भारत रत्न–चर्चा में विवेक का अभाव
भारत रत्न–चर्चा में विवेक का अभाव
देशी-विदेशी बडे पुरस्कार मिलने पर भारतीय उपमहाद्वीप में अतिरंजनापूर्ण प्रतिक्रियाएं होती हैं। वह भी चरम पर पहुंची हुई। पुरस्कार पाने वाला व्यक्ति एक सिरे से उपलब्धियों का पिटारा और महानता का शिखर मान लिया जाता है। ऐसा ही पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारतरत्न मिलने पर हो रहा है। जिधर देखो उनकी महानता का अतिरंजनापूर्ण गुणगाण हो रहा है। पिछले दिनों पाकिस्तान में जमातउद दावा के अध्यक्ष हाफिज सईद से मिलने पर सुर्खियों में आए एक वरिष्ठ पत्रकार ने तो यहां तक कह डाला है कि वाजपेयी को यह पुरस्कार मिलने पर भारत रत्न सम्मानित हुआ है। प्रशंसा और निंदा में हमारी अतिरंजनाओं का कोई अंत नहीं रहता है। विषय पर विवेकसम्मत चर्चा करना हम भूलते जा रहे हैं।
भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार है और आरएसएस अपना एजेंडा लागू करने में पूरे जोशोखरोश से लगा है। ऐसी स्थ्िाति में भाजपा के वरिष्ठतम नेता वाजपेयी को देश का यह सर्वोच्च सम्मान मिलना तय था। पिछली एनडीए सरकार के समय संसद में सावरकर के चित्र की स्थापना से लेकर मौजूदा सरकार के वाजपेयी को भारतरत्न देने तक कट्टरतावादी और पुराणपंथी ताकतों ने भारत के राजनीतिक इतिहास में लंबा सफर तय किया है। पराधीनता के दौर में उपनिवेशवाद औेर स्वतंत्रता के दौर में नवसाम्राज्यवाद का समर्थन करने वाली इन ताकतों की यह उपलब्धि कही जा सकती है। और स्वतंत्रता आंदोलन व संविधान के मूल्यों में विश्वास करने वालों के लिए सबक।
इस मौके पर डॉ. प्रेम सिंह की पुस्तिका ‘मिलिए योग्य प्रधानमंत्री से’ (2004) की चर्चा होनी चाहिए थी जिसमें वाजपेयी के राजनीतिक व्यक्तित्व और विचारधारा की पड़ताल की गई है। पुस्तिका में संकलित सभी लेख ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित हुए थे और हमारी पुस्तक ‘कट्टरता जीतेगी या उदारता’ (राजकमल प्रकाशन) में भी शामिल हैं। उस समय भाजपा ने स्वदेशी का मुखौटा लगा कर नवउदारवादी नीतियों को आगे बढ़ाया था। आज उसने वह मुखौटा उतार कर फेंक दिया है। पिछले कार्यकाल में उसने अमेरिका के साथ सघन रिश्ते भी कायम किए थे जो मौजूदा सरकार का एक मात्र ध्येय बन गया है। उसी का नतीजा है नवउदारवादी व्यवस्था के शीर्षस्थ नेता अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा हमारे गणतंत्र दिवस के मुख्य मेहमान हैं।
वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में ही गुजरात कांड हुआ था। उपर्युक्त पुस्तिका के साथ डॉ प्रेमसिंह की एक और पुस्तिका ‘गुजरात के सबक’ प्रकाशित हुई थी। उसमें गुजरात सरकार और उस समय के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बचाव में वाजपेयी की भूमिका को तथ्यों की रोशनी में उजागर किया गया है। संसद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘दर्शन’ की बतौर प्रधानमंत्री प्रशंसा करने वाले वाजपेयी को भारतरत्न मिलने पर भावनाओं में बहने के बजाय उनके राजनीतिक व्यक्तित्व और विचारधारा पर गंभीरता से चर्चा होनी चाहिए।
वाजपेयी के साथ स्वतंत्रता सेनानी मदनमोहन मालवीय को भी भारतरत्न दिया गया है, हालांकि उनकी खास चर्चा नहीं हो रही है। वाजपेयी के साथ मदनमोहन मालवीय को पुरस्कार देकर आरएसएस-भाजपा मदनमोहन मालवीय के साथ अपना जुडाव दिखाना चाहते हैं। वास्तविकता में ऐसा नहीं है। मदनमोहन मालवीय स्वतंत्रता आदोलन की विचारधारा के साथ थे और आएसएस उसके विरोध में था।
वाजपेयी ने भारत छोडो आंदोलन में क्रांतिकारियों की मुखबरी की थी, इस आरोप पर संघियों का कहना होता है कि वह काम बड़े पैमाने पर कम्युनिस्टों ने भी किया था। अरुण शौरी ने इस विषय पर ‘दि ओन्ली फादरलैंड’ शीर्षक से एक किताब ही लिखी है। इसे उनकी पुस्तक ‘वर्शिपिंग फाल्स गॉडस’ की पूर्वपीठिका कहा जा सकता है। इस पुस्तक के लेख पहले ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ में प्रकाशित हुए थे। कम्युनिस्ट नेतृत्व ने तब जवाब दिया था कि उनकी पार्टी भारत छोडो आंदोलन में अपनी भूमिका के लिए उसी समय माफी मांग चुकी है। वाजपेयी के समर्थन में संघी यह भी कहते हैं कि वाजपेयी की उम्र उस समय बहुत कम थी। हम सब जानते हैं पुलिस की गोली से मारे जाने वाले या फांसी चढ़ने वाले कई क्रांतिकारी वाजपेयी जितनी उम्र के ही थे। क्या आरएसएस और वाजपेयी को आजादी के आंदोलन के प्रति दगाबाजी के लिए राष्ट्र से माफी नहीं मांगनी चाहिए? अगर विवेकपूर्ण चर्चा होगी तो सबसे ऊपर यही सवाल उभर कर आएगा।
राजेश कुमार
राजेश कुमार, लेखक जीटीवी में कार्यरत है।


