भाजपा- कांग्रेस के अभियानों से बहुजनों को क्या मिलेगा!
हस्तक्षेप | आपकी नज़र राम मंदिर से मिली राजसत्ता का इस्तेमाल संघ प्रशिक्षित प्रधानमंत्रियों ने मुख्यतः आरक्षण के खात्मे में किया. राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा अनुष्ठान पर त्वरित प्रतिक्रिया

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राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा अनुष्ठान पर त्वरित प्रतिक्रिया (Quick reaction on Ram Mandir Pran Pratistha ritual)
वैसे तो जब भी लोकसभा का चुनाव करीब होता है राजनीतिक पार्टियाँ मतदाताओं को लुभाने के लिए महीनों पहले सक्रिय हो जाती हैं. किन्तु लोकसभा चुनाव 2024 को ध्यान में रखकर देश की दो प्रमुख पार्टियाँ- कांग्रेस और भाजपा जिस तरह लम्बे समय से युद्ध स्तर पर सक्रिय हैं, वैसा शायद स्वाधीन भारत के इतिहास में पहली बार हो रहा है. 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा स्वीप कर जाय और विपक्ष तिनके की भांति उड़ जाय, इसके लिए मोदी सरकार ने 22 जनवरी को अयोध्या में होने वाले राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा अनुष्ठान के जरिये जो चुनावी चक्रव्यूह तैयार की है, वह बेनजीर है.
बहरहाल अयोध्या में अभी-अभी संपन्न हुए राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के जरिये भाजपा ने जो चुनावी चक्रव्यूह रचा है, उसका शुभारम्भ 16 जनवरी को हो चुका था. इसके साथ ही अयोध्या में आस्था की बयार बहनी शुरू हो गयी है जो जल्द ही आंधी का रूप अख्तियार कर लेगी. प्राण- प्रतिष्ठा अनुष्ठान के जरिये मोदी - योगी ने 2024 के लोकसभा चुनाव में 400 सीटें जीतने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए देश भर के लाखों साधु-संतो, अखबारों और चैनलों के साथ कोटि-कोटि धर्म-भीरुओं को अपने चुनावी अभियान में जोड़ लिया है. प्राण-प्रतिष्ठा अनुष्ठान एक ऐसा इवेंट साबित होने जा रहा है जिसका असर पूरी दुनिया में दिखेगा. इस अनुष्ठान के आयोजकों के मुताबिक रामलला विग्रह की प्राण–प्रतिष्ठा से विदेशों में बसे भारतीयों का भी उत्साह बढ़ा है.
विपक्षी नेताओ को दिया था न्योता
आयोजकों का दावा है कि 50 से अधिक देशों में 500 से अधिक विविध सामूहिक अनुष्ठान के आयोजन को अंतिम रूप दिया गया था.अमेरिका में जहां 300 उत्सव हुए, ब्रिटेन में 25, कनाडा व ऑस्ट्रेलिया में 30, मारीशस में 100, जर्मनी में 10 आयोजन हुए. इन 50 से अधिक देशों में स्थित मंदिरों में लाइव प्रसारण के जरिये रामलला के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा को देखे गए तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिये उल्लास मनाया गया. इस आयोजन के जरिये राजनीति साधने के लिए फिल्म, स्पोर्ट्स जगत की सेलेब्रेटीज के साथ विपक्ष के नेताओं को भी इसमें शिरकत करने के लिए आमंत्रण–पत्र भेजा गया था. आयोजकों को पूरा विश्वास था कि विपक्ष के नेता नहीं आएंगे. इसके जरिये उन्हें राम- विरोधी बताकर राजनीतिक लाभ उठाया जायेगा. विपक्ष के जिन नेताओं को प्राण प्रतिष्ठा अनुष्ठान में शिरकत करने का नेवता दिया गया था, उनमे कांग्रेस सांसद और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ- साथ सोनिया गांधी और लोकसभा सांसद अधीर रंजन चौधरी भी रहे. तीनों ने समारोह में न जाने का फैसला किया. खड़गे और सोनिया गांधी ने भाजपा पर इस समारोह को राजनीतिक रंग देने का आरोप लगाये हैं. इनके साथ शरद पंवार, उद्धव ठाकरे, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, वृंदा करात को भी न्योता मिला था. पर सबने जाने से मना कर दिया है. किन्तु भाजपा उसका भरपूर राजनीतिक लाभ उठाने में इसलिए नहीं सफल हो पा रही है क्योंकि खुद चार धाम के शंकराचार्यों ने यह कहकर इस आयोजन से खुद को दूर कर लिया था कि मंदिर का निर्माण अधूरा है और उनके मुताबिक अधूरे मंदिर की प्राण- प्रतिष्ठा शास्त्र–विरुद्ध है.
प्राण प्रतिष्ठा समारोह चुनावी फायदे के लिए बन गया एक राजनीतिक अभियान
वैसे भाजपा के लोग कह रहे हैं कि प्राण-प्रतिष्ठा अनुष्ठान को राजनीति के साथ जोड़ कर नहीं देखना चाहिए. पर वास्तव में इस ऐतिहासिक अनुष्ठान के पीछे अभूतपूर्व राजनीति है, यह एक बच्चा भी बता देगा. यही कारण है कि विपक्ष के नेता 22 जनवरी को अयोध्या में नजर नहीं आए.
अयोध्या न जाने के पीछे विपक्ष की भावना का सही प्रतिबिम्बन इंडिया ब्लॉक से जुड़े वामपंथी सीताराम येचुरी के इस बयान में हुआ, जो सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुआ था. उन्होंने कहा था, ’मेरा नाम सीताराम है, इसलिए जानता हूँ कि धर्म का क्या अर्थ है? धर्म आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध है. किसी व्यक्ति के लिए परमात्मा क्या है, यह उस व्यक्ति की आत्मा ठीक करेगी: हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध- यह उस व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर है. एक बार उस व्यक्ति द्वारा निश्चित कर लेने के बाद किसी दूसरे के हस्तक्षेप के लिए कोई अवसर नहीं है. इसलिए धर्म और राजनीति के बीच एक रेखा है. उस रेखा को लांघना लक्ष्मण रेखा को लांघने जैसा विषय है. अयोध्या में मंदिर का उद्घाटन धर्म का राजनीतिकरण है. धर्म के राजनीतिकरण का विरोध करते हुए हम अयोध्या नहीं जा रहे हैं. धर्म का स्थान अपनी जगह है, उस भावना का हम सम्मान करते हैं लेकिन धर्म के साथ राजनीति को जोड़ने का खेल नहीं होना चाहिए !’
इस मामले में बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर ने श्री राम जन्मभूमि तीर्थ ट्रस्ट को संबोधित करते हुए 17 जनवरी को जो पत्र लिखा है, वह अलग से लोगों को सोचने के लिए विवश किया.
उन्होंने लिखा था, ’श्री राम जन्मभूमि मंदिर, अयोध्या की प्राण प्रतिष्ठा में आमंत्रित करने के लिए आपका धन्यवाद ! कथित समारोह में, मैं शामिल नहीं होऊंगा. मेरे शामिल न होने का कारण यह है कि बीजेपी और आरएसएस ने इस समारोह को हथिया लिया है. एक धार्मिक समारोह चुनावी फायदे के लिए एक राजनीतिक अभियान बन चुका है. मेरे दादा डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर ने चेताया था कि, ’अगर राजनीतिक पार्टियाँ धर्म, पंथ, को देश से ऊपर रखेंगी, तो हमारी आज़ादी दूसरी बार खतरे में आ जाएगी, और इस बार शायद हम उसे हमेशा के लिए खो देंगे.’ आज ये डर सही साबित हो गया है.
धर्म, पंथ को देश से ऊपर रखने वाली भाजपा-आरएसएस अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस समारोह को हड़प चुकी है.’
आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक निकाला था रथ यात्रा
यह तथ्य है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण भाजपा की स्थापना के समय से ही उसके एजेंडे में रहा है और सितम्बर 1990 में एलके अडवाणी द्वारा राम मंदिर निर्माण के सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा निकलने के बाद उसके शीर्ष एजेंडे में आ गया. उसके बाद भाजपा उत्तरोत्तर यह नारा देकर–रामलला हम आयेंगे- मंदिर वहीँ बनायेंगे- चुनाव दर चुनाव मजबूत होती गयी. और अब जबकि 22 जनवरी को राममंदिर के प्राण–प्रतिष्ठा की घोषणा हो चुकी है वह 2024 के लोकसभा चुनाव में जमकर इसकी फसल काटने की तैयारियों में जुट जाएगी.
चुनावी फसल काटने के लिए भाजपा और उसके पितृ संगठन आरएसएस ने प्राण प्रतिष्ठा समारोह के बाद मार्च तक करीब ढाई करोड़ लोगों को अयोध्या में भगवान श्रीराम के दर्शन कराने का लक्ष्य स्थिर किया है. इसके तहत राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खिलाडियों के साथ गीत-संगीत, नृत्य-अभिनय, कला-साहित्य से जुड़ी हस्तियों; साधु-संतों को राम मंदिर दर्शन कराने के लिए अयोध्या ले जाने प्लान बना रखा है. इस कारण ही वर्षों से राम मंदिर के नाम पर चुनाव जीतने का अभ्यस्त भाजपा 2024 में 543 में से 400 सीटें पार जाने का मंसूबा पाल ली है. बहरहाल अगर भाजपा प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के जरिये 400 से अधिक सीटें जीतने का प्लान कर रही है तो उसकी प्रतिपक्षी कांग्रेस भी भाजपा को शिकस्त देने के लिए 14 जनवरी से एक और भारत जोड़ो यात्रा शुरू कर दी है.
14 जनवरी से शुरू हुई राहुल भारत जोड़ो न्याय यात्रा
स्मरण रहे अपने पूर्ववर्ती महान नेताओं का अनुसरण करते हुए सवा साल पहले राहुल गांधी ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के जरिये जनता से संवाद बनाने के लिए सड़कों पर उतरे और पैदल ही प्रायः 4,000 किमी लम्बी ऐसी यात्रा कर डाले, जिसकी तुलना भारत का इतिहास बदलने वाली महात्मा गांधी की दांडी यात्रा से ही हो सकती है.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा शुरू किया गया भारत जोड़ो यात्रा एक जनांदोलन रहा, जिसका उद्देश्य भाजपा नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की विभाजनकारी राजनीति के खिलाफ देश को एकजुट करना रहा. इसे मूल्यवृद्धि, बेरोजगारी, राजनीतिक केन्द्रीकरण और विशेष रूप से भय- कट्टरता की राजनीति और नफरत के खिलाफ लड़ने के लिए बनाया गया था. इसे कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और सांसद राहुल गाँधी और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन द्वारा 7 सितम्बर, 2022 को कन्याकुमारी में लॉन्च किया गया, जिसका समापन राहुल गाँधी ने 30 जनवरी, 2023 को 21 गैर- एनडीए दलों की उपस्थिति में श्रीनगर के ऐतिहासिक क्लॉक टावर पर राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर किया था. उस यात्रा ने राहुल गांधी की छवि में आमूल बदलाव कर उन्हें जननायक के रूप में स्थापित कर दिया. वह यात्रा कर्णाटक और तेलंगाना विधान सभा चुनावों में ऐतिहासिक सफलता दिलाने में प्रभावी हुई थी.
इस बार भारत जोड़ो यात्रा के साथ ‘न्याय’ शब्द जोड़कर इसका नाम ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ रखा गया है.
14 जनवरी को मणिपुर के थौबल से शुरू हुई यह यात्रा नगालैंड, असम, मेघालय, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात से होते हुए 66 दिन बाद, 20 मार्च, 2024 को मुम्बई में समाप्त होगी. इस यात्रा के दौरान राहुल गांधी 14 राज्यों के 85 जिलों से गुजरते हुए 6,500 किमी की दूरी तय करेंगे. इस यात्रा पर अपनी राय देते हुए कांग्रेस के संचार प्रभारी जयराम रमेश ने कहा है कि राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा ने लोगों को आर्थिक असमानता, सामाजिक ध्रुवीकरण और राजनीतिक तानाशाही के प्रति जागरूक किया है. वहीं ‘भारत जोड़ो न्याय’ यात्रा में जोर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय पर होगा. देश में लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के प्रति लोगों को जागरूक किया जायेगा.’
बहरहाल इन पंक्तियों के लिखे जाने दौरान इस यात्रा के एक सप्ताह पूरे हो चुके है. इस यात्रा के प्रति पूर्वोत्त्तर भारत के लोगों का उत्साह देखकर राजनीतिक विश्लेषक विस्मित हैं. यात्रा में राहुल गाँधी को सुनने के लिए जो भीड़ उमड़ रही है और राहुल गांधी जिस आक्रामक तेवर के साथ अपनी बात रख रहे हैं, उससे भाजपा के होश उड़ गए हैं. इसे देखते हुए बहुत से टिप्पणीकार यह कहने लगे हैं कि प्राण–प्रतिष्ठा के सहारे 400 पार करने का सपना देख रही भाजपा का हश्र कहीं 2004 के शाइनिंग इंडिया जैसा न हो जाय !
तीसरे खेमे की गुंजाइश नहीं दिख रही
बहरहाल लोकसभा चुनाव करीब है और जिस तरह माहौल बन रहा है उसमें देश के मतदाताओं के कांग्रेस के नेतृत्व वाली ‘इंडिया’ और भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए : दो खेमों में बंट जाने के आसार दिखने लगे हैं. अयोध्या के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह और राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा से देश में जो माहौल बन रहा है, उसमें तीसरे खेमे की गुंजाइश नहीं दिख रही है. मतदाता या तो कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के साथ लामबंद होंगे या भाजपा नीत एनडीए के साथ. ऐसे में देश की दोनों प्रमुख पार्टियों में किसी एक साथ जुड़ने का मन बनाने के पहले मतदाताओं, विशेषकर बहुजन वोटरों को इस बात का जायजा ले लेना चाहिए कि 2024 में इनके सत्ता में आने से क्या मिल सकता है!
वैसे तो अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक़ राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के चलते 2024 लोकसभा चुनाव में भाजपा के अवसर बेहतर हैं, पर यदि इंडिया ब्लॉक ठीक से संगठित हो जाए तो 2004 के उस इतिहास की पुनरावृति हो सकती है, जब भाजपा शाइनिंग इंडिया के नारे के साथ सत्ता में वापसी के प्रति आज की भांति ही बहुत आशावादी थी. किन्तु सोनिया गांधी ने विभिन्न विपक्षी दलों को संप्रग के रूप में संगठित बड़ा विस्मय घटित कर दिया था. लेकिन 2004 सोनिया गाँधी ने जो चमत्कार घटित किया था, वैसा राहुल गाँधी भी कर सकते हैं, ऐसा मानने वालों की खूब कमी नहीं है.
बहरहाल कांग्रेस यदि सत्ता में आती है तो वह फ़रवरी 2023 में रायपुर के 85 वें अधिवेशन में पारित प्रस्तावों का अनुसरण करते हुए उच्च न्यायपालिका में दलित, आदिवासी, पिछड़ों को आरक्षण दिलाने के लिए भारतीय न्यायायिक सेवा आयोग गठित कर सकती है. रायपुर में कांग्रेस ने इन वर्गों के लिए बजट में हिस्सा निर्धारित करने तथा उनमें से गरीब तबकों को कमजोर वर्ग ( ईडब्ल्यूएस) के कोटे शामिल करने का जो प्रस्ताव पास किया था, उसे जमीन पर उतार सकती है. कांग्रेस सत्ता में आने के साथ-साथ महिला आरक्षण में कोटा में कोटा लागू कर सकती है. जाति जनगणना के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक जनगणना की भी शुरुआत कर सकती है. भारत के सबसे बड़े सामाजिक समूह ओबीसी के उत्त्थान के प्रति समर्पित एक मंत्रालय भी गठित कर सकती है. दलित, आदिवासी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों के शैक्षणिक परिसरों में होने वाले भेदभाव को दूर करने के लिए कांग्रेस ‘रोहित वेमुला अधिनियम बना सकती है. प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय विकास परिषद के तर्ज पर ‘सामाजिक न्याय विकास परिषद’ गठित कर सकती है.
कांग्रेस के सत्ता में आने पर आशावादी हुआ जा सकता है कि वह आरक्षण की मौजूदा 50 प्रतिशत सीमा हटाकर, कानून लाकर दलित, आदिवासी और ओबीसी को उनके आबादी के हिसाब से भागीदारी देगी. धन-संपदा के असमान बंटवारे के विरुद्ध जैसी गर्जना राहुल गांधी कर रहे हैं, आज़ाद भारत में शायद वैसा किसी ने नहीं किया. ऐसे में कांग्रेस के मजबूती से सत्ता में आने पर एससी, एसटी, ओबीसी को धन-संपदा में उचित हिस्सेदारी पाने के प्रति आशावादी हुआ जा सकता है.
सबसे बड़ी बात है कि राहुल गांधी ताल ठोकर जितनी आबादी- उतना हक़ की बात उठा रहे हैं, इससे आजाद भारत में विभिन्न सामाजिक समूहों के मध्य शक्ति के स्रोतों के बंटवारे का जो काम आज तक नहीं हो पाया, उसके बंटवारे का मार्ग प्रशस्त हो सकता है.
कांग्रेस की जगह यदि भाजपा सत्ता में आती है तो, उससे बहुजनों को क्या मिल सकता है, इसका जायजा लेने के लिए उस दौर का सिंहावलोकन करना पड़ेगा, जब मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी. मार्क्स के कालजयी सिद्धांत वर्ग संघर्ष पर भी दृष्टिपात करना पड़ेगा
मंडल के दौर का सिंहावलोकन करने के पहले मार्क्स के कालजयी सिद्धांत: वर्ग–संघर्ष पर भी दृष्टिपात कर लेना पड़ेगा. मार्क्स ने कहा है, ’अब तक के विद्यमान समाजों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है. एक वर्ग वह है, जिसका उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व रहता है. अर्थात जिसका शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक–पर एकाधिकार रहता है. दूसरा वह है जो शक्ति के समस्त स्रोतों से बहिष्कृत : शोषित एवं निष्पेषित है. मार्क्स के अनुसार समाज के शोषक और शोषित : ये दो वर्ग सदा ही आपस में संघर्षरत और इनमें कभी भी समझौता नहीं हो सकता. जहां तक भारत में वर्ग संघर्ष का सवाल है यह हिन्दू धर्म के प्राणाधार, उस वर्ण-व्यवस्था में क्रियाशील रहा जो मुख्यतः शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था रही है. वर्ण-व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण के लिए पेशे निर्दिष्ट रहे. ब्राह्मणों का पेशा अध्ययन- अध्यापन, राज्य - संचालन में मंत्रणा दान; क्षत्रिय का राज्य और सैन्य संचालन के साथ भूस्वामित्व और वैश्यों का पेशा पशु-पालन व व्यवसाय- वाणिज्य रहा. इसमें स्व-धर्म पालन के लिए कर्म- शुद्धता की अनिवार्यता और कर्म-संकरता की निषेधाज्ञा के फलस्वरूप वर्ण–व्यवस्था ने एक आरक्षण-व्यवस्था : हिन्दू- आरक्षण का रूप अख्तियार कर लिया. पेशे /कर्मों की विचलनशीलता की निषेधाज्ञा के कारण हिन्दू आरक्षण में चिरकाल के लिए शक्ति के समस्त सवर्णों के लिए आरक्षित हो गए. हिन्दू आरक्षण में शुद्रातिशूद्रों (दलित–पिछड़ों ) के हिस्से में आई तीन उच्च वर्णों की सेवा, वह भी पारश्रमिक रहित. हिन्दू धर्म शास्त्रों द्वारा सुपरिकल्पित रूप से चिरकाल के लिए शक्ति के स्रोतों से बहिष्कार के कारण शुद्रातिशूद्र दैविक- सर्वस्वहारा बनने के लिए अभिशप्त हुए. उनकी स्थिति हिन्दू धर्म के गुलामों के रूप में रही. इनमें दलितों की स्थिति गुलामों के गुलाम के रूप में रही. वे शक्ति के समस्त स्रोतों से तो बहिष्कृत रहे ही, उन्हें अच्छा नाम तक रखने और मंदिरों में घुसकर ईश्वर के समक्ष अपने दुःख-मोचन के लिए प्रार्थना करने तक का अवसर नहीं रहा.
पूना-पैक्ट के जमाने से ही संघ रहा आरक्षण का विरोधी
हिन्दू समाज के इन्हीं गुलामों के गुलामों की मुक्ति का संकल्प बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने लिया और उन्हें आरक्षण दिलाने में सफल हुए. भाजपा का पितृ संगठन आरएसएस पूना पैक्ट के जमाने से ही इस आरक्षण के खिलाफ रहा. अम्बेडकरी आरक्षण से दलित - आदिवासी सांसद- विधायक, डॉक्टर,प्रोफ़ेसर, बाबू, मैनेजर इत्यादि बनने लगे. संघ परिवार के लिए यह असहनीय था, क्योंकि इससे हिन्दू धर्म-शास्त्र और ईश्वर भ्रांत लगने लगे. ऐसे में संघ बराबर आरक्षण के खात्मे के अवसर की तलाश में रहा. और जब 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित हुई, उसे यह अवसर मिल गया. मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होते ही दलित, आदिवासी, पिछड़े व इनसे धर्मान्तरित तबके भ्रातृ- भाव लिए एक दूसरे के करीब आने लगे और उनके शासक वर्ग में उभरने के लक्षण दिखने लगे. तब मार्क्स का वर्ग- संघर्ष खुलकर सामने आ गया. मंडलवादी आरक्षण के खिलाफ हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग के सभी तबके : छात्र और उनके अभिभावक, साधु-संत, मीडिया कर्मी, लेखक इत्यादि लामबंद होकर आन्दोलन चलाने लगे. इसी दौर में मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के प्रायः डेढ़ महीने बाद 25 सितम्बर, 1990 को भाजपा के एलके अडवाणी ने रामजन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन छेड़ते हुए सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथ यात्रा निकाल दिया. राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन में संघ परिवार ने बाबर की संतानों के प्रति वंचित जातियों में वर्षों से संचित अपार नफरत और राम के प्रति दुर्बलता का जमकर सद्व्यवहार किया. राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन के सहारे चुनाव दर चुनाव भाजपा राम मंदिर निर्माण का मुद्दा उठाकर राजनीतिक सफलता के नए-नए अध्याय रचती गयी.
राम मंदिर से मिली राजसत्ता का इस्तेमाल संघ प्रशिक्षित प्रधानमंत्रियों ने मुख्यतः आरक्षण के खात्मे में किया. इस मामले में प्रधानमंत्री मोदी ने वर्ग- संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए बहुजनों को लगभग उस स्टेज में पहुंचा दिया है, जिस स्टेज में उन्हें रहने का निर्देश हिन्दू धर्म शास्त्र देते हैं. उन्होंने राम के नाम पर मिली सत्ता का इस्तेमाल श्रम कानूनों को शिथिल करने, लाभजनक दर्जनों सरकारी कंपनियों, रेलवे, हवाई अड्डों, बंदरगाहों, बस अड्डों, हास्पिटलों इत्यादि को निजी हाथों में देने में किया. उसके पीछे दो मकसद रहे पहला, बहुजनों का आरक्षण ख़त्म करना और दूसरा शक्ति के समस्त स्रोत हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग(मुख-बाहु- जंघे) से जन्मे लोगों के हाथो में देना है, जिसका समर्थन हिन्दू धर्म-शास्त्र करते हैं. आज जिस राम मंदिर की प्राण- प्रतिष्ठा हुई है, वह राम मंदिर सामाजिक न्याय और दलित-पिछड़ों के अधिकार की कब्र पर विकसित हुआ है. इस विशाल आयोजन के जरिये यदि 2024 में भाजपा एक बार फिर सत्ता में आ जाती है, जिसकी प्राण प्रतिष्ठा के बाद काफी सम्भावना दिख रही है, तो भारत के उस दौर में जाने की जमीन काफी पुख्ता हो जाएगी, जिस दौर में दलित, आदिवासी, पिछड़े और महिलाएं हिन्दू धर्म–शास्त्रों के सौजन्य से शक्ति के समस्त स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत रहे!
एच.एल. दुसाध
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)
What will the Bahujans get from the campaigns of BJP-Congress?