भाजपा के दलित प्रेम की खुलती कलई
भाजपा के दलित प्रेम की खुलती कलई
0 राजेंद्र शर्मा
दयाशंकर सिंह की टिप्पणी आने से पहले कौन यह सोच सकता था कि किसी ज्यादा से ज्यादा मंझले दर्जे के नेता की एक टिप्पणी न सिर्फ राजनीति में अच्छा खासा तूफान खड़ा कर देगी बल्कि देश के सबसे बड़े राज्य के चुनावों की सामाजिक कतारबंदियों को एकाएक इतना स्पष्ट कर देगी।
बेशक, ज्यादातर टिप्पणीकार और उत्तर प्रदेश की राजनीतिक स्थिति के जानकार, इस पर तो प्राय: एक राय ही हैं कि दयाशंकर सिंह ने, दलितों के एक अच्छे-खासे हिस्से को अपनी ओर खींचने की भाजपा की सारी मेहनत पर, कम से कम उत्तर प्रदेश में तो पानी फेर ही दिया है।
इसी का दूसरा पक्ष यह भी है कि मायावती को बहुत की भोंड़े तरीके से निशाना बनाकर, भाजपा के इस अति-अल्पकालिक राज्य उपाध्यक्ष ने, उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी के प्रमुख प्रतिद्वंद्वियों में से एक बसपा को, पिछले कुछ महीनों से लगातार आ रही टूट-फूट की बुरी खबरों से उबरकर, अपनी कतारों को एकजुट तथा सक्रिय करने का मौका दे दिया है।
लेकिन, इस सचाई को ओर टिप्पणीकारों का कम ही ध्यान गया है कि बहनजी के खिलाफ तत्कालीन भाजपा नेता की इन शर्मनाक टिप्पणियों को, लखनऊ में बसपा के रोष प्रदर्शन में जिस तरह दयाशंकर सिंह के परिवार की महिलाओं के खिलाफ दोहराया गया है, उसने भाजपा को भी दो-घोड़ों पर एक साथ सवारी की दुविधा से कम से कम उत्तर प्रदेश में उबरने का बहाना और प्रयोजन दे दिया है।
गौरतलब है कि भाजपा ने इसके बाद, सिर्फ दयाशंकर सिंह और उनकी टिप्पणी से खुद को बचाने की मुद्रा ही नहीं छोड़ी बल्कि इस पूरे मामले को अभद्र भाषा के प्रयोग की ‘दयाशंकर बनाम बसपा कार्यकर्ता होड़’ का मामला बनाकर, उसकी तोहमत से खुद एक हद तक पीछा छुड़ाने के मौके के लिए दरवाजा भी बंद कर दिया।
इसके बजाए, ‘बेटी के सम्मान में, भाजपा मैदान में’ के नारे के साथ खासतौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में सडक़ों पर उतरकर, भाजपा ने अपने सवर्ण आधार को इसका भरोसा दिलाना ही ज्यादा जरूरी समझा कि दलितों से झगड़े में वह उनके साथ है।
संकेतों में यह भी कहा गया है कि भाजपा, दयाशंकर सिंह की पत्नी को, जाहिर है कि सिंह की एवज में आने वाले विधानसभाई चुनाव में भी उतार सकती है।
जाहिर है कि अगर ऐसा होता है तो यह नाति-परोक्ष तरीके से दयाशंकर सिंह को ही चुनाव लड़ाना होगा।
यह भी दिलचस्प है कि भाजपा ने दुविधा छोड़कर इस विकल्प को अपनाने का एलान ठीक उस रोज किया, जिस रोज प्रधानमंत्री गोरखपुर के दौरे पर थे और भाजपा-विहिप के संतों की इसकी अपीलें सुन रहे थे कि आदित्यनाथ को ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए क्योंकि वही अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण कराएंगे!
इस तरह, इस विवाद को बसपा और भाजपा, दोनों ने ही अपने परंपरागत आधार को संभालने तथा मजबूत करने के मौके में तब्दील कर लिया है।
यह दूसरी बात है कि इस चक्कर में दोनों के ही सीमित सामाजिक आधार को दिखाने वाले मूल चेहरे चमककर सामने आ गए हैं। इसका उत्तर प्रदेश के आने वाले चुनाव पर क्या असर पड़ेगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन इतना तय है कि इसमें उत्तर प्रदेश के आने वाले चुनाव में, पिछले आम चुनाव के मुकाबले कहीं बहुत तीखा सामाजिक धु्रवीकरण होने के संकेत छुपे हुए हैं।
वास्तव में यह भी कहा जा सकता है कि इसके साथ हड़बड़ी में एक तरह से उत्तर प्रदेश विधानसभाई चुनावों का अभियान ही शुरू हो गया है।
यह संयोग ही नहीं है कि बसपा अध्यक्ष ने फौरन उत्तर प्रदेश में प्रस्तावित व्यापक विरोध प्रदर्शनों का कार्यक्रम खारिज कर, अगले महीने के मध्य में एक प्रकार से एक बड़ी चुनावी रैली का कार्यक्रम बना लिया है।
यह कम से कम भाजपा के लिए अच्छी खबर नहीं है।
दयाशंकर सिंह का बयान उत्तर प्रदेश के चुनाव में उसके लिए वैसे ही भारी पड़ सकता है, जैसे बिहार के इतने ही महत्वपूर्ण चुनाव में आरक्षण पर पुनर्विचार का आरएसएस प्रमुख, भागवत का बयान पड़ गया था।
भाजपा के दुर्भाग्य से, दलितों के महत्वपूर्ण हिस्से को, आंबेडकर के समारोहों/ भव्य स्मारकों और ‘अछूत घर भोज’ के प्रतीकों के ही जरिए, भाजपा के साथ जोड़ने की मोदी-शाह जोड़ी की कोशिशों पर पानी फेरने वाले, एक दयाशंकर सिंह ही नहीं हैं। उल्टे दयाशंकर सिंह से होड़ लेकर, इन कोशिशों की अपनी बुनियादी सीमाओं ने भी बाकायदा अपना जोर दिखाना शुरू कर दिया है। वास्तव में बसपा ने भले ही दलितों के साथ सत्ताधारी संघ-भाजपा के सलूक के मुद्दे को मुख्यत: मायावती के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणियों पर केंद्रित रखा हो, संसद में और संसद से बाहर भी इस पर हुई बहस स्वाभाविक रूप से गोरक्षा के नाम पर देश के विभिन्न हिस्सों में खासतौर पर चमड़े का काम करने वाले दलितों पर और मवेशियों की खरीद-फरोख्त करने वाले मुसलमानों पर हो रहे भयानक हमलों की ओर मुड़ गयी।
गुजरात में जुलाई के पहले पखवाड़े में ही गीर-सोमनाथ जिले के अंतर्गत ऊना प्रखंड के अंतर्गत मोटा समधियाला गांव में, मरी गाय की खाल उतार रहे सात दलितों को गोहत्यारा करार देकर, तथाकथित गोरक्षकों द्वारा बुरी तरह से यातनाएं दिए जाने की घटना ने, इस बहस को उत्तेजित किया था।
याद रहे कि कि गुजरात के संदर्भ में कथित गोरक्षकों के हमलों के शिकार के तौर पर मुसलमानों और दलितों की एक जैसी नियति के सामने आने का खास महत्व है। इस राज्य में 2002 के मुस्लिमविरोधी नरसंहार में, संघ परिवार ने सफलता के साथ दलितों को अपना हथियार बनाया था।
याद रहे कि मोटा समधियाला की घटना, इस तरह की पहली घटना किसी भी तरह नहीं थी। ऐसा भी नहीं है कि तथाकथित गोरक्षकों के हिंसक हमले, गाय का मांस खाने के नाम पर अखलाक की नृशंस हत्या से लेकर, गो-तस्करी के संदेह के नाम पर हरियाणा, हिमाचल, झारखंड आदि में मुसलमानों की बर्बर हत्याओं तथा हिंसक हमलों तक ही सीमित रहे हों।
गाय की खाल उतारने के लिए दलितों पर हमले की यह पहली घटना किसी भी तरह नहीं थी।
इसके बावजूद, यह घटना जिस तरह खासतौर पर गुजरात में दलितों के विक्षोभ के अभूतपूर्व विस्फोट के लिए पलीता बनने तक पहुंची, वह हमारे देश में दलित राजनीति की गहरी विडंबनाओं को भी दिखाता है।
हिंदुत्ववादी गोरक्षकों ने न सिर्फ इन दलितों को सार्वजनिक तौर पर तथा पुलिस की स्पष्ट हिस्सेदारी के साथ निर्ममता पीटा था और गाड़ी के पीछे बांधकर पीटते हुए चार नौजवानों का शहर भर में जुलूस तक निकाला था, उन्होंने अपनी इस ‘शौर्य गाथा’ को सारी दुनिया को दिखाने के लिए वीडियो भी बनाया था और उसे इंटरनेट पर डाला था। यह दूसरी बात है कि उनकी यही निर्लज्जता दलितों के गुस्से के जबर्दस्त विस्फोट का बहाना बन गयी।
वैसे विक्षोभ के इस ज्वार में भी चरम हताशा की जैसी अभिव्यक्ति हो रही थी, उसने भी अपनी ओर सभी-सोचने विचारने वाले लोगों का ध्यान खींचा है।
दलित संगठनों के आह्वान पर हुए गुजरात बंद के गिर्द, विरोध स्वरूप 20 से ज्यादा युवाओं के आत्महत्या की कोशिश करने को, जितना विकास के गुजरात मॉडल की सामाजिक तली की असलियत का खुलासा माना जाएगा, उतना ही देश में दलितों का प्रतिनिधित्व कर सकने वाली राजनीति से निराशा माना जाएगा।
इसमें दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाली सबसे बड़ी पार्टी होने की दावेदार, बसपा से निराशा भी शामिल है।
फिर भी आंबेडकर की भाजपा की दुहाई ही नहीं, देश में दलितों के नाम पर चल रही राजनीति से भी सबसे बढ़कर दलितों की ही निराशा तथा नाराजगी की और भी आंखें खोलने वाली अभिव्यक्ति, आंबेडकर भवन ढहाए जाने के खिलाफ इसी महीने के मध्य में मुंबई में हुई विराट रैली में देखने को मिली।
मुंबई में मूल आंबेडकर भवन को गिराकर, उसकी जगह पर अत्याधुनिक व भव्य भवन खड़ा किए जाने के परंपरागत दलित नेताओं द्वारा अनुमोदित विचार को ठुकराने के लिए जमा हुए दसियों हजार दलितों की इस रैली को, जाने-माने दलित लेखक तथा सिद्धांतकार आनंद तेलतुम्बड़े ने, अपेक्षाकृत संपन्न दलितों के खिलाफ साधारण, गरीब दलितों का विद्रोह यूं ही नहीं कहा है।
बसपा समेत मौजूदा दलित पार्टियां उस मुकाम पर पहुंच गयी हैं, जहां वे भाजपा जैसी पार्टियों द्वारा अपनी सवर्णवादी विचारधारा के बावजूद, आंबेडकर जैसे दलित आइकनों को हड़पने की कोशिशों का कारगर तरीके से मुकाबला तो नहीं ही कर पा रही हैं, वे दलितों के बढ़ते असंतोष को भी कोई दिशा, कोई भरोसा नहीं दे पा रही हैं।
संघ-भाजपा के दलित-प्रेम की कलई तो खुल ही रही है,
दलितों जातिगत पहचान की राजनीति की से दलितों की निराशा भी खुलकर प्रकट हो रही है। मेहनत-मशक्कत करने वालों को आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, हरेक पहलू से वंचित रखने वाली व्यवस्था को बदलने के लिए, वंचितों की और बड़ी फौज के हिस्से के तौर पर लड़ने में ही दलितों की मुक्ति है, अन्य वंचितों से अलग चलने में नहीं। 0


