भूमि अधिग्रहण अध्यादेश नहीं समग्र भूमि उपयोग नीति की देश को जरूरत- अखिलेन्द्र
भूमि अधिग्रहण अध्यादेश नहीं समग्र भूमि उपयोग नीति की देश को जरूरत- अखिलेन्द्र
वाराणसी। आल इण्डिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) के राष्ट्रीय संयोजक अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने वाराणसी में आयोजित स्वराज संवाद को बतौर अतिथि सम्बोधित करते हुए एनडीए की मोदी सरकार द्वारा तीसरी बार भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश लाने के फैसले की सख्त आलोचना की और इसे मोदी सरकार का लोकतंत्र विरोधी कदम कहा। उन्होंने समग्र भूमि उपयोग नीति के लिए राष्ट्रीय आयोग के गठन को देश के लिए जरुरी बताते हुए कहा कि जमीन अधिग्रहण का संपूर्ण प्रश्न जमीन के बड़े प्रश्न का महज एक हिस्सा है। 2013 का कानून पूरे मुद्दे को सरकारी और निजी एजेसिंयों द्वारा उद्योग और अधिसंरचना के विकास बनाम जमीन मालिकों और जमीन आश्रितों के हितों के संकीर्ण व लाक्षणिक संदर्भ में पेश करता है। 2013 का कानून बाजार की तार्किकता के बृहत दायरे के भीतर ही इसकी खोजबीन करता है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि जमीन-लूट के विरुद्ध किसान-आदिवासी प्रतिरोध सहमति व मुआवजे से आगे बड़े बुनियादी मुद्दों को उठाता है। इस विमर्श में सामाजिक विवेक के आधार पर जमीन एवं खनिज जैसे प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग शामिल है। बाजार-प्रक्रिया में अंतर्निहित विकृत्तियां सट्टेबाज वित्तीय पूंजी से बढावा पाती है। अंधाधुध निजी मुनाफाखोरी के आगे जनहित के लक्ष्य की प्राप्ति वस्तुतः
असंभव है। इस प्रक्रिया में खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण संरक्षण व इकोलाजिकल संतुलन की सामाजिक तौर पर अनदेखी की जाती है। इससे पैदा हो रहे सामाजिक असंतुलन में संपत्ति, संसाधनों व शक्ति के चुनिंदा कार्पोरेट घरानों के हाथों तेजी से संकेन्द्रण के कारण भारी पैमाने पर किसानों-ग्रामीणों की बेदखली व दरिद्रीकरण होता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन बड़े प्रश्नों का हल तब तक असंभव है जब तक कि ‘‘बाजार की तार्किकता’’ को पूर्णतः ‘‘सामाजिक विवेक’’ के सिद्धांत के मातहत नहीं लाया जाता।
अखिलेन्द्र ने कहा कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के मानक वर्ष में बदलाव कर सात प्रतिशत से ज्यादा की जीडीपी दर दिखाकर भले ही मोदी सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है। सच यह है कि पिछले दशक के इस वित्तीय वर्ष में लोगों की क्रय शक्ति में सबसे ज्यादा गिरावट आयी है और रोजगार के अवसर घटे है। दरअसल देश की आधी से ज्यादा आबादी खेती किसानी पर निर्भर है। देश की 47.2 करोड़ की श्रमशक्ति में कृषि और उससे संबद्ध क्षेत्र 23 करोड़ लोगों को रोजगार मुहैया कराता है। ‘‘आर्थिक सुधारों’’ के ढाई दशकों में कृषि क्षेत्र ही सर्वाधिक उपेक्षित हुआ है। मोदी सरकार के एक वर्ष में तो देश की कृषि विकास दर शून्य पर आकर टिक गई है व ऋणात्मक विकास को प्रदर्शित कर रही है। कृषि की उपेक्षा को सम्पूर्ण बजट में उसकी हिस्सेदारी से समझा जा सकता है। वर्ष 2014-15 के इस सरकार द्वारा 16.81 लाख करोड़ के बजट में कृषि और सहकारिता के क्षेत्र को जहां केन्द्र व राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों में कुल 22651.75 करोड़ रुपए आंवटित हुए थे वहीं इस वर्ष 17.77 लाख करोड़ के बजट में इस क्षेत्र में 17003.85 करोड़ रुपए आवंटित कर सरकार ने 5647.69 करोड़ की कटौती कर दी है। (व्यय बजट, अवस 1, 2015-16) कृषि संकट के कारण हर महीने करीब दस लाख लोग गैर-कृषि क्षेत्र में दाखिल होते हैं मगर निर्माण क्षेत्र को छोड़ दें तो नए रोजगार पैदा नहीं हो रहे है। आईटी, आटोमोटिव एवं दवा जैेसेे क्षेत्र भी भारी श्रमशक्ति को कतई समाहित नहीं कर सकते। कृषि और कृषि आधारित उद्योग ही रोजगार के संकट को हल कर सकते है। कारपोरेट पूंजी के विकास पर निर्भर होकर कृषि और रोजगार के संकट को कतई हल नहीं किया जा सकता। स्पेशल इकनोमिक जोन पर संसद में 2014 में पेश सीएजी की रिर्पोट कहती है कि सेज का मकसद आर्थिक विकास, माल एवं सेवाओं के निर्यात को प्रोत्साहन, घरेलू एवं विदेशी निवेश को बढ़ावा, रोजगार सृजन और अधिसंरचनात्मक सुविधाओं का विकास करना था। जबकि राष्ट्रीय डाटाबेस में यह साफ तौर पर दिखता है कि सेज के क्रियाकलापों से इन क्षेत्रों में कोई विकास नहीं हुआ। 152 सेजों के अध्ययन से सीएजी ने कहा कि रोजगार के अवसर बढ़े नहीं है। दूसरी बात यह भी गौर करने लायक है कि विकास के लिए जमीनें किसानों से ली गयी लेकिन बिल्डरों ने सरकार से मिलकर जमीनों का अच्छा खासा हिस्सा हथिया लिया। सीएजी रिपोर्ट कहती है कि सेज के लिए देश में 45635.63 हेक्टयर जमीन अधिग्रहित की गयी जिसमें 28488.49 हेक्टयर जमीन में ही काम शुरू हुआ। सेज के लिए ली गयी जमीनें ‘‘सार्वजनिक उपयोग‘‘ के लिए ली गयी जिनका व्यावसायिक उपयोग किया गया। मोदी सरकार किस कदर झूठ बोलती है इसको इस सरकार के सिंचाई के सम्बंध में किए जा रहे दावे से समझा जा सकता है। सरकार ने पिछले वर्ष के मुकाबले इस वर्ष सिंचाई के बजट में तीन सौ करोड़ रुपए की कटौती कर दी है और जिस प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना की बड़ी बातें हो रही है उसे महज 1000 करोड़ रुपए ही बजट में आवंटित किए गए है।
आइपीएफ राष्ट्रीय संयोजक ने आंदोलन के मुद्दे को सूत्रबद्ध करते हुए कहा कि भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश तत्काल वापस लिया जाए और जनपक्षधर, वैज्ञानिक, आजीविकाहितैषी, खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने वाली और पर्यावरणहितैषी राष्ट्रीय भूमि उपयोग नीति के निर्माण के लिए राष्ट्रीय आयोग का गठन हो जो निश्चित समय सीमा में अपनी संस्तुति दे और तद्नुरुप कानून बनाया जाए, गैर कृषि उपयोग एवं कारपोरेट हितों के लिए कृषियोग्य जमीन के हस्तांतरण पर कड़ाई से रोक लगायी जाए, किसान आंदोलन के रूप में सहकारी आंदोलन, जो क्रेडिट, विपणन, लागत सामग्री की आपूर्ति एवं उत्पाद का प्रसंस्करण, अन्य सेवाएं, और सर्वोपरि खेती को समेटे हुए हो। राज्य समर्थित कार्यक्रम के मकसद की तर्कसंगत समयसीमा में गारंटी की जानी चाहिए, जो कृषि कार्यशक्ति का शहरी व अद्ध्र्रशहरी इलाकोेें में पलायन को कम करेगा और कम से कम औसतन राष्ट्रीय आय के बराबर प्रति व्यक्ति की दर से इस कार्यशक्ति को कार्यस्थल या उसी जल संभारक इलाके में ही अतिरिक्त श्रम के जरिए रोजगार की गारंटी की जानी चाहिए। यह हमारी औद्योगिक नीति के दायरे में बदलाव की
मांग करेगा। यह ‘‘वैश्विक प्रतिस्पर्द्धी औद्योगीकरण’’ की मौजूदा मोहग्रस्तता से हटने का समावेशन करेगा और ‘‘रोजगार-केन्द्रित, जन उपभोग अनुकूल एवं गांव आधारित औद्योगीकरण’’ के पक्ष में बदलाव का वाहक बनेगा।
अखिलेन्द्र ने कहा कि मोदी सरकार के विरूद्ध किसानों में अविश्वास का वातावरण है ऐसी स्थिति में देश की सभी आंदोलन की ताकतों को एक साथ आकर किसान सवालों पर इस सरकार की किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ आंदोलन तेज करना होगा।


