भाजपा-कांग्रेस गठबंधन 2014 में !
भाजपा-कांग्रेस गठबंधन 2014 में !
सामाजिक परिवर्तन की दशा और दिशा
सुन्दर लोहिया
सामाजिक क्रान्ति के बिना राजनीतिक क्रान्ति सम्भव नहीं होती। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में महात्मा गान्धी इस ऐतिहासिक सत्य से परिचित अवश्य थे। उन्होंने देश के मुक्ति आंदोलन के साथ अस्पृश्यता से हरिजन मुक्ति महिलाओं को घर की चहारदिवारी से मुक्त करके राजनीतिक आंदोलन में बराबर की हिस्सेदार बनाकर सामाजिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया था। लेकिन उस समय तक कांग्रेस पार्टी का सामाजिक चरित्र जिस प्रकार का था उससे किसी प्रकार के कारगर परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। उस समय इस पार्टी में दोनों जातियों के धुर दक्षिणपंथियों और रूढि़वादियों का वर्चस्व था जो सामाजिक कार्यक्रमों को दिखावे के तौर पर अपनाकर उन प्रयासों को दिशाहीन और निरर्थक बना रहे थे। वे दिखावे के लिए हरिजनों और मुस्स्लिम नेताओं के साथ बातचीत के लिए बैठ ज़रुर जाते लेकिन घर पहुंच कर अपने नितनियम का पालन करते हुए स्नान करके शुद्धि भी कर लेते थे।
लगभग यही स्थिति वर्तमान में भी बनी हुई है यद्यपि आज सामाजिक आन्दोलन के नाम पर कई धार्मिक और जातिवादी आन्दोलन प्रचलित हैं लेकिन आंदोलनकर्ताओं की संकीर्ण एवं पूर्वाग्रहग्रसित जीवनदृष्टि इन आन्दोलनों को सामाजिक समरसता के बजाए सामाजिक विषमता की ओर धकेल रही है। बाबाओं और कुछ बाबुओं ने जनता में पनप रहे आर्थिक आक्रोश को तोड़-मरोड़ कर इस देश में सामाजिक आन्दोलन के विकसित होने की परिस्थियों को पीछे धकेल दिया है। अब जनता कभी बाबा रामदेव के कालेधन को विदेश से लाकर देश की गरीबी समाप्त करने की ओर लपकती है तो कभी भारतीय राजस्वसेवा से छिटक कर आये केजरीवाल के जनलोकपाल को देश की तमाम मुश्किलों को रामबाण मानकर चुनाव की वैतरणी में उतरी नज़़र आ रही है। दूसरी ओर आसाराम की भजनमण्डली बलात्कार की रासलीला रचाने के बाद भगवान को अपना यार बता कर पुलिस और प्रशासन को नरक भेजते-भेजते खुद जेल पहुंच गये हैं। राजनीति में समाजवाद का झण्डा उठाये मुलायम बाबरी मस्जिद में मुसलमानों को समझाने का बीड़ा उठाकर भगवा बिग्रेड की राजनीतिक शतरंज का मोहरा बन कर अब मुंह में तिनका दबाये इधर उधर भाग रहे हैं। उधर पिछड़ों की राजनीति में अगुवा बनते-बनते लालू यादव चारा घेटाला के कारण जेल तो पहुंचे ही साथ में सांसद के पद से भी हाथ धे बैठे। महात्मा गान्धी की हत्या के मामले में बचने के लिए राजनीति से दूर रहने का वायदा लिखकर दे चुकने के कारण संघ अब लुका छिपी की राजनीति कर रहा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आड़ में कभी काश्मीर को तीन भागों में बांट कर लद्दाख और जम्मू को काश्मीर घाटी से अलग करने की वकालत करता है, कभी कश्मीरी पण्डितों के विस्थापन को लेकर कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता पर हमला करता है। अब नरेन्द्र मोदी को पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की इच्छा के विरुद्ध प्रधानमन्त्री के उम्मीदवार के तौर पर थोप कर हिन्दुत्व का अंतिम दांव खेलने की कोशिश में मुब्ब्तिला है। मायावती सोशल इंजीनियरिंग करते हुए हाथियों के लम्बे चौड़े स्मारक बनवाकर अपनी राजनीतिक छवि धूल में मिला चुकी हैं। तृणमूल कांग्रेस ममता के निर्मम आवेश के कारण अपना जनाधार खो रही है। माओवादियों के साथ मिलकर माकपा को धूल चटाने के बाद अब ममता दीदी उन्हें शस्त्र त्यागकर शासन को सहयोग देने का उपदेश देने लगी हैं। स्कूल जाते बच्चे के बस्ते में रखी किताब के कारण वह बच्चा ममता को माकपा का सदस्य लगने लगा है। ऐसे में जिस जनाधार के सहारे उसने माकपा को धकेला वह उसके पांव के नीचे से खिसक चुका है। क्षेत्रीय दलों में तामिल पार्टियां अपने क्षेत्र से बाहर निकलने के लिए मानसिक तौर पर तैयार नहीं हैं इसलिए उनका प्रभाव तामिलनाडु से बाहर कहीं पड़ता नज़र नहीं आता।
कुल मिलाकर इस समय सत्ताधारी कांग्रेस और विपक्ष की प्रमुख पार्टी भाजपा के अलावा अपनी ग़लतियों की मार झेलती वामपंथी पार्टियां दावेदार नज़र आती हैं। इनमें भाजपा और कांग्रेस एक समान आर्थिक नीतियों के कारण केवल कांग्रेस दक्षिण पंथी रुझान के बीच वामपंथी झुकाव के साथ समाजवादी ढांचे की दावेदार मानी जाती थी जो अब संदेह के घेरे में है। कुछ राजनीतिक पण्डितों के अनुसार कांग्रेस और भाजपा का गठबन्धन भी दो हज़ार चौदह के बाद सत्तासीन हो सकता है। पर ऐसे में कोई यह सोचे कि वामपंथ देश के राजनीतिक मानचित्र से हट जायेगा तो वह गलतफहमी का शिकार ही होगा क्योंकि देश इस समय जिस प्रकार के आर्थिक संकट से गुज़र रहा है उसका समाधान पूंजीवादी आर्थिक नीतियों द्वारा सम्भव नहीं है। यह संकट इन्ही नीतियों की उपज है इसलिए इनका उन्मूलन समाजवादी आर्थिक नीतियों में ही समाहित है। मुख्य सवाल यह है कि इन नीतियों के समर्थन में जनता कब खड़ी होगी?
अगर वैश्विक राजनीति का कोई प्रभाव इस देश की जनता पर पड़ता है तो वह हमेशा वामपंथी राजनीति का समर्थक होता है जैसा हमारे देश के स्वाधीनता संग्राम को सोवियत क्रांति ने प्रभावित किया और उसे डोमेनियन स्टेटस की राजनीति से बाहर निकाल कर पूर्ण स्वराज की अवधारणा से जोड़ा और रोटी रोज़ी और मकान का नारा देकर देश के सर्वहारा को स्वाधीनता आन्दोलन का भागीदार बनाया। अस्पृश्यता जैसी अमानवीयता को अस्वीकार करके वयस्क मताधिकार का अधिकार उस महान क्रांति की प्रेरणा नहीं तो और क्या है? स्वाधीनता आन्दोलन में वामपंथी विचारधारा का प्रभाव उसके नारों में भी साफ झालकता है। रोटी रोजी और मकान की मांग दक्षिणपंथी राजनीति तो उठाती नहीं। उसका मकसद अंग्रेज़ों को हटाकर स्वराज के नाम पर अपना राज कायम करने तक सीमित था। उस समय की राजनीति का गर्मदल वामपंथ की ओर झुका हुआ राजनीतिक मंच था। जो लोग विचारधारा का अंत घोषित करके पूंजीवाद के निरकुंश विकास की हिमायत कर रहे हैं उन्हें अमेरिका की दादागिरी के विरुद्ध ब्राज़ील चीन भारत और रूस के गठबन्धन में उठाये जा रहे सवालों को समझने की ज़रूरत है। ये सवाल अब केवल इन मुल्कों तक सीमित नहीं रह सकते। अमेरिका ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के दम पर आतंकवाद की आड़ में अपने साम्राज्यवादी शिकंजा फैलाता जा रहा है। दक्षिणी अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका और एशियाई देशों में मध्यएशिया में अमेरिकी दादागिरी के खिलाफ उभर रहा है और ब्रिक देशों के दबाव में भारत का अमेरिका के कारनामों का विरोध करना इस बात का प्रमाण है कि इस देश की समस्याओं का समाधान अमेरिका समर्थित नवउदारवादी नीतियों के बजाये वामपंथ के पास है।


