एनडीए सरकार की सालगिरह के मौके पर बार-बार, 2015 की पहली तिमाही के 7.5 फीसद वृद्धि दर के आंकड़े की ओर ध्यान खींचा जा रहा था। इस आंकड़े को इस आशय के दावों के प्रमाण के रूप में पेश किया जा रहा था कि नरेंद्र मोदी के शासन में भारतीय अर्थव्यवस्था, दुनिया की सबसे तेज वृद्धि दर वाली अर्थव्यवस्था बन गयी है। वृद्धि दर के आंकड़ों की सार्थकता से लेकर प्रामाणिकता तक की बहसों को अगर छोड़ भी दिया जाए तब भी, भारत के चीन को पछाडक़र सबसे तेज वृद्धि दर हासिल करने के इस दावे में भी जरा से अगर-मगर की गुंजाइश थी। 2014-15 के पूरे वित्त वर्ष के दौरान वृद्धि का आंकड़ा, नये आधार वर्ष के अपनाए जाने के बाद हुई बढ़ोतरी के बावजूद, 7.3 फीसद से ज्यादा नहीं था, जो चीन को पछाड़ने के लिए काफी नहीं था। हां! 2015 की पहली तिमाही का 7.5 फीसद का आंकड़ा जरूर, चीन से आगे था, यानी सालाना वृद्धि दर के पैमाने से भारत के दुनिया भर में सबसे आगे निकलने के मजबूत आसार तो हैं, पर यह अभी साल भर की वृद्धि दर से साबित होना बाकी है। इसके विपरीत, ठीक इसी मौके पर आयी दुनिया भर में खाद्य असुरक्षा यानी भूख की स्थिति पर विश्व खाद्य तथा कृषि संगठन की रिपोर्ट, एक और मामले में भारत के दुनिया के सभी देशों में बाकायदा तथा भारी अंतर से, सबसे आगे चल रहे होने के साक्ष्य पेश कर रही थी। हमारा इशारा भूखे पेट सोने वालों की संख्या की ओर है।
इस रिपोर्ट के अनुसार आज भी भारत में पूरे 19 करोड़ 60 लाख लोग भूख या अपर्याप्त पोषण के चंगुल में है। इस रिपोर्ट में भूखे की श्रेणी में ऐसे लोगों का शामिल किया गया है जो, 'इतना भोजन नहीं हासिल कर पाते हैं, जो एक सक्रिय तथा स्वस्थ्य जीवन जीने के लिए पर्याप्त हो।' भारत में ऐसे लोगों की संख्या दुनिया भर में तो सबसे ज्यादा है ही, अपने से ज्यादा आबादी वाले चीन के मुकाबले करीब 6 करोड़ 10 लाख ज्यादा है। वास्तव में कुल आबादी के अनुपात के लिहाज से भी भूखी आबादी के मैदान में भारत, चीन से बहुत आगे है। चीन में अगर 9.3 फीसद आबादी इस रिपोर्ट के पैमाने से अब भी भूख की चपेट में है, तो भारत में यही हिस्सा 15.2 फीसद है यानी हरेक पंद्रह में से दो लोग, भूखे पेट सो रहे हैं। याद रहे कि पूरी दुनिया की आबादी में यही अनुपात 11 फीसद ही है। यहां तक कि सब मिलाकर विकासशील देशों में भी यह अनुपात आबादी के 12.9 फीसद से ज्यादा नहीं है। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि दुनिया का हरेक चौथा भूखा इंसान, दुनिया की सबसे तेज वृद्धि दर होने का दम भर रहे भारत में ही रहता है!
बेशक, भूख के इन आंकड़ों को सही परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए, यह भी याद दिलाना जरूरी है कि भूख के मोर्चे पर भारत की यह स्थिति तो, पिछली करीब चौथाई सदी के दौरान भूख को मिटाने में ठीक-ठाक प्रगति करने के बाद है। भारत ने इस दौर में भूखों के अनुपात में तिहाई से कुछ ज्यादा कमी तो दर्ज करायी ही है। वास्तव में विश्व में खाद्य सुरक्षा की स्थिति पर खाद्य व कृषि संगठन की यह रिपोर्ट, सिर्फ 2015 में खाद्य असुरक्षा की स्थिति की रिपोर्ट भर नहीं है। वास्तव में यह रिपोर्ट, 1992 में स्वीकार किए गए सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में शामिल, भूख के मारों का हिस्सा 2015 तक घटाकर आधा करने में दुनिया की प्रगति का रिपोर्ट कार्ड भी है। रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के जिन 129 देशों की भूख के मोर्चे पर स्थिति पर कृषि व विकास संगठन नजर रखे हुए था, उनमें से पूरे 72 देशों ने 1990-92 के बाद से भूखों का अनुपात आधे से नीचे ले जाने के उक्त लक्ष्य को हासिल किया है। और 26 देशों ने भूख के मारों की कुल संख्या आधी करने के और भी महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल कर के दिखाया है, जिसे 1996 में विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन में अपनाया गया था। यहां कि समग्रता में विकासशील देश भी, इस लक्ष्य को हासिल करने से जरा से ही पीछे रह गए हैं। चौथाई सदी पहले के 23.3 फीसद से घटकर, विकासशील दुनिया में भूखों का अनुपात, 12.9 फीसद रह गया है। लेकिन, भारत में अब भी यह हिस्सा 15.2 फीसद बना हुआ है।
याद रहे कि भूख घटाने के मामले में भारत का प्रदर्शन इसके बावजूद विकासशील दुनिया के औसत प्रदर्शन से बहुत पीछे रहा है कि चौथाई सदी का यही दौर भारत में नव-उदरवादी नीतियां अपनाए जाने और इसके माध्यम से ऊंची वृद्धि दरों के उन्मुक्त किए जाने का दौर रहा है, जिसके चलते भारत अब दुनिया की सबसे तेजी से वृद्धि कर रही अर्थव्यवस्था बनने के मुकाम पर पहुंच गया बताते हैं। इसका मतलब साफ है। ऊंची वृद्धि दर अपने आप में भूख के घटने की गारंटी नहीं है। इसीलिए, खाद्य असुरक्षा की स्थिति पर रिपोर्ट में बाकायदा यह रेखांकित भी किया गया है कि, 'ऊंची वृद्धि दर पूरी तरह से खाद्य उपभोग में बढ़ोतरी तक में तब्दील नहीं हो पायी है, फिर कुल मिलाकर पोषण में सुधार की तो बात ही कहां उठती है, जो इसका इशारा करता है कि गरीब और भूखे समग्र वृद्धि का लाभ हासिल करने में विफल रहे हो सकते हैं।'
रिपोर्ट बलपूर्वक याद दिलाती है कि गरीबों और भूखों की दशा में सुधार के लिए सिर्फ वृद्धि काफी नहीं है बल्कि 'समावेशी' वृद्धि चाहिए।
आर्थिक वृद्धि के आम जनता की जिंदगियों के लिए सार्थक होने के लिए, उसके समावेशी होने की याद दिलाना, हमारे देश में आज और भी जरूरी हो गया है। इसकी सीधी सी वजह यह है कि मौजूदा सरकार विकास की जैसी परिकल्पना को आगे बढ़ा रही है और एक साल में जिसे उसने लागू किया है, वह स्पष्ट रूप से वृद्धि दर का समावेशी होना सुनिश्चित करने से ठीक उल्टी दिशा है, में जाती है। यह संयोग ही नहीं है कि पिछली यूपीए सरकार को, अपने पहले कार्यकाल में वामपंथ के दबाव में और आगे चलकर दूसरे भी तकाजों के चलते, विकास की अपनी परिकल्पना में जिस अधिकारिता-आधारित रुख के तत्व को जोड़ऩा पड़ा था, मोदी सरकार ने सबसे पहले उससे ही छुट्टी पाने की कोशिश की है। मनरेगा के रूप में सीमित ग्रामीण रोजगार गारंटी पर उसके चौतरफा हमले से लेकर, भूमि अधिग्रहण कानून में अधिग्रहण को आसान बनाने वाले संशोधनों तक, इसी की ओर इशारा करते हैं। मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट में एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम से लेकर, ग्रामीण स्वास्थ्य रक्षा कार्यक्रम तक, तमाम कल्याणकारी कार्यक्रमों में भारी कटौतियां थोपा जाना भी इसी की ओर इशारा करता है। और खाद्य सुरक्षा कानून का दायरा घटाने के प्रस्तावों से लेकर, उसके पालन में टालमटोल तक और किसानों को उनकी पैदावार के लाभकारी दाम दिलाने से इंकार से लेकर, सरकारी खरीद की व्यवस्था का सिकोड़ा जाना तक तो, सीधे-सीधे खाद्य असुरक्षा बढ़ाने की ओर ही इशारा करते हैं।
संक्षेप में यह कि मोदी सरकार की नीतियां खाद्य असुरक्षा को और बढ़ाने का ही काम कर रही हैं। यह संयोग ही नहीं है कि खाद्य व कृषि संगठन के ही पैमाने पर अगर 2012 में भारत में भूखों की संख्या 18 करोड़ 99 लाख थी, मोदी के राज के पहले साल में, यह संख्या बढक़र 19 करोड़ 46 लाख पर पहुंच गयी। यहां तक कि भूख के मारों के अनुपात कमी की दर भी घटकर 0.4 फीसद ही रही गयी, जबकि 2010-12 के दौरान यही दर 5 फीसद रही थी। जाहिर है कि ऐसे तो नहीं मिटेगी भूख।
राजेंद्र शर्मा
राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।