भंवर मेघवंशी
दक्षिणपंथी शासन द्वारा उद्घोषित अच्छे दिन दूसरे लोगों के लिए शायद देर से आने वाले होंगे, लेकिन राजस्थान के दलितों के लिए तो अभी से आने लग गए हैं। तभी तो दलित अत्याचारों के लिए कुख्यात हिन्दुत्व की प्रयोगशाला माने गए भीलवाड़ा जिले में दलितों पर भांति- भांति के अत्याचार होने लगे हैं। अत्याचार पूर्ववर्ती शासन में भी होते रहे हैं और इस शासन में भी हो रहे हैं, फर्क सिर्फ इतना सा है कि पहले सुनवाई हो जाती थी, थोड़ी बहुत कार्यवाही भी होती थी, लेकिन अब तो कोई सुनने वाला ही नहीं है, उल्टा अत्याचार पीड़ितों को ही धमकाया जाने लगा है। थाने से लेकर पुलिस मुख्यालय तक कोई भी सुनवाई करने को तैयार नहीं है, इससे अच्छे दिन दलितों के लिए कब आयेंगे भला ?
भीलवाड़ा जिले का सबसे निकटवर्ती तहसील मुख्यालय मांडल है, मांडल थाने की नाक के नीचे एक गाँव है थाबोला जो बावड़ी पंचायत का हिस्सा है, वहां पर 20 दलित परिवार निवास करते हैं, बाकी गाँव में ज्यादातर जातिवादी सवर्ण हिन्दू निवास करते हैं, जिसमें ब्राहमण और जाट जाति के लोग बड़ी संख्या में हैं। इस जातिवादी गाँव के विगत सौ साल के ज्ञात इतिहास में दलितों पर अत्याचार के कई भयंकर किस्से मौजूद है। कभी दलित संतों द्वारा निकाले गए रामदेव जी महाराज (रामापीर) के बेवान पर पथराव किया गया तो कभी कोई दलित स्त्री डायन बता कर मार डाली गयी। यह गाँव, गाँव न हो कर दलितों के लिए साक्षात् नरक से कम नहीं है। यहाँ के बुजुर्ग दलित बताते हैं कि इन सवर्ण हिन्दुओं ने हमें कभी चैन से नहीं जीने दिया। अन्याय और अत्याचार यहाँ की फिजां में रचा बसा शब्द है। यहाँ के जातिवादी हिन्दू दलितों को कभी इन्सान ही मानने को राज़ी नहीं हुए। जब- जब भी दलितों ने अपने साथ हो रही नाइंसाफी के खिलाफ बोलने की हिम्मत की, तब-तब उन्हें सबक सिखाया गया। यह सिलसिला आज भी जारी है। आज भी पूरी व्यवस्था लगी हुयी है दलितों की आवाज़ को दबाने और कुचलने में। दमन के नए-नए तरीके खोजे जा रहे हैं।
पुरानी पीढ़ी ने तो तमाम अत्याचार शांति और धैर्य के साथ सह लिए लेकिन दलित नौजवानों ने सोचा कि आखिर कब तक सहते रहेंगे हम ? उन्होंने प्रतिकार करने का संकल्प लिया और लग गए काम पर। हाल ही में दो सुशिक्षित दलित युवाओं की शादी होनी थी। थाबोला के युवा साथियों ने बुजुर्गों से राय मशवरा किया और तय किया कि इस बार दलित दूल्हों की बिन्दौरी घोड़ों पर निकाली जाएगी। 8 जून 2014 को शादी होनी थी और 6 जून को बिन्दौरी निकालनी थी। इस बात की भनक गाँव के सवर्णों को लगी तो उन्होंने साफ ऐलान कर दिया कि अगर दलित घोड़े पर बिन्दौरी निकालेंगे तो दूल्हों को जान से हाथ धोना पड़ेगा। आखिर सवर्ण भी तो स्वाभिमानी हिन्दू ठहरे। वे कैसे नीच कहे जाने वालों को घोड़े पर बैठा हुआ देख पाते। उनके पेट में मरोड़ियां उठने लगीं। जब उनका सामाजिक स्वास्थ्य गड़बड़ाने लगा तो उन्होंने दलित दूल्हों को सबक सिखाने की रणनीति बनानी आरम्भ कर दी। दूसरी तरफ दलितों ने गाँव के कतिपय लोगों द्वारा दी गयी धमकी की लिखित शिकायत उपखंड प्रशासन और थानेदार मांडल को कर दी। निर्धारित समय पर पुलिस सुरक्षा में बिन्दौरी तो निकल गयी, लेकिन बहुत विरोध सहना पड़ा। जैसे-तैसे दलित दूल्हे नारायण और कैलाश तो घोड़े पर सवार हो कर निकल गए पर वे गाँव वालों की आंख की किरकिरी भी बन गए।
6 मई 2014 को बिन्दौरी निकाली गयी और 7 मई से ही गाँव वालों ने दलितों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया। दलितों को किराना व्यापारियों ने सामान देना बंद कर दिया। दुग्ध डेयरी पर दूध लेना और देना भी बंद कर दिया गया। अनाज पिसाई बंद कर दी गयी। यहाँ तक कि पशु आहार देना भी प्रतिबंधित कर दिया गया। हलवाई ने दलितों की शादी में मिठाई बनाने से इंकार कर दिया और सवर्ण ऑटो चालकों ने दलित बच्चों को स्कूल लाना ले जाना बंद कर दिया। यहाँ तक कि दोनों दलित दूल्हों की बारात ले जाने के लिए बुक किये गए वाहन भी अंतिम समय पर नहीं आने दिए गए। दलित मोहल्ले में लगने वाले सरकारी हेंडपंप को भी सार्वजानिक स्थान पर नहीं लगाने दिया गया। मजबूरन दलितों को अपनी खातेदारी जमीन में चापाकल खुदवाना पड़ा, गाँव में दलितों के घूमने फिरने पर और दलितों के पशुओं के सरकारी जमीन पर चरने पर भी पाबन्दी लगी हुयी है। पीड़ित दलित प्राथमिकी दर्ज करवाने के लिए थानेदार से लेकर पुलिस अधीक्षक तक के पास जा कर गुहार लगा चुके हैं, मगर कहीं पर भी कोई सुनवाई नहीं हो रही है। सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि सामाजिक बहिष्कार को चलते अब 25 दिन हो चुके हैं, लेकिन मुकदमा तक दर्ज नहीं किया जा रहा है। प्रशासन दलितों को ही डराने धमकाने में लगा हुआ है, जबकि तहसीलदार से लेकर थानेदार और उपखंड अधिकारी तथा जिलाधिकारी तक सबके सब आरक्षित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, पर वे सिर्फ अपने आकाओं की हाजिरी बजा लाने की कोशिशों में हैं, उन्हें अपने ही बन्धु बांधवों की तकलीफ़ से कोई मतलब नहीं है। संभवतः डॉ. अम्बेडकर ने ऐसे ही पढ़े लिखे दलितों को धोखेबाज कहा होगा।
खैर, जैसा कि चुनाव से पहले वादा किया गया था कि अच्छे दिन आने वाले है, थाबोला के दलित शायद यह नहीं जानते थे कि वसु और नमो के प्रचण्ड बहुमतिया शासनकाल में उनकी यही गत होने वाली थी। ऐसे ही तो आते हैं भाजपा राज में दलितों के अच्छे दिन !
भंवर मेघवंशी, लेखक स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।