भारत में लोकतंत्र का दायरा निरंतर सिकुड़ता जा रहा है- आनंद स्वरूप वर्मा
भारत में लोकतंत्र का दायरा निरंतर सिकुड़ता जा रहा है- आनंद स्वरूप वर्मा
पूंजीवाद के लिए लोकतंत्र सबसे मुफीद व्यवस्था साबित हुई, लेकिन भारत में लोकतंत्र का दायरा निरंतर सिकुड़ता जा रहा है- आनंद स्वरूप वर्मा
आज के दौर में सच बोलना क्रांतिकारी काम-आनंद स्वरूप वर्मा
जनता को गूंगा बनाने वाली ताकतों की शिनाख्त जरूरी –प्रो. रविभूषण
लोकरंग-2016 के दूसरे दिन ‘साहित्य, संस्कृति और समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न’ पर हुई संगोष्ठी
जोगिया ( कुशीनगर), 11 मई। प्रसिद्ध पत्रकार एवं “समकालीन तीसरी दुनिया” के संपादक आनन्द स्वरूप वर्मा ने कहा है कि पूंजीवाद के लिए लोकतंत्र सबसे मुफीद व्यवस्था साबित हुई है। पूंजीवादी लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखने के लिए विरोध की गुंजाइश दी जाती है लेकिन भारत में लोकतंत्र का दायरा निरंतर सिकुड़ता जा रहा है और हालत यह हो गई कि किसी विषय पर बोलते तक पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है।
श्री वर्मा लोकरंग-2016 के दूसरे दिन दोपहर में साहित्य, संस्कृति और समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न विषय पर आयोजित संगोष्ठी में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि मौजूदा सरकार लोकतंत्र के दायरे को इसलिए सिकोड़ और खत्म कर रही क्योंकि उसे आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र बनाने के एजेंडे को पूरा करना है। इस एजेंडे को पूरा करने की कोशिश में वह विरोध, असहमति की हर आवाज को बंद कर रही है। उन्होंने प्रसिद्ध पत्रकार पी साईंनाथ के कथन को हवाले से कहा कि अगले पांच वर्ष में सभी मीडिया समूह सिर्फ एक उद्योगपति मुकेश अंबानी के कब्जे में होंगे और जनपक्षीय पत्रकारिता बहिष्कृत कर दी जाएगी। वैकल्पिक मीडिया इसको चुनौती दे सकता है लेकिन उसका रास्ता बहुत कठिन है। उन्होंने ब्रतोल्त ब्रेख्त को हवाला देते हुए कहा कि उन्होंने कहा था कि जब मीडिया पूंजीपतियों के गिरफ्त में चली जाए तो समूहों के माध्यम से सच्ची खबरों को जनता के बीच पहुंचाने का काम करना होगा। इसके लिए सत्य को पहचानने का कौशल रखने वाले, उसे व्यक्त करने का साहस करने वाले और उसे प्रसारित करने की चतुराई रखने वाले लोगों को यह कार्यभार अपने ऊपर लेना होगा। उन्होंने जार्ज आरवेल के कथन को दुहराते हुए कहा कि जब चारों तरफ धोखाधड़ी का साम्राज्य हो तो सच बोलना ही क्रांतिकारी काम होता है और हमें यह खतरा उठाना होगा।
वरिष्ठ आलोचक एवं जन संस्कृति मंच के उपाध्यक्ष प्रो. रविभूषण ने कहा कि आज लोकतंत्र के चारों पाए बुरी तरह हिल रहे हैं। इसे देखने के लिए भीतर के आंख की जरूरत होगी। उन्होंने कहा कि संसदीय लोकतंत्र में हमें संविधान ने सवाल पूछने का हक दिया है। क्या हमें यह सवाल पूछने का हक नहीं है कि लाखों किसान क्यों आत्महत्या कर रहे हैं ? देश की 1.25 करोड़ आबादी में से 30 करोड़ लोगों को पानी मयस्सर क्यों नहीं है ? इस तरह के सवाल पहले भी कवियों,बु़द्धिजीवियों ने पूछा है और इसकी सजा भुगती है। यह कार्य वे आज भी कर रहे हैं और भुगत रहे हैं। बोलने की आजादी का सवाल केवल बौद्धिक वर्ग का नहीं हरेक व्यक्ति का है। उन्होंने कहा कि बोलने की आजादी पर हमले का सिलसिला पुराना है। उन्होंने कहा कि 1968 के बाद से देश में 40-50 बड़ी कंपनियां अस्तित्व में आती हैं और वे राजनीति को अपने नियंत्रण में लेना शुरू करती हैं। इसके बाद 1980-1990 तक आते-आते देश की संसद में करोड़पतियों की संख्या बढ़ने लगती है। इस स्थिति ने जनतंत्र को धनतंत्र में बदल दिया है। उन्होंने जनता को गूंगा बनाने वाली ताकतों को शिनाख्त कर उसके खिलाफ संघर्ष तेज करने का आह्वान किया।
आंतरिक रूप से देश की आजादी को कटघरे में कैद कर दिया गया है- प्रो. दिनेश कुशवाह
प्रो. दिनेश कुशवाह ने कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल एक संत्रास के रूप ले लिया है। लिखने-पढ़ने, बोलने ही नहीं खान-पान, पहनावे तक को नियंत्रित करने का काम हो रहा है। उन्होंने कहा कि क्या आज हम कबीर और रैदास के कहे को बोल पाने की स्थिति में है ? उन्होंने शैक्षिक संस्थान में बढ़ते हस्तक्षेप का जिक्र करते हुए कहा कि आंतरिक रूप से देश की आजादी को कटघरे में कैद कर दिया गया है।
हमारी लड़ाई आज लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई बन गई है – ताहिरा हसन
महिला आंदोलन की प्रमुख कार्यकर्ता ताहिरा हसन ने कहा कि यह सच है कि अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला पहले से होता आ रहा है लेकिन आज इसमें अभूतपूर्व इजाफा हुआ है। उन्होंने कहा कि हाशिए के सवाल को उठाने पर, सामाजिक न्याय का सवाल उठाने पर राज्य सत्ता तीखे हमले कर रही है। उन्होंने रोहित वेमुला की आत्महत्या, जेएनयू प्रकरण का जिक्र करते हुए कहा कि हमारी लड़ाई आज लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई बन गई है और इसके लिए एकजुुटता सबसे जरूरी शर्त है।
सत्ता स्ट्रीट सेंसरशिप को बढ़ावा दे रही है- मनोज कुमार सिंह
वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन ने कहा कि बिना क्रांतिकारी राजनीति से जुड़े क्रांतिकारी बदलाव नहीं लाया सकता। साहित्य, संस्कृति के कर्म को क्रांतिकारी राजनीति से अलग कर नहीं देखा जाना चाहिए। आज जो स्थिति बनी है उसमें हमारी निष्क्रियता भी कम जिम्मेदार नहीं है। ऐसे हालात में भी एकजुटता न बन पाना निराशा पैदा करता है।
पत्रकार मनोज कुमार सिंह सोशल मीडिया, सिनेमा, पत्रकारिता, साहित्य पर सत्ता के हमले का जिक्र करते हुए कहा कि आज के दौर की नई प्रवृति यह है कि सत्ता स्ट्रीट सेंसरशिप को बढ़ावा दे रही है वे सब कुछ अपने हिसाब से तय कर देना चाहते हैं।
विजय गौड़ ने श्रम संबंधों में आ रहे बदलाव के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए आज के संकटों से उसके रिश्ते से जोड़ा और कहा कि जो कुछ मुफीद न हो उसको विखंडित कर नया निर्माण करने की तरफ बढ़ना चाहिए। लोक साहित्य के मर्मज्ञ आद्या प्रसाद द्विवेदी ने अर्वाड वापसी, मीडिया की प्रवृत्तियों पर चर्चा करते हुए इस बात से असहमति जताई कि आज के हालात को बढ़ा-चढ़ा कर खराब बताया जा रहा है।
संगोष्ठी में देहरादून से आए जितेन्द्र भारती ने सेकुलरिज्म को फिर से परिभाषित करने पर जोर दिया।
अध्यक्षीय वक्तव्य में तैयब हुसैन ने कहा कि आज आम लोगों और बुद्धिजीवियों के बीच काफी दूर हो गई है। जरूरत है कि बुद्धिजीवी किसानों, मजदूरों, आम लोगों में जाए और उनकी भाषा व रचना से जुड़े। विषय प्रवर्तन डा. मुन्ना तिवारी ने किया।
(इनपुट्स- गोरखपुर न्यूज़लाइन)


