिक नजरिये को बढ़त हासिल होने लगी है। अब लोगों ने "भगवान् भरोसे मरने से अच्छा लड़ते हुये मर जाने" के बेहतर विकल्प को स्वीकारना शुरू कर दिया है। 1999 में जब उड़ीसा में ऐसा ही भयानक तूफ़ान आया था तब 10000 जानें गयी थीं। प्राकृतिक आपदा प्रबन्धन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया था। इसलिये जन -धन की भारी तबाही हुयी थी। उस समय केन्द्र में एनडीए सरकार थी। उस सरकार पर ईश्वर भक्त साधुओं, बाबाओं का ज्यादा प्रभाव था। वे ज्यादा आस्तिक और धर्मभीरु थे। फिर भी ईश्वर ने उनका और मरने वालों का साथ नहीं दिया। इस बार केन्द्र में मनमोहन-सोनिया जी की सरकार है और शायद दोनों को ही भगवान् के बजाय सेनाओं पर और वैज्ञानिक तोयारियोन पर भरोसा था इसलिये उड़ीसा, आंध्र और बंगाल में ज्यादा तबाही नहीं हो पायी। इस घटना में भले ही आज पाँच लाख लोग बेघर हैं, हजारों पीड़ित हैं, भूख,प्यास और बीमारी आम है किन्तु सरकार और सेना की नियत पर संदेह नहीं किया जा सकता। देश की जनता, राजनीतिक पार्टियाँ, केन्द्र और राज्य सरकार यदि कुछ समय के लिये अपने स्वार्थ खूँटी पर टाँग दें तो श्रीकाकुलम, विजयवाड़ा, विशाखापत्तनम, गंजाम, पुरी, भुवनेश्वर, पारादीप और गोपालपुर फिर से उठ खड़े होंगे इसमें कोई संदेह नहीं।

लंका विजय से पूर्व श्रीराम, लक्ष्मण, हनुमान,सुग्रीव और विभीषण चिंतातुर थे कि लंका तक पहुँचने के लिये समुद्र 'देवता' को पार कैसे किया जाये ? लक्ष्मण ने अपने स्वभाव के अनुरूप अपने धनुष की प्रत्यंचा पर बाण चढ़ाया और समुद्र को शोखने की अनुमति 'श्रीराम' से माँगी। श्रीराम ने लक्ष्मण के इस उपाय को तुरंत ख़ारिज कर दिया और स्वयम् हाथ जोड़कर समुद्र से पार उतरने वावत विनम्र प्रार्थना की। समुद्र ने जब अनुमति नहीं दी तो श्रीराम ने लक्ष्मण के फार्मूले को ही अपनाया -

बोले राम सकोप तब,भय बिन होय न प्रीत। विनय न मान खगेस तब,गये तीन दिन बीत।।

लछमन बाण सरासन आनु। शोखों बारिधि विशिख कृशानु।

यानी हे ! लक्ष्मण धनुष बाण लाओ ! इस समुद्र की तो मैं ऐसी की तैसी करके ही रहूँगा। उनके इस रौद्र रूप पर लक्ष्मण कितने मुग्ध हुये होंगे ये तो नहीं कह सकता किन्तु समुद्र की प्रतिक्रया अवश्य ही जग जाहिर है। समुद्र ने श्रीराम के सामने हाथ जोड़े और नल-नील तथा वानरों की मदद से सेतु निर्माण का सुझाव दिया। सेतु निर्माण सफल रहा और 'लंका विजय' में मददगार रहा। युगों-युगों से ये गाथा न केवल भारत न केवल हिन्दू घरों में बल्कि तमाम पूर्व एशियाई देशों में सनातन से कही सुनी जा रही है। उसी की याद में दशहरे पर 'रावण दहन' का चलन उत्तर भारत में है। यह कथा सर्वकालिक और सर्वविदित है। इस आख्यान को दुहराना या उसे महिमा मंडित करना मेरा मकसद नहीं, मैंने इस घटना का जिक्र मात्र यह स्थापित करने के लिये किया है कि प्राचीनकाल में भी जब सुसभ्य 'आर्य' लोग 'भाववाद' या दैवीय चमत्कार को तिलांजलि देकर अपने मानवीय बाहुबल और वैज्ञानिक भौतिकवादी सामर्थ पर यकीन किया करते थे तो आज के इस घोर वैज्ञानिक, प्रगति, उन्नत तकनीकी युग में घर-घर में, गली-गली में, गाँव-शहर में धर्मान्धता और अवैज्ञानिकता का बोलबाला क्यों है ? प्राकृतिक या मानव निर्मित संकट या भय के ऊपर 'आस्था' के बादल क्यों मँडराने लगते हैं ? चाहे पड़ोसी बदमाश देशों के छुपे आक्रमण हों, चाहे सूखा हो, चाहे बाढ़ हो, चाहे सुनामी हो, चाहे केदारनाथ या हिमालयी प्राकृत आपदा हो या कोई भयावह समुद्री तूफ़ान हो- भारत के जन- मानस में धर्मभीरुता का बोलबाला ज़रा ज्यादा ही पाया जाता है। सूखा पड़ा तो कहने लगे 'कलयुग आ गया है'। बाढ़ आई तो कहने लगे देवता अप्रसन्न हैं 'हरेक संकट का कारण दैवीय आस्था में निहित हुआ करता है। किन्तु ये भावात्मक अन्धविश्वास अब दरकने लगा है।

गनीमत है कि देश पर अंध श्रद्धा, चमत्कार और स्वयम् भू भगवानों या साम्प्रदायिक मानसिकता के नेताओं, ढोंगी बाबाओं और पाखण्डी स्वामियों की पसंद का नेतत्व और उनकी पसंदीदा सरकार नहीं है। वरना ये ढोंगी लोग जादू-टोने से, स्तुति आरती से, घण्टे- घड़ियाल से देश की और जनता की रक्षा वैसे ही करते जैसे वे अतीत में विदेशी आक्रमणों के दौर में या प्राकृतिक आपदाओं में करते आये हैं। आसाराम, रामदेव, उमा भारती, नित्यानंद, भीमानंद, गाजी फ़कीर, निर्मल बाबा या पाखण्डी फादरों की इस दौर में चलती तो सोचना चाहिए कि वे देश का और देश की आवाम का क्या हश्र करते? आस्तिकता के खोल में घोर पापियों के परजीवी झुण्ड केवल शाब्दिक लफ्फाजी से अपनी भड़ास निकाल लिया करते हैं। रामदेव तो फायलिन तूफ़ान के लिये सोनिया या राहुल को जिम्मेदार बताएँगे और आसाराम अपनी कुकर्म जनित जेल यात्रा को इस महातूफान के आगमन को जोड़ेंगे। हिन्दुत्ववादी पीएम् इन वेटिंग तो मुसलमानों को ही इस सामुद्रिक आपदा के लिये जिम्मेदार मानेंगे।

12अक्तूबर2013 को शाम 6 बजे आज 13 अक्तूबर के सुबह 6बजे तक- बंगाल की खाड़ी को चीरकर चला साइक्लोन- महातूफ़ान 'फीलिन ' जब उड़ीसा, आंध्र, बंगाल और तमिलनाडु तट से टकराने आया तो आज के वैज्ञानिक-प्रबुद्ध भारत ने उस की पूजा अर्चना नहीं की। उसे दैवीय प्रकोप मानकर अपने आपको काल कवलित होने के लिये नियति या भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ दिया गया बल्कि संभावित संकट का वक्त रहते घण्टों पहले पूरा-पूरा वैज्ञानिक आकलन याने सटीक पूर्वानुमान किया गया। तीनों सेनाओं को अलर्ट किया गया, चिकित्सा, संचार, परिवाहन, रेस्क्यू और पुनर्स्थापन से सम्बंधित तमाम तैयारियों को कंसोलिडेट किया गया। राज्य सरकारें, केन्द्र सरकार, मौसम विभाग, डिजिटल, प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया- सभी ने शानदार भूमिका अदा कर सम्भावित भारी तबाही से देश को बचाने का पुरजोर प्रयास किया।

कुदरती महाविनाश अभी तक चीन अमेरिका और जापान भी नहीं रोक पाये हैं, यदि भारत के लोगों ने इस दफे कुछ सार्थक किया है तो पीठ थपथपाने में कोई कंजूसी क्यों ? इसका श्रेय देश के वैज्ञानिक नजरिये को, देश के प्रबुद्ध मीडिया को और जागृत राजनीतिक नेतृत्व को जाता है। जो लोग इस आपदा प्रबन्धन के दौरान भी मुनाफाखोरी करने लग जाते हैं, लूटपाट करने लग जाते हैं, जो अमानवीय हैं, उन नरक के कीड़ों से देश को बचाने के लिये अब भारत के न्यायविद्, मीडिया, राजनीतिज्ञ और जनता जागरूक होने लगे हैं। निःसन्देह वर्तमान पूँजीवादी और लूटखोरी की व्यवस्था के कारण भारत चौतरफा मुसीबतों से घिरा हुआ है किन्तु यदि वह धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता के नकारात्मक तत्वों से मुक्त होकर विज्ञानसम्मत रास्ते पर आगे बढ़ता है तो इसका भविष्य उज्ज्वल है।

अपने अंधकारमय अतीत से मुक्त होकर वैज्ञानिक नजरिये से ही भारत और विश्व का उद्धार संभव है। पचास साल पहले - बचपन में जब गाँव- जंगल या खेत-हार से रात के अँधेरे में गेल-घाट पर कभी अकेले-दुकेले आना जाना होता था तो पीपल के पत्ते के खड़कने या उल्लू के बोलने पर भी सिर्फ 'भूत-पलीत' का ही ख्याल आता था। रास्ते में नाग देवता मिल जाएँ या गोह देवी, सभी में केवल दुर्दांत 'देवदर्शन' ही हुआ करते थे। इस 'भय के भूत' का निवारण जिस हनुमान चालीसा या दुर्गा चालीसा से किया जाता था वो सिस्टम अभी भी बरकरार है। अभी भी उसी तर्ज पर उसी सम्वेदना और उसी शिद्दत से 'दैहिक-दैविक-भौतिक' ताप का निवारण किया जा रहा है। शायद जिसे सदियों पहले गाँव के पाषाण युगीन 'सयानों' ने ईजाद किया होगा। इन दिनों भले ही हर नौजवान ग्रामीण की जेब में एक अदद मोबायल हो, भले ही वो मिडिल फ़ेल, हाई स्कूल फ़ेल या गैर स्नातक <क्योंकि शहर की प्रतिस्पर्धा में आज गाँव का विद्द्यार्थी कैसे टिक सकता है ?> ही क्यों न हो ? बिना पक्षपात के सभी वर्गों, मजहबों और अंधश्रद्धाओं से ताल्लुक रखने वालों को यह डर अलग-अलग जाति और धर्म के अनुसार अनुभूत अवश्य हुआ करता है। संकट मोचन या समस्या निवारण के तरीके एक जैसे ही हैं। यानी ओझा, बाबा मौलवी, झाड़-फूंक ।।।! ॐ हिलीम-कलीम फट स्वाहा। शरणम् गच्छमि…! या जय-जय हुनमान गुसाईं।।। ! या जय काली -कलकत्ते वाली! या जल्ले जलाहू आई वला को …!

जब तक चेतना है, जब तक विवेक है डरना स्वाभाविक है किन्तु भय मुक्ति के विश्वसनीय और कारगर साधनों का अभाव या अकाल इस वैज्ञानिक युग में होना नितान्त शर्मनाक है। इस डर के तात्कालिक समाधान प्रकारान्तर से मजहबी आस्थाओं के अनुसार भिन्न -भिन्न हुआ करते हैं। हो सकता है देश और दुनिया में शायद इस भारतीय पुरातनपंथ की मान्यताओं से मिलते-जुलते और भी देश हों, शहर हों, गाँव हों, सभ्यताएं हों। हो सकता है कि उन्होंने अपने नैसर्गिक भय को वैज्ञानिक अनुसंधानों की सान पर चढ़ाकर भौंथरा कर दिया हो किन्तु मेरे भारत के गाँव उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम सभी दिशाओं में आज भी अपने जातीय विभाजन और सामाजिक संकीर्णता से आबद्ध होने के कारण 'भभूत' के चँगुल में फँसा हुआ है। मैं मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र, बिहार के दरभंगा या उड़ीसा स्थित कालाहांडी इत्यादि अति पिछड़े क्षेत्रों के गाँव की आर्थिक दुरावस्था से बंगाल- केरल- गुजरात- महाराष्ट्र या पंजाब के उन सुशिक्षित विकसित गाँवों की जबरन तुलना नहीं करूँगा जो भारतीय कंगाली के महासागर में आकाश दीप की भाँति चमक रहे हैं। लेकिन मैं दावा करता हूँ कि तमाम प्रकार के 'रोग-दोष-दुखों' के प्रथमोपचार में अगड़े-पिछड़े,गरीब-अमीर और उंच-नीच का कोई फर्क नहीं। सर्वत्र समानता है, साम्यवाद है।

यानी अंधश्रद्धा, पाखण्ड और अवैज्ञानिकता से मुक्त होने की ताकत किसी में नहीं है। घर-घर टेलीविज़न हो जायें, हर हाथ में घड़ी हो, हर जेब में मोबाइल हो फिर भी इंसानी, शैतानी, जमीनी, आसमानी और आग-हवा पानी से उत्पन्न संकट से निजात पाने के लिये-कलियुग केवल नाम अधारा।।।।। सुमरि-सुमरि नर उतरहिं पारा।। …। … !

मैं अपने पैतृक गाँव की चर्चा कर रहा हूँ। उसमें अधिकाँश हिन्दू और जैन ही शेष बचे हैं। पचास साल पहले एक मुसलमान जुलाहा और एक ईसाई प्रायमरी शिक्षक भी हुआ करता था। ये दोनों ही अपने हिन्दू पूर्वजों का बड़े गर्व से बखान किया करते थे। जैन अधिकाँश व्यापारी, साहूकार और पढ़े-लिखे और सम्पन्न थे। वे जैन मंदिर में आये दिन 'मुनियों -जैन संतों; का चातुर्मास या 'सिद्धचक्र-विधान मंडल' जैसा कुछ न कुछ आयोजन किया करते थे। वे केवल डाकुओं से डरते थे क्योंकि इलाके में दूर-दूर तक न तो पुलिस थी और ना पुलिस थाना। जैन समाज के लोग सूर्यास्त के बाद न तो खाना खाते थे और न घर से ही निकलते। संकट आने या डाकुओं का डाका पड़ने पर वे "नमो अरिहंतारम …। नमो श्री सिद्धाणं का जाप करते। मुस्लिम जुलाहा स्वभाव से तो निडर था। किन्तु "असलाम बालेकुम" की जगह 'जैराम जी की' बोला करता। क्योंकि उसके अलावा गाँव में और कोई मुसलमान था ही नहीं। झाड़फूँक और मन्त्र ताबीज में उसकी श्रद्धा अपार थी। ला इलाह। …। …… …इलिलाह। …। जल्ले जलालहू …! इत्यादि मन्त्र का जाप करता और किसी सूफी मजार पर धूप -लोभान देना उसकी खानदानी परम्परा में शुमार था। ईसाई मास्टर जिसके पूर्वज दो पीढ़ी पहले हिन्दू हरिजन हुआ करते थे अब भी लोगों से मिलने पर 'राम-राम' किया करता किन्तु बात बात में अपने गले में लटके क्रास को भी चूमाँ करता। अपने दोनों हाथों को कभी दायें-बायें फैलाता और कभी सीने पर काल्पनिक क्रॉस बनाता। अँधेरे में उसे अपने इन् नए ईसाई प्रतीकों पर और उजाले में पुराने हिन्दू प्रतीकों का सहारा हुआ करता।

हिन्दू समाज जो कि 'तेरह -जात' में बँटा हुआ था। उसमें जमींदार, पुरोहित से लेकर 'हरिजन' तक सभी 'बजरंगबली' और दुर्गा के भक्त हुआ करते थे। सभी को गीता रामायण का कुछ न कुछ जरुर मुखाग्र याद हुआ करता था। सभी बड़े ज्ञानी-ध्यानी बातूनी धपोर शंखी हुआ करते। सबसे ज्यादा वैमनस्य और अलगाव केवल हिन्दू समाज में ही था। हिन्दू तेरह जात में विभक्त थे। पुरानी परम्परा का आदर्श गाँव। यानी ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया, तेली, अहीर, लुहार, बढ़ई, चर्मकार, बनसोड, धोबी, नाइ, खंगार हरिजन और आदिवासी <सौंर-रावत > सभी थे। ब्राह्मण कान्यकुब्ज, सरयूपारी, सनाढ्य, जिजोतिया, भट्ट और जोशी इत्यादि उपवर्गों में विभाजित थे। सभी जात के आस्तिक श्र्द्धावानों का भय की स्थति में या लोकोत्तर समस्याओं के निदान की स्थति में या तो हनुमान चालीसा का सहारा था या दुर्गा चालीसा का !

गाँव में भले ही हल-बैल की जगह ट्रैक्टर, हार्वेस्टर ने ले ली हो, ढिबरी की जगह विद्युत बल्ब दमकने लगा हो, रेडिओ की जगह टेलीविज़न का शोर हो रहा हो और हरेक की जेब में मोबाइल भिनभिना रहा हो किन्तु अभी भी भारतीय जन- मानस को अपने अप पर नहीं बल्कि उन चीजों पर भरोसा कायम है जो केवल छलावा ही हैं।