गणतंत्र दिवस : देश के सामने हैं कई गंभीर संकट

किसी भी हिंदुस्तानी को इस बात पर गर्व होना चाहिए कि वह एक ऐसे देश का नागरिक है जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद के काल में आज़ाद हुए लगभग 30 देशों में इकलौता ऐसा मुल्क है जो अगस्त 15, 1947 के दिन आज़ाद होने के बाद से आजतक एक प्रजातांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान के तहत ही चलाया जा रहा है। हालाँकि यह सच है कि इस दौरान देश के सामने कई गंभीर संकट, जैसे कि बंटवारे के समय की व्यापक हिंसा, 1975 में आपातकाल का थोपा जाना, दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध लगातार हिंसा, पड़ोसी देशों से युद्ध, और आतंकवादी हमले आए लेकिन देश का मूल प्रजातांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष ढांचा बरक़रार रहा।

हमारे आज़ाद देश की राजनीति का एक अति-दुखद पहलू यह ज़रूर रहा है कि जब भी दलितों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ व्यापक हिंसा हुई, मुजरिमों को सजा नहीं दी गई और हर कार्रवाई का लुब्बे-लबाब यह ही रहा कि 'मुजरिमों की तलाश जारी है'।

देश के अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा की बड़ी घटनाएँ जैसे कि नेल्ली जनसंहार (1983), सिख जनसंहार (1984), उत्तर प्रदेश पुलिस दुवारा बंदी बनाए गए अनगिनत मुसलमान नौजवानों की हाशिमपुरा में हत्या (1987), अडवाणी की रथ-यात्रा के दौरान और बाबरी मस्जिद के ढहाने के बाद मुसलमानों के खिलाफ देश-व्यापी हिंसा (1990-92), गुजरात में ईसाईयों के विरुद्ध हिंसा (1998-99 ), गुजरात में मुस्लमान विरोधी हिंसा (2002) और कंधमाल, ओडिशा में ईसाईयों के विरुद्ध व्यापक हिंसा (2008) इस सच्चाई की जीती जागती मिसाले हैं कि इन् सभी हिंसा की घटनाओं के सभी मुजरिमों की अभी भी तलाश जारी है।

देश के विभिन्न इलाक़ों में दलितों के खिलाफ हिंसा की जो बड़ी घटनाएं हुई हैं उनमें तो इंसाफ़ की तलाश की हालात और भी शर्मनाक है। दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा की बड़ी वारदातों जैसे कि किल्वेलमणि 1968, मेलावालावु 1997, माराक्कानम 2013, धरमपुरी 2012 (सभी तमिलनाडु में), करमचेदू 1985, तसुंदर 1991 (सभी आंध्र प्रदेश में), बथानी टोला 1996, लक्ष्मणपुर बाथे 1997, (सभी बिहार में), रामाबाई कांड 1997, खैरलांजी 2006, जवखेड़ा 2014 (सभी महाराष्ट्र में), पंजाब में बनत सिंह कांड 1999, दलित विरोधी हिंसा कर्नाटक 2000, झज्जर 2006, मिर्चीपुर (सभी हरयाणा में), डंगवास, राजस्थान 2015, देश भर में दलित विरोधी हिंसा की कुछ सेंकड़ों घटनाओं में से कुछ ही हैं। लेकिन इन में भी इन्साफ किया जाना बाकी है।

मुजरिमों की तलाश में दशक बीत जाते हैं, फिर देश की सरकार/सरकारें 'आयोग-आयोग' खेल, जाँच के नाम पर, खेलना शरू करती हैं। एक के बाद एक आयोग, रपट दाखिल नहीं की जाती हैं और अगर जमा भी हो जाती हैं तो किसी तहखाने की अलमारी में धूल चाटती रहती हैं। इतने आयोग बिठाए जाते हैं कि देश इन बर्बर ज़ुल्मों के बारे में भूल ही जाता है।

इस चलन की तुलना में अगर कुछ दलित या अल्पसंख्याक समुदायों से जुड़े लोगों के हिंसा में लिप्त पाए जाने की शंका होती है तो सजा दिलाने का काम तूफानी अंदाज़ में किया जाता है। पुलिस और न्यायपालिका 'तत्काल' न्याय करने के लिए विशेष पुलिस दल (SIT) और फ़ास्ट-ट्रैक कोर्ट्स गठित करती हैं। आनन फ़ानन में जाँच पूरी की जाती है और कोर्ट दुवारा तुरंत फैसला भी दे दिया जाता है। फाँसी पर लटकाने में भी देर नहीं की जाती।

इस बारे में हिंसा की दो-तीन घटनाओं के तुलनात्मक अध्य्यन से कुछ चौंकाने वाले सच सामने आते हैं।

पंजाब में 'खालिस्तानी' हिंसा को कुचलने के लिए सैंकड़ों 'ख़ालिस्तानी' गोलियों से भून दिए गए, फाँसी चढ़ा दिए गए या ग़ायब करा दिए गए। लेकिन 1984 में सिख जनसंहार के मुजरिमों की आज तक तलाश जारी है!

इसी तरह दिसम्बर 1992 में बम्बई में मुसलमानों के खिलाफ व्यापक खून-ख़राब हुवा, एक श्री कृष्णा आयोग बिठाया गया, रिवाज से हट कर इस की रपट भी आ गयी और इस में बीजेपी और शिव सेना के नेताओं को हिंसा का ज़िम्मेदार ठहराते हुए नामजद भी किया गया। मुक़दमा चलाना तो दूर की बात है इन बलवाइयों से पूछ-ताछ तक नहीं की गयी।

दूसरी ओर जब जनवरी 1993 में कुछ मुसलमानों ने आतंक मचाया और आम लोगों के खून से होली खेली तो राज्य की ओर से ज़रा भी विलम्ब नहीं हुआ और कई मुजरिमों को फाँसी दी गयी। इस अंतर को गहरा करने के लिए शब्द भी गढ़ लिए गए हैं।

दलितों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा को 'दंगे' का नाम दिया गया जबकि उन के द्वारा हिंसा को 'आतंकवाद' का नाम दिया गया।

यह सब होने के बावजूद पीड़ितों की आस्था देश के प्रजातान्त्रिक ढांचे में लगातार रही क्योंकि इन को भरोसा था कि हमारे देश में क़ानून और इन्साफ का राज है, सब बराबर हैं और एक सुबह उन्हें इन्साफ मिलेगा। यह हालात उस समय भी रहे जब आरएसएस से जुड़े अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। लेकिन मार्च 2014 में आरएसएस के एक वरिष्ठ और मंझे हुए कार्यकर्त्ता, नरेंद्र भाई मोदी के देश के प्रधानमंत्री बनने के बाद हालात बदतर ही हुए हैं।

आज़ाद भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुवा है कि किसी प्रधान मंत्री ने स्वयं को भारतीय राष्ट्रवादी न बताकर 'हिन्दू राष्ट्रवादी' बताया है।

इस का साफ़ मतलब है कि भारतीय राष्ट्रवाद के दिन लद गए हैं और अब भारत के लोगों की राष्ट्रीयता उन के धर्म से निश्चित होगी। और क्योंकि भारत में 80% हिन्दू हैं तो स्वाभाविक है कि मोदी हिंदुओं के ही हितकर होंगे।

यहाँ यह याद रखना भी ज़रूरी है कि जिन लोगों ने गांधीजी की हत्या की थी वे भी स्वयं को 'हिन्दू राष्ट्रवादी' घोषित करते थे।

हालात कितने जटिल और नाज़ुक हुए हैं उसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि मोदी और उनके बहुत से मंत्री यह बताने से नहीं झिझकते कि वे आरएसएस के कार्यकर्ता हैं, हिंदुत्व में विश्वास करते हैं और भारत को हिन्दू राष्ट्र मानते हैं।

भारत पर राज कर रहे यह सब नेता आरएसएस की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध हैं। और आरएसएस भारत के प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था का कितना सम्मान करता है इस का अंदाज़ा देश की आज़ादी की पूर्व-संध्या पर की गयी इस की निम्नलिखित घोषणा से साफ़ हो जाता है।

राष्ट्रत्व की छद्म धारणाओं से गुमराह होने से हमें बचना चाहिए। बहुत सारे दिमाग़ी भ्रम और वर्तमान एवं भविष्य की परेशानियों को दूर किया जा सकता है अगर हम इस आसान तथ्य को स्वीकारें कि हिंदुस्थान में सिर्फ हिंदू ही राष्ट्र का निर्माण करते हैं और राष्ट्र का ढांचा उसी सुरक्षित और उपयुक्त बुनियाद पर खड़ा किया जाना चाहिए...स्वयं राष्ट्र को हिंदुओं द्वारा हिंदू परम्पराओं, संस्कृति, विचारों और आकांक्षाओं के आधार पर ही गठित किया जाना चाहिए।

आरएसएस भारत के मौजूदा प्रजातान्त्रिक.धर्मनिरपेक्ष संविधान की जगह मनुस्मृति को लागू करना चाहता है जिस के अनुसार दलितों और महिलाओं की जानवरों से भी बदतर दशा होगी।

आरएसएस के वरिष्ठ कार्यकर्त्ता जो केंद्र और प्रान्तों में राज कर रहे हैं खुलेआम घोषणाएं कर रहें हैं कि 2021 तक भारत से मुसलमानों और ईसाईयों को निकाल बाहर किया जायेगा। राष्ट्रपिता गांधीजी के बारे में घोर अपमानजनक बयान दिए जा रहे हैं। भारत को मात्र हिंदुओं के लिए राष्ट्र घोषित करने की मांग की जा रही है और यह सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है।

देश के मौजूदा हिंदुत्वादी नेता भारतीय गणतंत्र को एक हिन्दू पाकिस्तान बनाना चाहते हैं और एक प्रजातान्त्रिक. धर्मनिरपेक्ष संविधान को बनाये रखने की शपथ लेने के बावजूदए भीतरघात में रात-दिन लगे हैं। इनका असली निशाना हमारा प्रजातान्त्रिक- धर्मनिरपेक्ष देश है और कोई नहीं। वे इसे एक पेशवा राज में बदलना चाहते हैं।

इन हालात को देखते हुए इस नतीजे पर पहुचना मुश्किल नहीं है कि गणतंत्र भारत अपने जीवन के सब से गंभीर दौर से गुज़र रहा है और इस के अस्तित्व को भीतर से गंभीर चुनोती मिल रही है जिस का सामना करना बहुत ज़रूरी है।

गणतंत्र भारत के 67वें जन्मदिन पर मुल्क के तमाम देश-भक्त संगठनों और लोगों को अपने प्यारे गणतंत्र को बचाने के लिए सक्रिय होना होगा नहीं तो, दास्ताँ भी ना होगी हमारी दस्तानों में!

शम्सुल इस्लाम

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