अगर काँग्रेस सरकार ने 1995 में गणेशजी को दूध पिलाने की अफवाह फैलाने वालों को तलाश लिया होता तो आज काँग्रेस और भाजपा दोनों की ही स्थिति भिन्न होती।
अपने सारे आदर्श पुराणों से लेने वाले आर एस एस के साहित्य में भी मातृभूमि की जगह पितृभूमि और पुण्यभूमि से नागरिकता तय करने की बात कही गयी है।
अगर उनके पास पालतू मीडिया न हो तो इनके झूठ का प्रचार निष्पक्ष मीडिया में एक दिन भी नहीं टिक सकता।
वीरेन्द्र जैन
दिल्ली के बाद बिहार विधानसभा में भाजपा की पराजय के बाद से बने राजनीतिक माहौल को भटकाने के लिए प्रतिदिन कोई न कोई गैर राजनीतिक बयानबाजी का खेल खेला जा रहा है।
प्रत्येक चुनाव परिणाम के बाद पराजित दल का नेता न्यूज चैनल पर कहता है कि हम अपनी पराजय की समीक्षा करेंगे, किंतु यह समीक्षा कब कहाँ होती है और उससे वे क्या शिक्षा ग्रहण करते हैं, यह कभी सामने नहीं आ पाता। होना तो यह चाहिए कि प्रत्येक पराजित दल अपने कामों की सच्ची समीक्षा करे और कमियों को स्वीकार करते हुए उन्हें दूर करने के उपाय करे, पर इनका अभिमान इन्हें ऐसा नहीं करने देता। वे चुनावों में इतना झूठ बोल चुके होते हैं कि सच्चाई से उन्हें अपनी छवि पर खतरा नजर आता है। कहते हैं कि एक झूठ को दबाने के लिए सौ दूसरे झूठ बोलने पड़ते हैं और वे ऐसा ही करने लगते हैं।

सबसे ताजा शगूफा ‘भारत माता की जय’ से जोड़ कर उछाला गया है जिसका कोई तात्कालिक सामाजिक सन्दर्भ नहीं है। हमारी परम्परा में कहा गया है कि ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ अर्थात जन्मभूमि और माँ स्वर्ग से भी बढ़ कर हैं। इससे स्पष्ट है कि ये दो अलग संज्ञाएं हैं। हमारे पुरुषवादी समाज में पितृभूमि शब्द आया है क्योंकि महिला शादी के बाद अपनी जन्मभूमि छोड़ कर अपने पति के घर आयी होती है जहाँ घर और भूमि पर पुरुषों का ही अधिकार होता आया है। अपने सारे आदर्श पुराणों से लेने वाले आर एस एस के साहित्य में भी मातृभूमि की जगह पितृभूमि और पुण्यभूमि से नागरिकता तय करने की बात कही गयी है। लोक परम्परा में भी पुरखों की जमीन पर लगाव का प्रदर्शन किया गया है। अंग्रेजों के यहाँ ‘मदर लैण्ड’ शब्द आया है जिससे हमने मातृभूमि शब्द लिया है और उसी से ‘भारतमाता’ शब्द का जन्म हुआ है। भारत के लिए अंग्रेजों से लड़ने का पहला काम 1857 से प्रारम्भ होकर काँग्रेस के गठन के बाद ही कोई ठोस रूप ले सका क्योंकि इससे पहले हम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं अपितु अपने अपने राज्यों के लिए लड़ने वाले राजाओं की फौज के सिपाही हुआ करते थे। महाराणा प्रताप अपने मेवाड़ के लिए लड़ने वाले राजा थे भारत के लिए लड़ने वाले राजा नहीं। उसी तरह शिवाजी और टीपू सुल्तान आदि की लड़ाइयां भी अपने अपने राज्यों और जाति के आत्मसम्मान के लिए थीं। इसलिए उस दौरान भारत माता की कोई परिकल्पना ही नहीं थी। चारणों के साहित्य में भी राज्य और राजा के लिए लड़ने का आवाहन मिलता है ‘मातृभूमि’ के लिए लड़ने का कोई आवाहन नहीं मिलता।
भारत माता की कल्पना करने वालों ने उसे एक उत्तर भारतीय हिन्दू देवी का रूप दे दिया जबकि विविधता से भरे इस देश में भिन्न क्षेत्रों की माताएं भिन्न भिन्न पोषाकें पहनती हैं। पंजाब की सिख महिला सलवार कमीज पहनती है जबकि हरियाणा की महिला कमीज और साड़ी पहिनती है। बंगाल की हिन्दू मुस्लिम सभी महिलाएं साड़ी पहनती हैं तो महाराष्ट्र की माताएं अपने भिन्न अन्दाज में साड़ी बांधती हैं। गोवा और उत्तरपूर्व की महिलाओं की पोषाकें तो हमारी कथित भारतमाता से बिल्कुल भिन्न हैं जिसे कुछ चित्रों में शेर पर बैठा कर मानव मूर्ति से भिन्न दिखाने की कोशिश की गयी है। झंडा तो हमारा राष्ट्रीय प्रतीक हो सकता है किंतु भारतमाता राष्ट्रीय प्रतीक नहीं हो सकती और मूर्तिपूजा में आस्था न रखने वालों के विवेक को स्वीकार नहीं होती।
विपक्ष में रहते हुए भाजपा को अपनी वोटों की राजनीति के लिए कोई न कोई भावुक मुद्दा चाहिए होता था और अब अपनी सरकार की अलोकप्रियता को भटकाने के लिए भी वे उसी का प्रयोग करते रहते हैं। राम जन्मभूमि मन्दिर, गौहत्या, लव जेहाद, घर वापिसी, धर्म परिवर्तन, आतंकवाद, तिरंगा, भारतमाता, सैनिकों के बलिदान को सामाजिक मांगों के आगे ला देना, आदि ऐसे ही ध्यान भटकाऊ मुद्दे हैं। शिक्षा, सूचना और राजनीतिक चेतना बढने के बाद अब इन मुद्दों पर भटकने वालों में ज्यादातर कम समझ वाले अधकचरे लोग ही रह गये हैं, इसलिए वे जल्दी जल्दी मुद्दे बदलने लगे हैं। अगर उनके पास पालतू मीडिया न हो तो इनके झूठ का प्रचार निष्पक्ष मीडिया में एक दिन भी नहीं टिक सकता। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी विज्ञापनों के आडिट कराने की सलाह दी थी जिस पर अमल नहीं हो रहा है पर जब भी कोर्ट सख्त होगा तब सरकारों के सच के संकेत सामने आ जायेंगे।
देशद्रोह, गद्दारी, जैसी पुरानी गालियों को भी नये अर्थों में समझने की जरूरत है, और इनका प्रयोग करने वालों को भी पहचानने की जरूरत है। राजतंत्र में जब प्रतिपक्ष नहीं होता था तब राज परिवार का कोई व्यक्ति अथवा असंतुष्ट राजदरबारी राजा के दुश्मन से मिलकर अपना बदला लेने की कोशिश करता था या लालच में आकर राज्य की गुप्त सूचनाएं दुश्मन तक पहुँचाता था। ये सूचनाएं आम तौर पर सैन्यतंत्र से जुड़ी होती थीं। दुश्मन राजा को इससे कम संघर्ष में ही विजय मिल जाती थी। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में राज्य की समीक्षा करने का अधिकार जनता या प्रतिपक्षी दलों को रहता है इसलिए ज्यादातर मामलों में जनता आन्दोलनों या चुनावों से सरकार बदल सकती है जिसका आवाहन खुले आम किया जाता है ताकि ज्यादातर लोगों तक पहुँच सके। अपने अपराधबोध में सत्तारूढ दल ऐसे विरोध को ही देशद्रोह और गद्दार जैसी पुरानी गालियों से बदनाम करता है। किसी दूसरे देश जैसी शासन व्यवस्था को पसन्द करने और लाने की बात कहने वालों को भी निहित स्वार्थ इन्हीं शब्दों से कमजोर करने की कोशिश करते हैं।
अब पारदर्शिता और सूचनातंत्र इतना बढ गया है कि पुरानी तरह की गद्दारी की जरूरत ही नहीं बची है। एटम बमों, मिसाइलों, और हवाई हमलों के युग में अगर गद्दार होंगे तो वे भी मारे जायेंगे क्योंकि तलवार चलाने वाला तो पहचान सकता है पर बम मिसाइल नहीं पहचान सकती। अब साम्राज्यवाद का नया युग है। यह किसी राज्य की अर्थव्यवस्था पर अपना वर्चस्व बना कर उसे अपना पिछलग्गू बना लेने का युग है। इसलिए अगर अब गद्दारी तलाशना हो तो हमें आर्थिक जगत की नीतियों को प्रभावित करने वालों में ही तलाशने जाना होगा। लोकतंत्र में झूठ के प्रचार के औजार ही सबसे खतरनाक हथियार हैं। अगर काँग्रेस सरकार ने 1995 में गणेशजी को दूध पिलाने की अफवाह फैलाने वालों को तलाश लिया होता तो आज काँग्रेस और भाजपा दोनों की ही स्थिति भिन्न होती।