-एच. एल. दुसाध

उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव शेष दो चरणों की ओर अग्रसर है. यह चुनाव लगभग पूरी तरह मुद्दाविहीन है. विगत कई चुनावों की भांति इसमें भी शक्ति के स्रोतों के विभिन्न सामाजिक समूह और उनकी महिलाओं में बंटवारे के बजाय शुरू में भीखनुमा घोषनाओं के साथ बिजली-सड़क-पानी पर निर्भर विषमतावादी विकास का मुद्दा हावी रहा. पर, बाद में इन मुद्दों के जरिये सत्ता में आने के प्रति आश्वस्त न होकर पार्टियों के मध्य बदजुबानी और आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया, जो अब तक बरक़रार है.

बहरहाल प्रत्यक्ष में यूपी में चुनाव भले ही मुद्दाविहीन हों, लेकिन चुनावी प्रक्रिया शुरू होने के बहुत पहले से ही इसमें एक ऐसा अघोषित मुद्दा क्रियाशील है, जिस पर पूरे देश की निगाहें टिकी हुई हैं, और वह है भाजपा को रोकना.

पूरे देश के धर्मनिरपेक्ष और सच्चे राष्ट्र-प्रेमियों की एक ही चाह है कि यहां के लोग किसी तरह भाजपा को रोकें. ऐसा इसलिए कि उन्हें लगता है अगर भाजपा यूपी में जीत गयी तो देश की एकता-अखंडता के साथ जन्मजात वंचितों के समक्ष बड़ा संकट खड़ा हो जायेगा. इस खतरे का अनुमान लगाते हुए देश के एक नामी-गिरामी बुद्धजीवियों ने डेढ़ माह पूर्व यूपी वालों के समक्ष कातर अपील करते हुए लिखा था –

‘यूपी में बदलाव की दिशा बनी है. अब यूपी के हवाले देश है. संघ परिवार के हिंदुत्ववादी अजेंडे का प्रतिरोध यूपी से होना चाहिए. यूपी वालों के पास ऐतिहासिक मौका प्रतिरोध का. देश आपके हवाले है’.

बहरहाल भाजपा से देश को बचाने की बुद्धिजीवियों की तीव्र चाह का अनुमान लगाते हुए ही इस लेखक ने भी एक माह पूर्व इसी अख़बार में ‘यूपी वाले कैसे बचायेंगे देश’ शीर्षक से एक लेख लिखकर यूपी वालों को कर्तव्य निर्वहन का मार्ग सुझाया था. लेकिन इस बीच भाजपा ने महाराष्ट्र और उड़ीसा के स्थानीय निकायों के चुनाव में भारी सफलता अर्जित कर अपने विरोधियों को और डरा दिया है. अब उससे त्रस्त बुद्धिजीवियों को लगता है कि महाराष्ट्र और उड़ीसा की सफलता से उत्साहित भाजपा यूपी में विपक्ष के समक्ष और कड़ी चुनौती पेश कर देगी.

बहरहाल चार दशक पूर्व तक बाकी दलों के लिए राजनीतिक रूप से अस्पृश्य रही भाजपा आज कैसे कांग्रेस-मुक्त भारत की ओर अग्रसर होते हुए एक अप्रतिरोध्य राजनीतिक दल के रूप में तब्दील हो गयी है, यह एक बड़े अध्ययन का विषय बन गया है. नए सिरे से इसके उत्थान के कारणों का गहन अध्ययन किये बिना दु:स्वप्न बन चुकी भाजपा पर अंकुश लगाना कठिन होगा.

बहरहाल जब इसके उत्थान के कारणों की तफ्तीश में निकलते हैं, सबसे पहले ध्यान लोहिया-जेपी जैसे एक नई राजनीतिक संस्कृति के जन्मदाता; चंद्रशेखर-देवेगौडा-आइके गुजराल जैसे पूर्व प्रधानमंत्रियों एवं ज्योति बसु जैसे मार्क्सवादी तथा मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान जैसे लोहियावादियों के साथ इमाम बुखारी, सैयद शहाबुद्दीन, आज़म खान, जैसे मुसलामानों के स्वघोषित रहनुमाओं की ओर जाता है, जिन्होंने 1977 में इंदिरा जी की तानाशाही और 1989 में राजीव गांधी के कथित भष्टाचार से मुक्ति के नाम पर संघ के राजनीतिक संगठन का सहयोग लेकर न सिर्फ उसकी राजनीतिक अस्पृश्यता दूर किया बल्कि अप्रतिरोध्य बनने का आधार भी सुलभ करा दिया. और यह सब उन्होंने डॉ. हेडगेवार, गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी इत्यादि के लिपिबद्ध विचारों और संघ का चाल-चरित्र देखने के बावजूद गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर वीपी सिंह की भांति निरीह बनकर किया.

स्मरण रहे वीपी सिंह ने एकाधिक बार कहा था,

’1989 में सरकार चलाने के लिए भाजपा का सहयोग नहीं लेना चाहिए था. जब हम अतीत में जाते हैं तो अपने निर्णय पर पछतावा होता है.

वीपी सिंह की ही भांति प्रायः सभी ने ही बाद में समय-समय पर अपने इस कृत्य के लिए अफ़सोस जताया. लेकिन चाहे स्वार्थान्धता हो या अदूरदर्शितावश हो, इन्होंने ही भाजपा को एक अप्रतिरोध्य शक्ति के रूप में उभारने का कार्य किया. इनका सम्पूर्ण क्रियाकलाप 1816 में प्रकाशित मेरी शेली के डरावने उपन्यास के नायक उस विक्षिप्त वैज्ञानिक फ्रैन्केंस्टाइन जैसा लगता है जिसने ताजे मुर्दे के अंगों को जोड़कर एक अतिशक्तिशाली व अप्रतिरोध्य शैतान को जन्म दिया था.

बहरहाल जो काम लोहिया, जेपी के चेलों ने किया परवर्तीकाल में उसी का अनुसरण मायावती, नीतीश, ममता, नवीन पटनायक इत्यादि ने किया और सभी ने समय-समय पर अफ़सोस जताया. लेकिन भाजपा से सहयोग लेने के लिए अफ़सोस जताने के बावजूद क्या इन्होंने अतीत के अपने कृत्य का प्रायश्चित करने की कोशिश किया?. अगर करते तो जो हिन्दू धर्म-संस्कृति भाजपा की प्राणशक्ति है उसको क्षत-विक्षत करते एवं राष्ट्रवाद के पीछे छिपे उसके हिडेन अजेंडे से अवाम को वाकिफ कराते, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. इन्होंने जिस तरह अतीत में कांग्रेस विरोधी मोर्चा बनाकर उसे सत्ता से बेदखल करने का प्रयास किया वैसे ही भाजपा के विरूद्ध धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाकर उसे सत्ता से बेदखल करने का उपक्रम चलाया.

इस क्रम में भाजपा एक-एक कर सफलता की सीढियां तय करती गयी. धर्मनिरपेक्षतावादी मोर्चों में ऐसी क्या खामियां थी कि भाजपा की अग्रगति अप्रभावित रही !

इस विषय में इतिहासकार के.एम.पणिक्कर की टिप्पणी काबिलेगौर है. उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की खामियों को उजागर करते हुए एक दशक पूर्व लिखा था,

’पिछले चालीस सालों से धर्मनिरपेक्षता एक प्रमुख आकस्मिकता बनी रही है और समाज में बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक तनाव तथा दंगे आये दिन की चीज हो गए हैं. वास्तव में जिस सवाल को लेकर बुद्धिजीवी तथा राजनीतिक कार्यकर्ता चिंतित हैं, वह यह है कि साम्प्रदायिकता क्यों मजबूत हुई है न कि यह कि क्यों धर्मनिरपेक्षता, हमारे समाज में शक्तिशाली प्रतिबद्धता नहीं बन पाई है. ऐसा लगता है हम इस राक्षस से ही लड़ने में लगे हुए हैं और सकारात्मक विचारों का निर्माण नहीं कर पा रहे हैं. इस गतिरोध से निकलने का एक ही रास्ता नजर आता है कि धर्म का आमने-सामने होकर मुकाबला किया जाय, धर्म की चौतरफा आलोचना प्रस्तुत की जाय, ताकि अंततः उसे ख़त्म किया जा सके. मार्क्स के शब्दों में उसका दृढ़ सकारात्मक खात्मा किया जा सके. यही एक मात्र आधार है जिस पर धर्मनिरपेक्षता वास्तव में टिक सकती है.’

वास्तव में संघ की जो प्राणशक्ति है उस हिन्दू धर्म संस्कृति के खिलाफ अभियान चलाना दो कारणों से बहुत जरूरी था. एक तो संघ के खात्मे और दूसरा दलित, आदिवासी, पिछड़ों एवं महिलाओं की दैविक गुलामी (डिवाइन –स्लेवरी) से विमुक्ति के लिए. लेकिन भारतीय धर्मनिरपेक्षतावादी ऐसा न कर-सभी धर्मों को समान मान्यता देने और किसी धर्म के अनुयायियों के साथ भेदभाव नहीं-के सिद्धांत में विश्वास करते रहे.

वास्तव में अपवाद रूप से कुछेक छोड़कर प्रायः शतप्रतिशत भारतीय धर्मनिरपेक्षतावादी खुद उस हिन्दू धर्म-संस्कृति के प्रति स्वाभाविक दुर्बलता पोषण करते हैं, जो संघ परिवार की प्राण-शक्ति है. इसीलिए वे धर्मों की चौतरफा आलोचना और खात्मे की दिशा में आगे नहीं बढ़े. लेकिन हिन्दू धर्म-संस्कृति के प्रति संघियों की भांति ही कमजोरी पालने के बावजूद भारतीय फ्रैन्केंस्टाइनों के समक्ष भाजपा को कमजोर करने के अन्य विकल्प खुले हैं.

इसके लिए उन्हें जनता के बीच जाकर यह बताना होगा कि मात्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों से युक्त परम्परागत विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न सवर्णों के स्वार्थ रक्षा के लिए ही भाजपा धार्मिक माहौल बिगाड़ती रहती है. देखने पर उसके असल निशाने पर धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय नजर आते हैं, पर असल निशाने पर दलित, पिछड़े ही हैं. मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के जब दलित पिछड़ों की जाति चेतना का लम्बवत विकास हुआ, तब राजनीतिक रूप लाचार बने सवर्णों के हित में भाजपा हिन्दू-ध्रुवीकरण के लिए देश का धार्मिक माहौल बिगाड़ने लगी. क्योंकि बिना हिन्दू-ध्रुवीकरण के सवर्ण सत्ता में पहुँच ही नहीं सकते और बिना सत्ता में गए वे निजीकरण, उदारीकरण नीतियों का इस्तेमाल सवर्ण वर्चस्व को अटूट रखने में कर ही नहीं सकते.

जनता के बीच इस सचाई को बताने का निरंतर चार-छः महीने तक सघन अभियान चलाने पर भाजपा शर्तिया तौर पर कुछ ही अंतराल के मध्य ब्राहमण-क्षत्रिय और वैश्यों तक सिमट जायेगी. किन्तु भारतीय धर्मनिरपेक्षतावादियों ने न कभी यह सचाई बताया और न आगे बताएँगे. क्योंकि भाजपा की भांति ही उनका भी लक्ष्य सवर्ण वर्चस्व को बरक़रार रखना है इसलिए वे भाजपा को महज साम्प्रादायिक, फासीवादी, एकता विरोधी इत्यादि कहकर विरोध की औपचारिकता पूरी कर लेते रहे हैं. और भाजपा सदियों के दैविक-गुलाम दलित-आदिवासी और पिछड़ों में हिन्दू धर्म-संस्कृति के प्रति व्याप्त दुर्बलता और अल्पसंख्यक विद्वेष का सद्व्यवहार कर लगातार आगे बढती रही.

बहरहाल शत्रु के वेश में मित्र का काम करने वाले धर्मनिरपेक्षतावादियों ने कभी भाजपा को ख़त्म करने लायक काम किया ही नहीं, किन्तु जिसने किया उसकी भी राह में सिर्फ रोड़े ही अटकाते रहे.

तमाम गैर-भाजपाई दलों में एकमात्र यह बसपा है, जिसने दूसरे धर्मनिरपेक्ष दलों की भांति ही भाजपा से सहयोग जरुर लिया लेकिन उस सहयोग से मिले सत्ता का अधिकतम उपयोग उसको कमजोर करने के लिए किया.

यह बसपा ही है जिसके संस्थापक कांशीराम ने जाति चेतना के राजनीतिकरण का बलिष्ठ सूत्र विकसित करने के साथ ही अपनी पार्टी को संघ की काट के मुकम्मल सूत्रों से लैस किया. इसीलिए बसपा ने अपने सामाजिक- सांस्कृतिक आंदोलनों के जरिये हिन्दू समाज और धर्म –संस्कृति के खिलाफ विशाल ‘बहुजन समाज’ बनाने के साथ ही वैकल्पिक ‘बहुजन-संस्कृति’ की अवधारणा को विकसित करने का हर मुमकिन कार्य किया. इसके लिए उसने सवर्णों द्वारा इतिहास के कब्र में दफ़न कर दिए गए दलित-आदिवासी और पिछड़े समुदाय के उन असंख्य नायक-नायिकाओं को सामने लाने का असंभव सा कार्य किया, जिन्होंने सवर्ण वर्चस्व को तोड़ने और ब्राह्मणी संस्कृति को ध्वस्त करने का कठिन अभियान चलाया था.

इसी मकसद से मायावती ने भाजपा के सहयोग से मिले सत्ता का भरपूर इस्तेमाल बहुजन नायक/नायिकाओं के नाम पर जिले, पार्क, स्मारक इत्यादि बनाने में किया. किन्तु उनके इस कार्य का शत्रु के वेश में मित्र का काम करने वाले धर्मनिपेक्षतावादियों ने कभी उत्साहवर्द्धन नहीं किया, उल्टे वे उनपर जनता के धन दुरूपयोग करने का आरोप लगाकर तरह-तरह से हतोत्साहित करते रहे.

यह सिलसिला आज भी लगातार जारी है.

इसीलिए यूपी चुनाव में सबसे बड़े भाजपा विरोधी का तमगा लगाये एक राजनीतिक दल के मुखिया से लेकर आम कार्यकर्ता ’पत्थरों वाली सरकार’ का शोर मचा कर बसपा के खिलाफ मतदाताओं को भड़काने का काम कर रहे हैं. ऐसा करने के क्रम में क्या वे प्रकारांतर में भाजपा को ही मजबूत करने का काम नहीं कर रहे हैं?

(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)