भाजपा जीती तो, लेकिन कांग्रेस हारी नहीं
भाजपा जीती तो, लेकिन कांग्रेस हारी नहीं
गुजरात और हिमाचल, इन दोनों विधानसभा चुनावों में भाजपा ने बहुमत के साथ जीत दर्ज की है। हिमाचल में तो पहले से अनुमान था कि एंटी इनकम्बेसी का फैक्टर काम करेगा, वहां भाजपा और कांग्रेस बारी-बारी से सरकार बनाते रहे हैं। इस बार भी वही हुआ। भाजपा यहां पहले से जीत के प्रति आश्वस्त थी, जबकि कांग्रेस ने शायद भांप लिया था कि वीरभद्र सिंह के नेतृत्व पर अब की बार जनता शायद भरोसा न दिखाए। हालांकि भरोसा तो भाजपा के उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल पर भी जनता ने नहीं दिखाया। वे चुनाव हार गए हैं।
बहरहाल हिमाचल में चुनाव प्रचार में भी कांग्रेस की ओर से कोई खास जोर नहीं लगाया गया था, जबकि भाजपा ने प्रधानमंत्री के साथ समूची ताकत को लगा दिया था। अब गुजरात चुनाव की बात करें तो यहां सत्ता की लड़ाई भाजपा और कांग्रेस की न होकर नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी की बना दी गई थी, जिसमें नरेन्द्र मोदी की जीत तो अवश्य हुई है, लेकिन राहुल गांधी भी हारे नहीं हैं। बहुमत जरूर भाजपा के साथ है, लेकिन कांग्रेस की सीटों और वोट प्रतिशत में बढ़ोत्तरी का होना, यह बताता है कि टक्कर कांटे की थी। हालांकि भाजपा नेता राहुल गांधी पर तंज कसने से अब भी बाज नहीं आ रहे हैं। मनोहर पार्रीकर कहते हैं कि ओपनिंग पारी में ही राहुल ने जीरो स्कोर किया है, तो राजनाथ सिंह कहते हैं कि सिर मुंडाते ओले पड़े।
गुजरात चुनाव : नायक की राजनीति के अंत की शुरूआत
आदित्यनाथ योगी का कटाक्ष है कि अध्यक्ष राहुल भाजपा के लिए शुभ हैं। शुभ-अशुभ की बात तो खैर भाग्यवादी करें। लेकिन जीते के गुमान में डूबे भाजपाइयों को यह हकीकत देख लेनी चाहिए कि भाजपा को जीत आसानी से नहीं मिली है और अगर मिली है तो केवल नरेन्द्र मोदी के भरोसे। जिन राहुल गांधी को भाजपा कुछ समय पहले तक अपने पैरों पर खड़ा नेता तक नहीं मानती थी और हर वक्त उनका मखौल उड़ाती थी, उन्हींके नेतृत्व में कांग्रेस ने कड़ा मुकाबला किया और प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रीय अध्यक्ष और तमाम केन्द्रीय मंत्रियों को मजबूर कर दिया कि वे उनके उठाए मुद्दों के इर्द-गिर्द झूलते रहें। गुजरात में पिछले 22 सालों से भाजपा का राज है, बावजूद इसके 2017 की लड़ाई में भाजपा के कदम लडख़ड़ा गए थे, जिसे किसी तरह नरेन्द्र मोदी ने संभाला।
गुजरात जीत का पहला कारण तो यही नजर आता है कि इस बार भी हिंदुत्व का मुद्दा भाजपा के काम आया। गुजरात लंबे समय से हिंदुत्व की राजनीति का गढ़ रहा है, जो आडवानीजी की रथयात्रा में और मजबूत हुआ, फिर नरेन्द्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में तो चरम पर ही पहुंच गया। याद करें जब 2002 में गुजरात में भयंकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो चुका था, तब मुख्य चुनाव आयुक्त जे.एम.लिंगदोह के लिए उन्होंने जेम्स माइकल लिंगदोह का प्रयोग किया था, सिर्फ उनके ईसाई धर्म को उजागर करने के लिए।
यह भाजपा की जीत नही, कांग्रेस के लिए राहत है
दस साल बाद 2012 में उन्होंने अहमद पटेल के लिए इसी तरह अहमद मियां पटेल का प्रयोग किया था, ताकि जनता में यह बात पैठ जाए कि कांग्रेस एक मुस्लिम को मुख्यमंत्री उम्मीदवार बना रही है। इस बार भी वे पाकिस्तान को बीच में लाए और भाजपा ने राहुल गांधी के गैरहिंदू होने की बात फैलाई। गुजरात जीत का दूसरा कारण है नरेन्द्र मोदी द्वारा इसे प्रतिष्ठा का सवाल बना लेना और जीतने के लिए जायज-नाजायज हर पैंतरे को आजमाना। तीसरा कारण है इसे गुजरातियों की अस्मिता से जोड़ना। मतदाताओं के बीच इस धारणा को बल दिया गया कि अगर भाजपा हारती है, तो यह प्रधानमंत्री की हार होगी, जो गुजरात से ही हैं। भाजपा की जीत का चौथा कारण मणिशंकर अय्यर ने उपलब्ध कराया।
बुझे-बुझे क्यों हैं मोदी ?
2014 में चायवाला के बाद भी वे जुबान संभाल कर बोलना नहीं सीख पाए और इस बार उन्होंने नरेन्द्र मोदी के लिए नीच शब्द का इस्तेमाल किया, जिस पर सहानुभूति लाभ लेने में मोदीजी ने देरी नहीं की। हालांकि संदेह का लाभ श्री अय्यर को दिया जा सकता है, लेकिन वे राजनीति में लंबा समय गुजार चुके हैं और इससे पहले राजनयिक रहे हैं। उन्हें कूटनीति, राजनीति और लोकनीति सभी में संवाद कैसे किया जाता है, इसका पूरा ज्ञान है। फिर उन्होंने मतदान के ऐन पहले इस तरह की बात क्यों कही, यह सोचने का विषय है। इसी तरह योगेन्द्र यादव का दावा भी कांग्रेस के लिए मीठी छुरी साबित हुआ।
पहले चरण के मतदान के बाद उन्होंने कांग्रेस को भारी बहुमत मिलने का आकलन किया, जिससे दूसरे चरण से पहले भाजपाइयों को संभलने का मौका मिल गया। ये भी अजीब है कि एक्जिट पोल आते ही, श्री यादव के बोल भी बदल गए और वे भाजपा की जीत की भविष्यवाणी से सहमत हो गए। अगर उन्हें कांग्रेस की जीत का भरोसा था, तो इतनी जल्दी वे पलट क्यों गए? एक्जिट पोल के मुताबिक भाजपा जीत तो गई है, लेकिन उस तरह से नहीं, जैसा अनुमान लगाया गया था। एक बार फिर साबित हुआ है कि एक्जिट पोल जैसे खेल टीवी चैनलों और शेयर बाजार के सटोरियों के लिए मुफीद हैं।
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आखिरी बात, इन चुनावों में निर्वाचन आयोग की भूमिका पर फिर सवाल उठाए हैं। मतदान के पहले राहुल गांधी को नोटिस जारी करना और नतीजों के पहले खुद ही वापस ले लेना, समझ से परे है। मोदीजी नियमों की सरेआम धज्जियां उड़ाते हैं और आप केवल विचार करते रह जाते हैं कि करना क्या है? आयोग की एक संवैधानिक जिम्मेदारी है, जिस पर लोकतंत्र की उम्मीदें भी टिकी हैं। अगर उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठेंगे तो चुनाव कितने विश्वसनीय रह जाएंगे, यह सोचने वाली बात है।
( देशबन्धु का संपादकीय )


