भारत की विविधता की उपेक्षा की गई नीट लागू करने में
भारत की विविधता की उपेक्षा की गई नीट लागू करने में
2013 के एक आदेश का हवाला देते हुए 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश जारी किया कि मेडिकल और डेंटल कॉलेजों में दाखिले के लिए इस साल से नीट लागू किया जाए. कई वजहों से इसका स्वागत किया गया.
भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की जो स्थिति है उसमें मेडिकल शिक्षा की अहमियत बताने की जरूरत नहीं है. यह माना गया कि एक परीक्षा होने से छात्रों को अलग-अलग परीक्षाएं नहीं देनी होंगी और एक ही पाठ्यक्रम होना सबको बराबरी का अवसर देगा. सीबीएसई की निगरानी से कई अनियमितताओं को दूर किया जा सकेगा. लेकिन अब पता चल रहा है कि नीट भारत जैसे विविधता वाले देश में सबको एक ही ढंग से हांकने की एक कोशिश है. इसमें राज्यों के विविध पाठ्यक्रमों को भी दरकिनार किया जा रहा है. जिनके जरिए गरीब बच्चे भी शिक्षा हासिल कर सकते हैं.
तमिलनाडु में एक दलित श्रमिक की 17 साल की बेटी एस. अनिता ने यह परीक्षा नहीं पास करने की वजह से आत्महत्या कर ली.
2013 में नीट को लेकर केंद्र सरकार की अधिसूचना को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो बातें कहीं थी, वे आज भी पूरी तरह से मान्य हैं.
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अदालत ने माना था कि इससे राज्यों, सरकारी विश्वविद्यालयों और मेडिकल कॉलेजों और अल्पसंख्यकों द्वारा चलाए जा रहे संस्थानों के साथ भेदभाव हो जाएगा. अदालत ने यह भी माना था कि नीट ग्रामीण इलाकों के बच्चे और भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले बच्चों के साथ भेदभाव कर सकता है.
2013 में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु ने नीट का जबर्दस्त विरोध किया था.
नीट का विरोध करने वाले लोगों ने उस वक्त कहा था कि सीबीएसई का पाठ्यक्रम शहरों पर केंद्रित है और यह कई राज्य बोर्ड के पाठ्यक्रमों से काफी अलग है. इससे होगा यह कि नीट वही बच्चे पास कर पाएंगे जिनके पास महंगी कोचिंग के लिए पैसे होंगे. एम्स और जिपमेर नीट के दायरे में नहीं आते. उनकी अपनी प्रवेश परीक्षाएं हैं.
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यह समझना मुश्किल है राज्यों से सहमति बनाए बगैर केंद्र ने जल्दबाजी में क्यों नीट लागू करा दिया.
शिक्षा समवर्ती सूची का हिस्सा है. इस नाते यह निर्णय केंद्र पर राज्यों के भरोसे के भी खिलाफ है. तमिलनाडु ने अपनी शिक्षा व्यवस्था को समावेशी बनाने पर सबसे अधिक जोर दिया है. 2007 से यहां मेडिकल कॉलेजों में दाखिला 12वीं में आए नंबर के आधार पर हो रहा है. आक्रामक आरक्षण नीति से यहां पिछड़ी जातियों से बड़ी संख्या में मेडिकल की पढ़ाई करने आ पाए. अनीता ने 12वीं में अच्छे अंक लाए थे लेकिन नीट पास करने में नाकाम रही. 2017 की शुरुआत में तमिलनाडु विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित करके यह तय किया था राज्य में नीट नहीं लागू होगा और पहले की नीति चलती रहेगी. अगस्त में कानून मंत्रालय ने राज्य सरकार के उस अध्यादेश के हरी झंडी दे दी जिसमें राज्य के मेडिकल छात्रों को नीट के दायरे से बाहर रखने का प्रस्ताव था. लेकिन केंद्र सरकार ने इस अध्यादेश को पास नहीं किया और राज्य को किए वादे से मुकर गई.
सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद तमिलनाडु सरकार ने नीट लागू करने में एक साल की छूट मांगी थी लेकिन अदालत ने मना कर दिया. क्योंकि केंद्र ने राज्य की मदद नहीं की.
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अनीता की आत्महत्या के मसले पर वहां की विपक्षी पार्टियों ने न सिर्फ भाजपा पर हमले किए बल्कि राज्य सरकार को भी निशाने पर लिया. अगर इस साल भी दाखिला अंकों के आधार पर होता तो अनीता अपने समुदाय की पहली डॉक्टर होती.
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो मेडिकल कॉलेज पैसा उगाहने के अड्डे बन गए हैं. जहां कागज पर शिक्षकों के नाम होते हैं, बुनियादी ढांचा ठीक नहीं होता और शिक्षा का स्तर बेहद घटिया होता है. मेडिकल काउंसिल ने भी माना है कि मेडिकल शिक्षा में बहुत फर्जीवाड़ा भी होता है. कई कॉलेजों में दलित और आदिवासी समाज के बच्चों के साथ भेदभाव भी होता है. मेडिकल कॉलेजों में दाखिले की परीक्षा एक कर देने से उस समस्या का समाधान नहीं होगा जो प्राथमिक स्तर से शुरू होती है. इस पर सभी राज्य सरकारों को ध्यान देना चाहिए. उच्च शिक्षा और मेडिकल शिक्षा में सामाजिक-आर्थिक हकीकतों को समझना बेहद जरूरी है और यह तब तक नहीं होगा जब तक इन मसलों पर संवेदनशील रुख नहीं अपनाया जाएगा.
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| इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली का संपादकीय (Economic and Political Weekly, वर्षः 52, अंकः 37, 16 सितंबर, 2017) |


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