स्पाइल (दर्पण) का रजत जयन्ती अंक
समीक्षक : सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
विदेशों में हिन्दी की पत्रकारिता में चार चाँद लगाने वाली पत्रिकाओं में 'स्पाइल' (दर्पण) महत्वपूर्ण है।
नार्वे एक छोटा किन्तु सुन्दर और राजनैतिक दृष्टि से उत्तरीय यूरोप का महत्वपूर्ण देश है। इसे विक्रम सिंह ने अपनी पुस्तक में 'विश्व शांति का चैम्पियन कहा है। चूँकि दो महीने जून और जुलाई में उत्तरी नार्वे के उन भागों में जहाँ से ध्रुवीय रेखा गुजरती है वहाँ आधी रात को भी सूरज निकला रहता है। इसी लिए नार्वे को मध्यरात्रि का सूरज वाला देश भी कहा जाता है। सबसे खास बात यह कि हिन्दी की पत्रिका 'स्पाइल' दर्पण ने अपने 25 वर्ष पूरे किये।
इस अंक में बताया गया है कि यह पत्रिका किन-किन अभावों का सामना करते हुए आगे बढ़ी है।
स्पाइल (दर्पण) का पहला अंक
सन 1988 में जब इसका पहला अंक निकला था तब वह हिंदी और पंजाबी (गुरुमुखी) दोनों भाषाओँ में था। अतः सम्पादक के नाते मुझे पंजाबी लिखनी और पढ़नी सीखनी पड़ी थी। कोई टाइपराइटर नहीं था। हाथ से लिखी थी पूरी पत्रिका। सन 1985 में तीन महीने (जून से अगस्त महीने तक) में 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में हिंदी पत्रकारिता सीखने की गरज से तत्कालीन सम्पादक राजेंद्र अवस्थी और ब्रजनारायण अग्रवाल के साथ बिताये। उससे उस समय के हिंदी पत्रकारिता के तेवर सीखने को मिल चुके थे। और स्वयं मैं नार्वे में पत्रकारिता की शिक्षा प्राप्त करने वाला पहला भारतीय के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था। इन दोनों ने मेरी पत्रकारिता की समझ को विस्तृत और पैना किया।
अतः पहला अंक भी अति साधारण होने के बावजूद विज्ञापनों से भरपूर था। ओस्लो में भारतीय राजदूत, नार्वेजीय लेखकों और प्रवासी भारतीयों के सहयोग ने पत्रिका को निरंतर छापने के लिए प्रोत्साहित किया।
पत्रिका भारत और नार्वे के मध्य सेतु बनी
स्पाइल (दर्पण) धीरे-धीरे भारत और नार्वे के मध्य एक सेतु के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। भारत और नार्वे के लेखकों के अतिरिक्त दूतावासों और यहाँ की स्थानीय सरकार ने मान्यता दी, आर्थिक सहयोग देना शुरू किया और साथ-साथ नियंत्रण भी करती रही कि पत्रिका स्तरीय है। इसके लिए नार्वे के सांस्कृतिक मंत्रालय के सलाहकारों के साथ बैठकें होती रहीं और पत्रिका को नार्वे में एक एक स्तरीय सांस्कृतिक पत्रिका के रूप में भी प्रतिष्ठा मिली। भारत और नार्वे दोनों देशों के राजनेताओं के अलावा दूतावासों ने प्रकाशनार्थ सामग्री आदि भी भेजना शुरू किया और अपनी प्रतिक्रिया भी जिससे पत्रिका को सेतु बनने में देरी न लगी। पर यह कार्य अति कठिन और चुनौतियों से भरा है और एक बड़ा मिशन भी जिसमें प्रथम 25 वर्षों में पत्रिका सफल रही और पहला रजत जयन्ती अंक निकला।
देश विदेश के रचनाकार सम्मिलित
स्पाइल (दर्पण) पत्रिका में आरम्भ से ही स्कैंडिनेवियाई (नार्वे, स्वीडेन, डेनमार्क और फिनलैंड) के लोगों को प्राथमिकता दी जाती थी पर धीरे-धीरे यह पत्रिका पूरे विश्व में बसे हिंदी सेवियों और लेखकों का महत्वपूर्ण मंच बन गयी जिसे नार्वे और भारत की सरकारें और संस्थान भी पूरी तरह मान्यता देते हैं। नए और उभरते रचनाकारों की प्रथम रचनाएं छापने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली पत्रिका स्पाइल विदेशों में हिंदी पत्रकारिता में मील का पत्थर साबित हुई है। इसके अलावा इसने आगामी 25 वर्षों के लिए परिचर्चा और गोष्ठियां करना आरम्भ किया है।
इस सम्बन्ध में इस अंक में व्यापक सूचनाएं प्रकाशित हुई हैं।
भारतीय सूचनाओं और सांस्कृतिक समाचारों से परिपूर्ण
पत्रिका का यह अंक भारत की साहित्यिक गतिविधियों, लेखकों के जन्मदिन और पुण्य तिथियों पर सूचना और समाचार के अलावा, चलचित्र, भारतीय खेल और विज्ञान की उपलब्धियों पर सामग्री छपी हुई है। भारतीय समाचारों को नार्वेजीय समाचारपत्रों में उचित स्थान नहीं मिलता इस तरह यह पत्रिका भारतीय समाचार पढ़ने वालों के लिए और भी महत्वपूर्ण हो जाती है।
पत्रिका यूरोपीय देशों के सांस्कृतिक समाचार सम्मिलित करेगी
पत्रिका के इस अंक से पता चलता है कि स्पाइल पत्रिका ने नेट पर और संगोष्ठियों के जरिये विचार विमर्श शुरू किया है कि आने वाले 25 वर्षों में किस तरह छपती रहेगी और दीर्घायु बनेगी पर इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि पत्रिका अपने सेतु बनने वाले उद्देश्यों से विलग न हो और हिंदी के प्रचार-प्रसार में लगी रहे और अपने ऊपर बाजार को न हावी न होने दे।
यह अंक एक महवपूर्ण अंक है। पाठ्य सरल भाषा समयानुकूल है और स्थानीय शब्दों का अधिक प्रयोग हुआ है। एक ख़ास बात स्पाइल में यह है कि यह अभी भी हिंदी पृष्ठों पर हिंदी के अंकों का प्रयोग करती है जिसे अनेक बड़े हिंदी लेखकों ने स्तुत्य कहा है। पत्रिका खरीदने के लिए संपर्क करें :-
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speil।nett@gmail।com
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0518 - Oslo
Norway
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक', वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार हैं। नार्वे में भारतीयों के सबसे प्रिय इंसान के रूप में सुरेश चन्द्र शुक्ल जाने जाते हैं। वे नार्वे की राजधानी ओस्लो से एक पत्रिका निकालते हैं। हिंदी और नार्वेजीय भाषाओं में। सुरेश शुक्ल जी देशबन्धु के यूरोप एडिटर भी हैं।