भारत में श्रमिक आंदोलन के अग्रदूत- नारायण मेघाजी लोखंडे
भारत में श्रमिक आंदोलन के अग्रदूत- नारायण मेघाजी लोखंडे

हमारे श्रमिक नेता : नारायण मेघाजी लोखंडे (1848-1897)
Narayan Meghaji Lokhande : The father of the Indian labor movement.
नारायण मेघाजी लोखंडे को भारतीय श्रम आन्दोलन का जनक कहा जा सकता है।
भारत में श्रम आन्दोलन के जनक, महात्मा ज्योतिबा फूले के अनुयायी, नारायण मेघाजी लोखंडे का जन्म 1848 में तत्कालीन विदर्भ के पुणे जिले के कन्हेरसर में एक गरीब फूलमाली जाति के साधारण परिवार में हुआ था। कालान्तर में उनका परिवार आजीविका के लिये थाणे आ गया। यहीं से लोखंडे ने मेट्रिक की परीक्षा पास की।
परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण वह उच्च शिक्षा जारी न रख सके और गुजर-बसर के लिये उन्होंने आरम्भ में रेलवे के डाक विभाग में नौकरी कर ली।
बाद में वह बॉम्बे टेक्सटाइल मिल में स्टोर कीपर के रूप में कुछ समय तक कार्य किया। यहीं पर लोखंडे जी को श्रमिकों की दयनीय स्थिति को करीब से देखने, समझने, महसूस करने और इस सम्बन्ध में विचार करने का अवसर मिला। और वे कामगारों की तमाम समस्याओं से अवगत हुये व खुद भी बहुत करीब से उसे महसूस किया। इसी समय से श्रमिकों की दशाओं और उनके कारणों को समझने की दिशा में उनकी रूचि जाग्रत हुयी।
उन्होंने सन् 1880 में ‘दीन बंधु’ नामक जर्नल के सम्पादन का दायित्व ग्रहण किया और उसे वो अपनी मृत्यु तक सन 1897 तक अनवरत् निभाते रहे।
वह उस जर्नल में प्रकाशित होने वाले अपने तेज़स्वी लेखों के माध्यम से मालिकों द्वारा श्रमिकों के शोषण का प्रभावपूर्ण तरीके से चित्रण करना व उसकी आलोचना और उनकी कार्य परिस्थितियों में बदलाव का समर्थन किया करते थे। समाज के उपेक्षित, असुरक्षित व असंगठित वर्गों को संगठित करने का अभियान उन्होंने यहीं से प्रारम्भ किया जो जीवन पर्यन्त चलता रहा। सन् 1884 में ‘बॉम्बे हैंड्स एसोसिएशन’ नाम से भारत में उन्होंने प्रथम ट्रेड यूनियन की स्थापना की और इसके अध्यक्ष भी रहे। 1881 में तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने मजदूरों की माँग व दबाव के चलते कारखाना अधिनियम बनाया लेकिन मजदूर इस अधिनियम से संतुष्ट नहीं थे। अंग्रेजी सरकार को 1884 में इस अधिनियम में सुधार के लिये जाँच आयोग नियुक्त करना पड़ा।
इसी वर्ष लोखंडे जी ने ‘बॉम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन’ की स्थापना की।
ज्ञात हो कि सत्रहवी-अठारहवीं सदी में भारत अपनी बेहतरीन टेक्सटाइल के लिये पाश्चात्य दुनिया में प्रसिद्ध था। बॉम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन ने सितम्बर 1884 में प्रथम श्रमिक आम सभा आयोजित की। इस सभा में लगभग साढ़े पाँच हज़ार श्रमिकों ने हिस्सा लिया। सभा के अन्त में एक प्रस्ताव पास किया गया जिसमें मुख्यतः पाँच माँगें रखी गयी थीं :- रविवार को साप्ताहिक छुट्टी हो। भोजन करने के लिये छुट्टी दी जाये। काम के घंटे निश्चित हों। काम के समय किसी तरह की दुर्घटना हो जाने की स्थिति में कामगार को सवेतन छुट्टी दी जाये; और दुर्घटना के कारण किसी श्रमिक की मृत्यु हो जाने की स्थिति में उसके आश्रितों को पेंशन मिले।
इसके बाद उपरोक्त सभी बातों को शामिल करते हुये एक याचिका तैयार की गयी जिस पर 5500 श्रमिकों ने हस्ताक्षर किये थे और इसे फैक्ट्री कमीशन के सामने प्रस्तुत किया गया। इस याचिका के माध्यम से प्रस्तुत माँगों का फैक्ट्री मालिकों ने विरोध किया और अंग्रेजी सरकार भी इसकी अनदेखी करती रही। विवश होकर लोखंडे जी जगह-जगह आम सभाओं के माध्यम से उपरोक्त माँगों को मनवाने के लिये दबाव बनाते रहे। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण आम सभा अप्रैल, 1890 में बॉम्बे के रेसकोर्स मैदान में आयोजित की गयी जिसमें दस हज़ार से अधिक श्रमिकों ने हिस्सा लिया, तथा अनेक महत्वपूर्ण भाषण हुये जिनमें से कई महिला कामगारों ने दिये।
अंततः लोखंडे जी को उपरोक्त माँगों को पाने के लिये हड़ताल का सहारा लेना पड़ा। मजदूरों की इस हड़ताल के आगे मालिकों को हार माननी पड़ी और सभी कामगार क्षेत्रों में साप्ताहिक अवकाश की घोषणा हुयी। इसके तुरन्त बाद सरकार ने एक फैक्ट्री श्रम आयोग का गठन किया जिसमें श्रमिकों का प्रतिनिधित्व लोखंडे जी ने किया। इस आयोग की सिफारिश पर श्रमिकों के काम के घंटे तय हुये। आयोग ने कामगारों को भोजन की छुट्टी देने का भी निर्णय लिया, लेकिन मालिकों ने आयोग की इस सिफारिश को अस्वीकार कर दिया।
जब श्रम आयोग की सिफारिश की स्वीकृति में विलम्ब होने लगा तो 1894 में लोखंडे जी ने इसके लिये फिर से संघर्ष शुरू किया।
इस संघर्ष में महिला कर्मचारियों ने भी भाग लिया। लोखंडे जी के सतत् प्रयासों का लाभ यह मिला कि श्रमिकों को रविवार को साप्ताहिक अवकाश, आधे घंटे का भोजनावकाश और काम के समय में कमी की बात मान ली गयी। इस दौरान लोखंडे जी ने महसूस किया कि श्रमिकों के निजी जीवन में व्याप्त दुर्व्यसनों एवं दुराचार को दूर किये बिना उनकी स्थिति में सुधार नहीं किया जा सकता है। अतः उन्होंने इस दिशा में भी प्रचार और आन्दोलनों के माध्यम से प्रयास किये। लोखंडे जी के व्यक्तित्व का एक विशेष पहलू जिसकी वजह से अन्य श्रमिक नेताओं की तुलना में वह अपनी अलग ही पहचान रखते हैं, वह यह था कि वह उन गैर मजदूरों, जो किसी भी प्रकार के भेदभाव के शिकार थे, के कल्याण के प्रति भी उतने ही प्रतिबद्ध थे जितने कि मजदूरों के कल्याण के प्रति।
उन्होंने महिलाओं, विशेषतः विधवाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों व समाज के अन्य कमजोर तबके के हितों के लिये संघर्ष को नेतृत्व प्रदान किया। लोखंडे जी का व्यापक सामाजिक सरोकार उस उमंग और उत्साह से स्पष्ट झलकता था जिससे कि वह ‘दीन बन्धु’ का सम्पादन करते थे। उन्होंने मार्च, 1890 में महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों से आये नाइयों की एक सभा आयोजित की जिसमें यह प्रस्ताव पारित किया गया कि विधवाओं के सिर मुंडवाने की प्रथा एक बर्बर प्रथा है। अतः इसमें कोई भी नाई शामिल नहीं होगा। उन्होंने 1893 के साम्प्रदायिक दंगों के तुरन्त पश्चात हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के बीच आपसी सद्भाव और एकता को पुनर्स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान किया। उन्होंने बम्बई के प्रसिद्ध एलिजाबेथ गार्डन (जिसका वर्तमान नाम जीजामाता बाई बगीचा) में मजदूरों की एकात्म परिषद का आयोजन किया, जिसमें सभी धर्मों और पंथों के लगभग साठ हज़ार मजदूरों ने भाग लिया।
राष्ट्रीय एकात्मता का भाव जगाने के लिये लोखंडे जी का यह प्रयास अप्रतिम था। इसी प्रकार वर्ष 1896 में बम्बई में प्लेग की महामारी के दौरान लोखंडे जी ने प्लेग प्रभावित लोगों की मिशनरी भाव से सेवा की और उसी समय एक चिकित्सालय की स्थापना भी की। परन्तु दुर्भाग्यवश प्लेग की इस महामारी से लोगों को बचाने की अपनी इस लड़ाई में वो प्लेग की चपेट में आ गये और पाँच फ़रवरी 1897 को उनका देहांत प्लेग के ही वजह से हो गया।
विभिन्न सामाजिक क्षेत्रों में लोखंडे जी के सक्रिय योगदान को मान्यता प्रदान करते हुये उन्हें ‘जस्टिस ऑफ़ पीस’ की उपाधि प्रदान की गयी। मई 2005 में लोखंडे जी की स्मृति में भारत सरकार द्वारा एक डाक टिकट जरी किया गया। इस अवसर पर डाक टिकट जारी करते हुये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लोखंडे जी के व्यक्तित्व को अनुकरणीय बताते हुये आज के दौर के श्रमिक नेताओं से अनुरोध किया कि वे सामाजिक बदलाव लाने व लोगों के सशक्तिकरण के लिये लोखंडे जी के दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करें।
साथ ही उन्होंने कहा कि मार्क्स और एंजिल्स ने श्रमिक वर्ग को सामजिक क्रान्ति के अग्रदूत की उपाधि इसलिये दी क्योंकि उन्होंने पाया कि उस समय श्रमिक वर्ग समाज का सामाजिक और राजनीतिक रूप से सर्वाधिक जागरूक वर्ग था। आगे उन्होंने लोखंडे जी से प्रेरणा ले ट्रेड यूनियन आन्दोलन की शक्ति का प्रयोग समाज को आगे बढ़ाने के लिये करने का आह्वान किया जिससे कि हमारे देश के लोगों में देश-प्रेम व सभी लोगों के कल्याण के प्रति प्रतिबद्धता जाग्रत हो। यद्यपि लोखंडे वर्तमान भारतीय ट्रेड यूनियन नेता के तौर पर उतना जाना-पहचाना नाम नहीं है, जबकि उनकी मृत्यु के कुछ वर्षों बाद ही उनकी एक छोटी सी जीवनी प्रकाशित हुयी थी, परन्तु वह जीवनी आज आसानी से उपलब्ध नहीं है। वर्तमान में मराठी लेखक मनोहर कदम जी ने उनकी जीवनी मराठी में लिखी है जो कि बेहतर ढंग से उनके जीवन व कार्यों से हमें परिचित कराती है।
मसऊद अख्तर
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं।


