भारतीय समाज गहराई से नस्लवादी, नस्लवाद को, जाति व्यवस्था और मजबूत करती है
भारतीय समाज गहराई से नस्लवादी, नस्लवाद को, जाति व्यवस्था और मजबूत करती है
अफ्रीकी छात्रों पर नस्लवादी हमले
0 प्रकाश कारात
दक्षिणी दिल्ली में 21 मई को कांगो से आए अफ्रीकी मूल के छात्र, मसोंडा किटांडा ओलीवर को नृशंसता से पीटा गया, जिससे बाद में उसकी मृत्यु हो गयी। इस घटना ने भारत में गहराई से पैठे नस्लवाद को उभारकर सामने ला दिया है। आज अफ्रीका के हजारों छात्र हमारे देश में विभिन्न शिक्षा संस्थाओं में पढ़ रहे हैं। यह एक शर्मनाक सचाई है कि इन छात्रों को अपने काले रंग के कारण अक्सर नस्ली भेदभाव तथा हमलों का सामना करना पड़ता है।
सिर्फ इन छात्रों को ही नहीं बल्कि अफ्रीकी मूल के दूसरे सभी लोगों को भी उनके रंग के चलते निशाना बनाया जाता है। ओलीवर का पीट-पीटकर मार डाला जाना कोई अलग-थलग घटना नहीं है। इसका पता इसी तथ्य से चल जाता है कि मई के महीने में ही अफ्रीकी छात्रों पर हमले की दो घटनाएं और हुई थीं। 2 मई को बंगलूरु में आइवरी कोस्ट के एक छात्र पर हमला हुआ था और बाद में इसी महीने के दौरान हैदराबाद में एक 23 वर्षीय नाइजीरियाई छात्र को हमलाकर घायल कर दिया गया।
इसी क्रम में हम इसी साल जनवरी में बंगलूरु में हुई घटना की भी याद दिलाना चाहेंगे, जिसमें तंजानिया की एक 23 वर्षीया छात्रा मारा-पीटा गया था और निर्वस्त्र कर दिया गया था। उसे तो शुद्ध रूप से सिर्फ इसलिए हमले का निशाना बनाया गया कि वह अफ्रीकी थी। जिस इलाके में यह घटना हुई, वहां उसकी कार के निकलने से पहले, किसी और कार से जिसे कोई अफ्रीकी चला रहा था, एक महिला कुचल गयी थी और उसकी मौत हो गयी थी। बाद में जब इस तंजानियाई छात्रा की कार वहां से निकली, भीड़ ने उसे रोक लिया और इस छात्रा को हमले का निशाना बनाया, जबकि पुलिस खड़ी तमाशा देखती रही।
बहरहाल, दिल्ली में ओलीवर की हत्या ने भारत में रह रहे अफ्रीकियों को झकझोर कर रख दिया और सभी अफ्रीकी देशों के कूटनीतिक मिशनों के प्रमुखों ने सामूहिक रूप से सरकार के सामने इस पर विरोध दर्ज कराया। उन्होंने अपने दूतावासों में अफ्रीका दिवस नहीं मनाने की भी घोषणा कर दी। अफ्रीकी राजदूतों ने रेखांकित किया कि अफ्रीकियों को नस्ली आधार पर निशाना बनाया जा रहा है और भारत सरकार से आग्रह किया कि अफ्रीकी छात्रों की सुरक्षा तथा सलामती सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाए।
ओलीवर की हत्या के चंद रोज के अंदर-अंदर, राजधानी दिल्ली के ही बाहरी हिस्से में ऐसी ही एक और घटना हो गयी। दक्षिणी दिल्ली के गांव राजपुर खुर्द में सात अफ्रीकियों को, जिनमें चार महिलाएं भी थीं, नस्ली गालियां दी गयीं और उन पर हमला किया गया। लेकिन, पुलिस ने इसे दो ग्रुपों के बीच ‘‘झड़प’’ बताकर खारिज कर दिया और यह दावा भी किया कि शोर-शराबे भरे संगीत तथा सार्वजनिक जगहों पर नशाखोरी की वजह से अफ्रीकियों पर हमले होते हैं!
ऐसे हमलों के मामले में पुलिस का रुख यही होता है कि इन हमलों के नस्ली निहितार्थों से इंकार ही कर दिया जाए और ऐसे अपराधों को मामूली झगड़े या सार्वजनिक झड़प में घटाकर रख दिया जाए। यहां तक कि ओलीवर पर नृशंस हमले तक के मामले में पुलिस ने इसे ऑटो-रिक्शा में बैठने पर हुई लड़ाई का रूप देने की कोशिश की है। जैसे भारत में ऑटो रिक्शा में बैठने के झगड़े में किसी का पीट-पीटकर मार दिया जाना, आए दिन की चीज हो!
सचाई यह है कि भारत में पुलिस और अफसरशाही भी उसी नस्ली मानसिकता से ग्रसित हैं, जो कालों के खिलाफ पूर्वाग्रहों के पीछे काम करती है। इस पूरे मामले में मोदी सरकार के कुछ मंत्रियों का रुख भी पूरी तरह से निंदनीय रहा है।
राजपुर खुर्द की घटना के बाद, विदेश राज्य मंत्री, वी के सिंह ने मीडिया पर ही इसका आरोप जड़ दिया कि वही नाहक ‘‘मामूली झगड़ों’’ को अफ्रीकियों के खिलाफ हमलों के रूप में उछाल रहा है। संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने इन घटनाओं का नस्लवाद से कुछ भी लेना-देना ही नहीं होने का दावा करने के साथ, यह भी जोड़ दिया कि ऐसी घटनाएं तो खुद अफ्रीका में भी होती रहती हैं। आखिर में, खुद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने, अफ्रीकी राजनयिकों तथा अफ्रीकी छात्रों के प्रतिनिधियों के साथ मुलाकात में यह एलान कर दिया कि कांगो के छात्र की हत्या, नस्लवाद से प्रेरित नहीं थी।
इस तमाम घटनाविकास ने इस वीभत्स सचाई को उभारकर सामने ला दिया है कि भारतीय समाज, गहराई से नस्लवादी है। इस नस्लवाद को, जाति व्यवस्था और मजबूत करती है। एक नस्ली स्टीरियोटाइप-आधारित यह मिथक बना हुआ है कि ‘‘आर्य’’ जो बाहर से आए थे और उत्तरी भारत में बस गए थे, गोरे रंग के थे जबकि दक्षिण के द्राविण उनकी तुलना में काले रंग के थे। जातिग्रस्त समाज गोरे रंग को बहुत महत्व देता है, जबकि काले रंग को हीनता के भाव से देखा जाता है। त्वचा के रंग की यह दासवृत्ति की पूजा, जातिवादी पूर्वाग्रहों को मजबूत करती है। इस पूर्वाग्रह की अभिव्यक्ति वैवाहिक विज्ञापनों में भी होती है, जिनमें कन्या के गोरे होने की विशेष रूप से मांग की जाती है। गोरे रंग की इस पूजा को उपनिवेशवाद ने भी पुख्ता किया, जब गोरे प्रभुओं को उच्चतर नस्ल की तरह देखा जाता था। इस तरह कालों को हीनतर मनुष्यों की तरह देखा जाता है।
इस तरह, त्वचा के रंग पर आधारित नस्लवाद, असमानतापूर्ण सामाजिक तथा जातिवादी व्यवस्था में विरासत में मिलता है तथा उसे आगे बढ़ाया जा रहा होता है। यह विडंबनापूर्ण है कि भारतीय जिन्हें खुद भी गोरे समाजों द्वारा रंगीन या काले रंगवालों में ही गिना जाता है तथा नस्ली भेदभाव का निशाना बनाया जाता है, खुद को अपने मुकाबले काले रंग वालों की तुलना में श्रेष्ठïतर समझते हैं।
भारत में जब दलित महिलाओं का यौन शोषण होता है या आदिवासी मजदूरों का निर्मम शोषण होता है या जातियों के सोपानक्रम में निचली जातियों आने वाले मजदूरों को बंधुआ बनाया जाता है, ये सभी नस्लवादी व जातिवादी सामाजिक व्यवस्था के हिस्से हैं। इसलिए, नस्लवाद का उसी तरह मुकाबला किए जाने की जरूरत है, जैसे जातिवादी उत्पीड़ऩ तथा जातिवादी भेदभाव का मुकाबला किए जाने की जरूरत है।
लेकिन, भाजपा की केंद्र सरकार इस तरह के भेदभाव का मुकाबले करने की किसी स्थिति में ही नहीं है। यह सरकार तो खुद ही एक संकीर्ण सांप्रदायिक पहचान और हिंदू राष्टï्रवाद पर आधारित, बहिष्करण के एजेंडा को बढ़ावा दे रही है। इस निजाम में, अगर कोई गोमांस खाता हो या बहुसंख्यकों से भिन्न धर्म का मानने वाला हो या भिन्न विचार रखता हो, उस पर भीड़ का हमला हो सकता है। यही माहौल है जो लोगों को इसके लिए प्रोत्साहित करता है कि अपने से भिन्न नजर आने वालों पर या भिन्न सांस्कृतिक व जीवन-शैलियों वालों को, हमलों का निशाना बनाएं। भारत के विभिन्न शहरों में बंद बाड़ों जैसी बस्तियों में रह रहे अफ्रीकी छात्रों के छोटे-छोटे समूह, अपने रंग तथा अपनी भिन्न जीवन शैली के चलते, हमलों के लिए आसान निशाना बन जाते हैं। उनका गरिमा के साथ तथा शांति का जीवन नहीं जी पाना यही दिखाता है कि भारत में सामाजिक जीवन तथा नागरिक मूल्यों का कैसा क्षय हुआ है! 0


