भारत-पाकिस्तान : फिर गंवा ही दिया मौका
भारत-पाकिस्तान : फिर गंवा ही दिया मौका
भारत-पाकिस्तान : वही हुआ जिसके होने के आसार थे
0 राजेंद्र शर्मा
आखिरकार, वही हुआ जिसके होने के आसार थे। जैसा कि मोदी राज की पाकिस्तान नीति का कायदा ही बन गया है, ऐन आखिरी वक्त पर फैसला लिया गया है कि भारत के विदेश सचिव जयशंकर फिलहाल पाकिस्तान नहीं जाएंगे। इस तरह, 15 जनवरी के लिए प्रस्तावित विदेश सचिव स्तर की बातचीत टल गयी। यह दूसरी बात है कि इस फैसले के बावजूद यह दिखाने की रस्मी कोशिश में कि प्रधानमंत्री मोदी की ताजातरीन पाकिस्तान पहल को कोई धक्का नहीं लगा है, इसे बातचीत का टलना कहने से बचा जा रहा है। बहाना यह है कि दोनों पक्षों की सहमति से निकट भविष्य में बात करना तय हुआ है।
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता का कहना था कि, जब मियां-बीवी राजी, तो क्या करेगा काज़ी! खैर! पठानकोट के वायुसेना के अड्डे पर आतंकवादी हमले के बाद, पाकिस्तान के साथ बातचीत टलने में शायद ही किसी को अचरज होगा। वास्तव में भाजपा के नेतृत्ववाली एनडीए सरकार ने ऐसा नहीं किया होता तो ही अचरज की बात होती। यह संयोग ही नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी की एक प्रकार से औचक लाहौर यात्रा के बड़े संकेत के फौरन बाद ही पठानकोट में हुए सीमापार से आतंकवादी हमले ने, एनडीए के ही पिछले प्रधानमंत्री वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा के कुछ ही बाद हुए कारगिल के हमले की याद दिला दी।
इसके बावजूद, यह भी सच है कि विदेश सचिव स्तर की बातचीत के ‘होने न होने’ पर, आखिरी वक्त तक सस्पेंस बना हुआ था। और इसकी वजह सिर्फ इतनी नहीं थी कि नरेंद्र मोदी की सरकार, पाकिस्तान के प्रति नीति के मामले में करीब डेढ़ साल से ‘अभी नरम, अभी गरम’ के जिस झूले पर चढ़ी रही थी, उससे उतरकर उसने दोस्ती के रास्ते पर एक बड़ी पहल की थी, जिस पर वह आसानी से पानी नहीं फिरने देना चाहेगी।
आखिरकार, इस सचाई को समझने के लिए किसी विशेषज्ञता की जरूरत नहीं है कि दोनों देशों में ऐसी ताकतें मौजूद हैं जो, इन दो पड़ोसियों के बीच सामान्य रिश्ते नहीं देख सकती हैं। पाकिस्तान में खासतौर पर ऐसी अतिवादी ताकतों सक्रिय हैं, जो दोस्ती का हाथ बढ़ाने की ऐसी हरेक कोशिश को, आतंकवादी कार्रवाई के धक्के से पीछे धकेलने में भी समर्थ हैं। वास्तव में ठीक इसी हिसाब से की गयी कार्रवाइयों के और भी कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि आतंकवादी कार्रवाई के रूप में बाधाएं रास्ते में आएंगी, इसके लिए तो दोस्ती की कोई भी पहल करने वाले को पहले से तैयार रहना चाहिए था।
इसके अलावा और शायद इससे बड़ी वजह, पाकिस्तान के बदले हुए हालात में है, जिनकी स्पष्ट छाप पठानकोट के हमले के बाद से पाकिस्तान की प्रतिक्रिया में दिखाई दी है। जैसा कि अधिकांश टिप्पणीकारों ने दर्ज किया है और वास्तव में खुद सत्ताधारी भाजपा के प्रवक्ताओं ने टेलीविजन बहसों में बड़े जोर से रेखांकित भी किया है, सीमा पार से आतंकवाद के ऐसे दूसरे सभी प्रकरणों, मिसाल के तौर पर संसद पर हमले तथा मुंबई के हमले पर, पाकिस्तान ने ‘हम से क्या लेना’ की जो मुद्रा अपनायी थी, उसके विपरीत पठानकोट हमले के मामले में उसने शुरू से ‘जांच कराने और कार्रवाई करने’ की मुद्रा अपनायी है।
संभवत: पठानकोट प्रकरण को कारगिल जितना नुकसानदेह न बनने देने के लिए ही, प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने खुद प्रधानमंत्री मोदी को फोन कर दोषियों को सजा दिलाने में अपनी ओर से पूरे सहयोग का भरोसा दिलाया था। उसके बाद से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के जरिए मिले साक्ष्यों की आरंभिक जांच के बाद, एक ओर बाकायदा संयुक्त जांच कमेटी गठित किए जाने तथा विशेष जांच दल भारत भी भेजे जाने और दूसरी मसूद अजहर तथा उसके भाई समेत, जैश-ए-मोहम्मद के कारकूनों व दफ्तरों के खिलाफ कार्रवाई शुरू होने की खबर, विदेश सचिव स्तर की बातचीत टलने की खबर आने से पहले ही आ चुकी थी। ठीक इसी पृष्ठभूमि में गृहमंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता, राजनाथ सिंह ने बातचीत जारी रहने का संकेत देते हुए बाकायदा यह कहा था कि पाकिस्तान पर भरेासा न करने का कोई कारण नहीं है और उसे और समय दिया जाना चाहिए।
बहरहाल, मोदी सरकार ने अंतत: अपने बीच से भी उठ रही विवेक की इस आवाज को अनसुना कर दिया है और तीसरी बार विदेश सचिव स्तर की बातचीत को टाल दिया है। .... जारी.... शेष अगले पृष्ठ पर
यह सिर्फ नवाज शरीफ की बात पर भरोसा करने या न करने का मामला नहीं
याद रहे कि यह सिर्फ नवाज शरीफ की बात पर भरोसा करने या न करने का मामला नहीं है, जैसा कि सरकार के इस फैसले की हिमायत में कहा जा रहा होगा। वास्तव में संसद हमले तथा मुंबई हमले के बाद, मसूद अज़हर और लखवी के खिलाफ पाकिस्तानी प्रशासन ने उन्हें कुछ समय तक कैद में रखने समेत कार्रवाइयां भी की थीं। इसलिए, कहा जा सकता है कि जब पहले की कार्रवाइयों का कोई खास नतीजा नहीं निकला, इस बार के कदमों के पीछे गंभीरता होने की क्या गारंटी है?
इसी प्रकार, यह सिर्फ पाकिस्तान में सेना या आइ एस आइ के सामने निर्वाचित प्रधानमंत्री की चलने न चलने का सवाल भी नहीं है, जैसाकि भांति-भांति के सामरिक-सैन्य विशेषज्ञों द्वारा बार-बार बताया जाता है। असली मुद्दा यह है कि पाकिस्तान खुद इस समय, आतंकवाद के खिलाफ गंभीर लड़ाई में लगा हुआ है। बेशक, हम चाहें तो इससे खुश हो सकते हैं कि यह मुसीबत पाकिस्तान ने खुद ही मोल ली है और उसे अब खुद अपनी ही बोई फसल काटनी पड़ रही है। लेकिन, कोई जिम्मेदार पड़ौसी इससे खुश होना तो दूर, इस टकराव में तटस्थ भी नहीं रह सकता है।
मसूद अज़हर के ताजा बयानों से साफ है कि भारत और पाकिस्तान का सहयोग के रास्ते पर चलना, इन भारतविरोधी ताकतों के, पाकिस्तान के शासन से टकराव को भी तेज करता है। कहने की जरूरत नहीं है कि भारत का हित, ऐसी तमाम ताकतों को पाकिस्तान के शासन से भी अलग-थलग कराने में और इन ताकतों के खिलाफ पाकिस्तान की निर्वाचित राजनीतिक सत्ता के हाथ मजबूत करने में ही है।
सच तो यह है कि डेढ़ साल के ‘नरम-गरम’ के बाद, नरेंद्र मोदी की सरकार का ‘‘चौतरफा बातचीत’’ के रास्ते पर आना और लाहौर यात्रा जैसी नाटकीय पहल करना, इस सचाई के पहचाने जाने को ही दिखा रहा था कि इसके सिवा और कोई रास्ता ही नहीं है। बेशक, दक्षिण एशिया के दो नाभिकीय पड़ौसियों के बीच रिश्तों में खटास, बाकी सारी दुनिया को भी चिंतित करती है। स्वाभाविक रूप से अमरीका से लेकर चीन तक, दोनों देशों के बीच बातचीत पर और पाकिस्तान द्वारा आतंकवादी तत्वों पर अंकुश लगाए जाने पर जोर देते रहे हैं। फिर भी असली मुद्दा, इन दो पड़ोसियों की साझा नियति का है। लेकिन, साझा नियति को बेहतर बनाने के लिए, दोनो पड़ोसियों के बीच रिश्तों को सुधारना जितना जरूरी है, आतंकवादियों की हरकतों से अपनी हिफाजत करना भी उतना ही जरूरी है।
पठानकोट की परीक्षा में बुरी तरह से फेल हुई है मोदी सरकार
बार-बार छप्पन इंच की छाती दिखाने वाली और ईंट का जवाब पत्थर से देने का दम भरने वाली, नरेंद्र मोदी की सरकार पठानकोट की परीक्षा में बुरी तरह से फेल हुई है। पहले से खुफिया जानकारियां हासिल होने तथा अपहृत एसपी के माध्यम से हमले से चौबीस घंटे पहले ठोस जानकारी मिल चुकी होने के बावजूद, हमला न रोक पाने से लेकर, फौज के गढ़ पठानकोट में वायु सेना के अड्डे की रखवाली के लिए एनएसजी को बुलाए जाने तथा एकीकृत कमान मुहैया न करा पाने तक, विफलताओं की सूची अंतहीन है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इन विफलताओं की ओर से ध्यान हटाने के लिए ही मोदी सरकार, बातचीत टालने के जरिए पाकिस्तान पर दबाव और बढ़ाने की मुद्रा का सहारा ले रही है। हेकड़ी की मुद्राएं, अपनी हिफाजत के बंदोबस्तों की जगह नहीं ले सकती हैं।
नहीं टलनी चाहिए विदेश सचिव के स्तर की बातचीत
पठानकोट की वारदात के ही संदर्भ में मसूद अज़हर के हिरासत में लिए जाने की खबर आने के अगले ही दिन, बातचीत टलने की खबर के साथ ही पाकिस्तान के विदेश विभाग के प्रवक्ता के अज़हर के खिलाफ कार्रवाई की कोई जानकारी न होने का दावा किए जाने से ऐसा लगता है कि, भारत-पाक संबंधों में सुधार का एक और मौका गंवा दिया गया है। बेशक, भारत और पाकिस्तान के संबंधों का इतिहास, ऐसे गंवाए गए मौकों से भरा पड़ा है। मोदी के लिए इस दिशा में दोबारा पहल करना और मुश्किल हो जाएगा। यह नहीं भूलना चाहिए कि जैसे-जैसे जनता का मोदी सरकार से मोहभंग हो रहा है, वैसे-वैसे संघ-भाजपा जोड़ी में मोदी का वजन तथा अपनी चलाने का मौका भी घट रहा है। शुक्र है कि कम से कम रक्षा सलाहकारों के स्तर पर बातचीत जारी है। लेकिन, मोदी सरकार को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह बातचीत, विदेश सचिवों तथा उनसे ऊपर के स्तर पर होने वाली चौतरफा बातचीत का विकल्प नहीं है। विदेश सचिव के स्तर की बातचीत ‘बहुत निकट भविष्य’ से ज्यादा नहीं टलनी चाहिए।


